अमतृ पुत्र
लेखक-
श्री सुदर्शन ससिंह जी ‘चक्र’
[इस पुस्तकको सम्पूर्श अथवा इसके सकसी अिंर् को प्रकासर्त करने,
उद्धृत करने अथवा सकसी भी भाषामें अनूसदत करने
का सबको असधकार है।]
*
प्रकार्क-
श्रीकृष्र्-जन्मस्थान सेवा सिंस्थान
मथुरा-२८१००९ (उ.प्र)
*
मुद्रक-
राष्रीय प्रेस,
डैम्पीयर नगर, मथुरा-२८१००९
दूरभाष:१३७
*
प्रकार्न सतसथ:- प्रथमावृसत-२५००
श्रीकृष्र्-जन्माष्टमी, सव.सिं. २०३८ मूल्य-१०)००
२३, अगस्त,१९८१ ई. सिंर्ोसधत मूल्य-१२)००
यह पस्ु तक भारत सरकार द्वारा ररयायती मूल्यपर उपलब्ध सकये गये कागजपर मुसद्रत-
प्रकासर्त है।
2
अनुक्रमसर्का ‘अमृतपुत्र’ पुस्तक की
पूवश खण्ड
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प्रस्तावना- .............................................................. 6
अपनी बात- ......................................................... 16
एसन्द्रयक जीवन- ................................................... 19
पररहास - ............................................................. 24
पुनः पररहास- ....................................................... 29
आर्ीवाशद- ........................................................... 38
र्ाप सुधार- .......................................................... 47
पुनः र्ाप- ............................................................ 54
र्ापों का सववेचन- ................................................ 64
तुम्हारी जय हो- ..................................................... 72
मुसनकुमार- ........................................................... 81
सभ
ु द्र- .................................................................. 90
ससृ ष्टकताश के साथ-................................................. 99
प्रलयिंकर का प्रेम- ............................................... 109
3
देवसषश दीखे- ....................................................... 118
सवष्र्ु की व्यापकता-........................................... 125
सौम्य र्ेष- ......................................................... 137
दानवेन्द्र मय- ...................................................... 144
दैत्यराज बसल- .................................................... 156
महजशनः तपः- ..................................................... 166
अमरावती अभासगनी-.......................................... 176
उदार यम-........................................................... 185
गन्धवश लोक- ...................................................... 194
वायु लोक- ......................................................... 203
असनन लोक- ....................................................... 212
वरुर् व्यथा-....................................................... 221
कातर कुबेर- ....................................................... 230
असहाय अयशमा- ................................................. 239
4
पूवश खण्ड
5
प्रस्तावना-
ऄब यह पस्ु तक ईपदेश न बनकर ईपन्यास बन गयी है।
ऄत: अवश्यक हो गया है आसकी प्रस्तावना लिख देना। आसलिए
अवश्यक हो गया है, लजससे पाठक आसका ईद्देश्य समझ सकें ।
यह ऄद्भुत ईपन्यास है। न ऐलतहालसक, न ठीक पौरालणक ही।
अध्यालममक ईपन्यास भी कहना कलठन है। आस प्रकार का कोइ
ईपन्यास मैंने कहीं देखा-सनु ा नहीं।
'अञ्जनेयकी अममकथा', 'शत्रघ्ु नकुमारकी अममकथा' भी
मेरे ईपन्यास हैं और ईपन्यास ही हैं 'प्रभु अवत' तथा 'वे लमिेंगे'
भी; लकन्तु चारों पौरालणक ईपन्यास हैं। भलिरस प्रधान हैं। ईन्हें
भावक ु भगवद्भि बडे प्रेम से पढ़ते हैं।
यह ऄमतृ पत्रु ऄपनी सववथा लभन्न परम्परा रखता है। आसका
ईद्देश्य है पररचय देना। गोिोक साके तालद की लस्थलत क्या है, यह
ग्रथं ों में होने पर भी िोकमानस में स्पष्ट नहीं होती। ईन ऄतीलन्िय
िोकों का वणवन भी वाणीका लवषय नहीं। लिर भी ईनका कुछ
स्वरूप आस ईपन्यास से स्पष्ट होगा।
6
ममयविोक (भि
ू ोक), भवु िोक (प्रेत िोक), स्वगव
(देविोक), महिोक (लसद्धिोक), जनिोक (लदव्य ऊलष िोक),
तपोिोक (तपस्वीिोक) और समयिोक (ब्रह्मिोक) कहां हैं,
कै से हैं?
नरक क्या हैं? यमिोक तथा यमराज, यमदतू , लचत्रगप्तु क्या
हैं और कै से काम करते हैं? वरुण, कुबेर, आन्ि अलद िोकपाि
क्यों कहिाते हैं, क्या काम है आनका? आनके िोकों की लस्थलत
क्या है?
नीचे के सात िोक क्या? ऄति, लवति, सतु ि, तिाति,
महाति, रसाति और पाताि कहााँ हैं? क्या लस्थलत है आनकी?
ब्रह्मा सलृ ष्ट कै से करते हैं? लवष्णु के पािक तथा रुि के
सहं ारकताव होने का क्या ऄथव है? आनके िोक कहााँ है? कै से हैं?
शेषनाग ही का क्या ऄथव है?
सतयगु , त्रेता, द्रापर यगु कै से हुअ करते हैं? ईस समय का
रहन-सहन, सामालजक लस्थलत क्या है?
7
आन सब लवषयों का परु ाणों में वणवन तो लकया गया है, लकन्तु
बहुत सलं िप्त और साक ं े लतक रूप में। आनका वणवन लकया जाय तो
बहुत रूखा वणवन होगा। यह 'ऄमतृ पत्रु ' ईपन्यास आन सब लवषयों
को समझाने के लिए है। लहन्दू परु ाणों के आन तथ्यों को सरि,
सबु ोध रूप में वणवन करने के लिए है।
आस वणवन के साथ भलि-लसद्धान्त का सववत्र रिण है।
सनातन धमव की मान्यताओ ं को स्वीकार करके ईसके लनयमों,
लसद्धान्तों को आसमें स्पष्ट लकया गया है।
'पादोस्य सवश्वाभूतासन तृपादस्यामृतिं सदसव।'
व्यापक ब्रह्मतत्त्व के एक पाद में माया-मण्डि है और शेष
तीन पाद में ऄमतृ - ऄलवनाशी लदव्यिोक हैं।
वैकुण्ठ, गोिोक, साके त, लशविोक, देवीिोक अलद लदव्य
िोकों की चचाव ग्रन्थों में है। आनके नाम सनु े हैं अपने। ये
भाविोक हैं। ये लकतने हैं, कहना कलठन है। सम्भवत: ऄसख्ं य हैं;
लकन्तु यही परम समय हैं। सववव्यापक हैं।
8
ब्रह्म सगणु -लनगवणु ईभयरूप है। दोनों रूप परस्पर ऄलभन्न हैं।
यह वणवन लवस्तार से भगवान वासदु वे , श्रीद्राररकाधीश, पाथव-
सारलथ, नन्दनन्दन, लशवचररत तथा रामचररत के खण्डों की
प्रस्तावना में लदया जा चक ु ा है। यहााँ आसका लवस्तार नहीं। यहााँ
के वि आतना लक ये भाविोक ही परम समय हैं, लनमय हैं। सलृ ष्ट
आनका प्रलतलबम्ब मात्र है। लकसी भी लनष्ठा के ऄनसु ार अराधना
करके आनमें-से लकसी िोक की प्रालप्त होती है। लनगवणु तत्त्व ब्रह्म
ज्ञान से प्राप्त होता है।
आन सगणु िोकों की ठीक लस्थलत वणवन का लवषय नहीं है।
आनमें देश, काि का वणवन के वि समझाने के लिए है। देश-काि
ईनमें कलपपत हैं। हमारी सलृ ष्ट वहााँ मानलसक-स्वप्न सलृ ष्ट के समान
है। देश-काि भी एक नहीं हैं। लवलभन्न देश-काि हैं लवलभन्न वगों
के । वस्ततु ः देश और काि भी सापेि तत्त्व हैं - कोइ समय नहीं हैं।
आन िोकों के पश्चात् बात अती है सलृ ष्ट की ऄथावत् एक पाद
लवभलू त की - आस माया-मण्डि की। आसी में देश, काि, पदाथव की
प्रतीलत है और सब वणवन आसी को िेकर हैं। आसमें भी ब्रह्माण्ड
ऄनन्त हैं।
9
एक ब्रह्माण्ड का ऄथव है एक सौर-मण्डि। ऄपने सौर जगत
में पथ्ृ वी, मगं ि, बधु , गरुु , शक्र
ु और शलन ये ग्रह तो पलहिे से
जाने हुए हैं। लवज्ञान ने तीन ग्रह और ढूढ़े हैं - प्रजापलत, वरुण और
वारुलण (हषवि, नेपच्यनू और प्िटू ो)।
राहु और के तु छाया ग्रह हैं। चन्िमा पथ्ृ वी का ईपग्रह है। ऐसे
मंगि, गरुु , शलन अलद के भी ईपग्रह हैं। आनमें गरुु के तीन चन्िमा
हैं और शलन के तो कइ हैं।
अपको अकाश में जो नीहाररका (छायापथ) दीखता है,
ईसमें लजतने तारे हैं, सब सयू व हैं। अकाश में रालत्र में दीखने वािे
तारों में उपर के ग्रहों को छोड दें तो लजतने तारे हैं, सब सयू व हैं
और आस देवयानी नीहाररका के ही भीतर माने जाते हैं। आन तारों
की सख्ं या कइ ऄरब है। ऄपना सयू व आस नीहाररका मण्डि का
प्राय: सबसे छोटा और एक ओर िगभग कोने में लस्थत तारा है।
नीहाररकाएाँ भी लकतनी हैं? ऄब लवज्ञान ने भी कह लदया लक
ऄनन्त हैं। ऄनन्त नीहाररकाएाँ और प्रमयेक में ऄरबों सयू व। आस
प्रकार अप ऄब लवराट भगवान के - 'रोम रोम प्रलत िागे, कोलट
कोलट ब्रह्माण्ड' की कपपना कर सकते हो।
10
हम ऄपने ब्रह्माण्ड ऄथावत् सयू व-मण्डि से बाहर न जा सकते
और न ईससे बाहर की जानकारी पाने का हमारे पास कोइ ईपाय
है। सात िोकों का जो वणवन है, वे हमारे ऄपने ही ब्रह्माण्ड में हैं
और नीचे के सात िोक भी आसी ब्रह्माण्ड के । प्रमयेक ब्रह्माण्ड के
ऄपने-ऄपने ब्रह्मा, लवष्ण,ु रुि होते हैं। ऄत: हमारे आस ब्रह्माण्ड के
ब्रह्मा, लवष्ण,ु रुि तथा िोकपािों का वणवन ही परु ाणों में है। ऄन्य
ब्रह्माण्डों का वणवन हमारे लिए लनष्प्रयोजन है और ईन्हें जानने का
ईपाय भी नहीं। लदव्य िोकों का वणवन तो ईपासना की लसलद्ध के
लिए लकया गया है।
लवज्ञान भी मानता है लक प्रकृलत में प्रकाश से तीव्रगामी दसू रा
कोइ तत्त्व नहीं है। ऄतः प्रकाश से ऄलधक गलत पायी नहीं जा
सकती। हमारे 'सयू व-मण्डि' से लनकटतम तारा ऄथावत् दसू रा सयू व
कम-से-कम चार प्रकाश वषव दरू है। कोइ कभी लकसी प्रकार
प्रकाश की गलत का भी वाहन बना िे - लजसकी कोइ सम्भावना
नहीं, तब भी लनकटतम दसू रे ब्रह्माण्ड तक जाकर िौटने में कम से
कम अठ वषव िगेंगे। ऄतः वैज्ञालनक भी सयू व-मण्डि से बाहर
जाना सम्भव नहीं मानते हैं।
ब्रह्मिोक तक का सब वणवन हमारे ऄपने ब्रह्माण्ड का है।
जीव लजस ब्रह्माण्ड का है, ईसके पाप-पण्ु य से प्राप्त होने वािे
11
िोक ईसी ब्रह्माण्ड में हैं। ईसके कमव से होने वािा जन्म-मरण
ईसी िोक में; क्योंलक ईसके सस्ं कार ईसी िोक के हैं। सस्ं कारों से
ही कमव तथा कमविि होता है।
कमवशाह्ल आस बात को आस ढंग से कहता है लक पथ्ृ वी के
मनष्ु यों के ही कमव से पथ्ृ वी के सब पदाथव तथा सयू ावलद ग्रह-
ईपग्रह, िोक-िोकन्तर बने हैं। ये सब कमव िोक हैं। कमव लनलमवत
हैं और ईनमें कमविि भोगने ही जीव जाता है। ऄत: लजस
ब्रह्माण्ड में कमविोक है, ईसी में ईसके कमवलनलमवत िोक भी बनेंगे।
आस प्रकार मनष्ु यों के समलष्ट प्रारब्ध से ये िोक बनते हैं और व्यलष्ट
प्रारब्ध से ईसे नाना योलनयों में जन्म िेकर कमव भोग परू ा करना
पडता है।
ब्रह्मा, लवष्णु और रुि तो एक तत्त्व के ही तीन रूप हैं। ये
जीव नहीं होते। जो सववव्यापक, सववसमथव, सववसञ्चािक है,
लजसे इश्वर कहा जाता है, वही सगणु लनराकार तत्त्व प्रमयेक
ब्रह्माण्ड में रजोगणु का ऄलधष्ठाता होकर सलृ ष्टकताव है, सत्त्वगणु
का ऄलधष्ठाता बनकर शेषशायी या वैकुण्ठ-लवहारी लवष्णु है और
तमोगणु का वही ऄलधदेवता बनकर रुि है। ये रूप प्रमयेक
ब्रह्माण्ड में हैं। ईपास्य िोकों में जो परमतमव नारायण, लशव,
शलि, श्रीराम या कृष्ण रूपमें हैं - ईनके तो ऄश ं भतू ये कोलट-
12
कोलट ब्रह्माण्डों के ऄलधपलत ब्रह्मा, लवष्ण,ु रुि तथा आनकी
शलियााँ ब्रह्माणी, रमा एवं ईमा हैं।
आन लत्रदेवों के ऄलतररि ब्रह्माण्ड में कारकपरुु ष और सामान्य
जीव, ये दो प्रकार, भेद जीवों के हैं। कारक परुु षों में कुछ ऄलतशय
पण्ु याममा जीव हैं और कुछ इश्वरीय लवभलू तयााँ हैं। िोकपाि दोनों
प्रकार के होते हैं। जैसे आन्ि सौ ऄश्वमेध सम्पन्न करनेवािा कोइ
भतू पवू व चक्रवती होता है। िेलकन वरुण, कुबेर, यम अलद
िोकपाि, मन,ु वेदव्यास प्रभलृ त कारक परुु षों में सदा जीव ही
नहीं होते। कभी जीव होते हैं और कभी भगवान ही आन रूपों में
ऄवतीणव होते हैं। आस चतयु वगु ी के वेदव्यास कृष्ण द्रैपायन ऄवतार
हैं।
'ऄमतृ पत्रु ' ऄथवा भि सीधे गोिोक से अता है ममयवधरा
पर। यह ऄवधारणा आसलिए करनी पडी क्योंलक ब्रह्मण्ड के सब
िोकों में घमू अने की सामथ्यव ऄपेलित थी और चारों यगु ों का
भी वणवन करना था। देवलषव नारद ऄथवा ईनके जैसे लकसी ऊलष
को मख्ु यपात्र बनाने पर ईनकी मयावदा ईन्हें सववत्र पज्ू य बनाये
रखती। िितः सहज सामान्य वातावरण का वणवन कहीं सम्भव
नहीं होता।
13
गोिोक के ही गोपकुमार को िेने का भी कारण है।
भाविोकों में मेरा ऄपना मन कन्हाइ से लजतनी एकाममता
स्थालपत कर पाता है, ईतना तादामम्य ऄन्यत्र सम्भव नहीं होता।
यह सब लिखने का तामपयव मात्र आतना है लक अपके लिए
यह ऄमतृ पत्रु सगु म, सबु ोध बन सके । अप ऄपना अममीय बना
िे सकें आसे। िेलकन आसका यह तामपयव सववथा नहीं है लक मैंने यह
सब सोचकर योजनापवू वक लिखा है। यह ऐसा बन गया तब मैं यह
प्रस्तावना लिखने बैठा। मैं तो यह भी नहीं जानता था लक यह
ईपन्यास बनेगा। कृलत तो यह यलद लकसी की है तो मेरे कन्हाइ की
है।
'किा किा के लिए' पर मेरी अस्था कभी नहीं रही। किा
को सोद्देश्य होना चालहए और वह ईद्देश्य समाज के लिए लशव
होना चालहए। वैसे यह ईपन्यास है, सववथा कलपपत ईपन्यास।
ऄतः घटनाओ ं में लकसी की समयता का प्रमाण अप मागेंगे तो
ऄन्याय करें गे। जो तथ्यों के लववरण हैं, वे भी कहीं एक स्थान पर
नहीं हैं। ऄतः ईनका मि ू बता पाना भी मेरे लिए सम्भव नहीं है।
पता नहीं आससे पौरालणक समय को समझने में अपको लकतनी
जानकारी बढ़ेगी।
14
के वि एक सन्तोष - आस ऄमतृ पत्रृ के माध्यम से प्रायः
कन्हाइ का स्मरण होता रहा है और अपको भी होगा।
15
अपनी बात-
ऄनेक बार व्यलि ऄकलपपत कायव करने को लववश होता है।
मैं क्यों आस पस्ु तक को लिखने में िगा - बहुत लवलचत्र बात है।
ईपदेश देने-लिखने में मेरी कोइ रुलच नहीं है और श्रीकृष्ण-चररत,
श्रीरामचररत लिखने के बाद से तो सववथा नहीं। श्रीमदभागवत
् की
वाणी मझु े बहुत ही लप्रय है -
स वासनवसगो जनताघसप्िं लवो
यसस्मन् प्रसतश्लोकमबद्धवत्यसप
नामान्यनन्तस्य यर्ोंसकतासनयत्
र्ृण्वसन्त गायसन्त गर्
ृ सन्त साधव: ।
- 12.12.51
िेलकन यह पस्ु तक ईपदेश की ही बनेगी - यह भी कै से कह
सकता ह।ाँ ऄपनी ओर से लिखने नहीं बैठा। कभी सोचकर,
योजना बनाकर लिखा नहीं। सदा की भााँलत एक शीषवक सचू ी बना
िी है। सचू ी बनाकर अशक ं ा होती है, यह लनरा ईपदेश न बन
जाय। बनेगा क्या, यह तो वह जानता है, जो ऄन्तयावमी बनकर
सदा लिखवाता रहा है। वह नटखट तो है; लकन्तु ऄपना है, ऄतः
वह कुछ करावे, ठीक ही करावेगा।
16
आस िेखन-प्रवलृ ि की भी एक कथा है। यहााँ मसरू ी में ऄभी
लपछिे सप्ताह ही रालत्र में िगभग एक बजे नींद खिु गयी और
मन में लपछिी लिखी एक झााँकी चिने िगी। वह बहुत कुछ
पररवलतवत होती गयी। वही है आस पस्ु तक का 'तम्ु हारी जय हो'
शीषवक।
बात समाप्त हो जाती, लिखने की नौबत ही न अती यलद
वह झााँकी परू ी होकर नींद अ जाती। िेलकन दसू री झााँकी प्रारम्भ
हो गयी - 'भतू या भलवष्य' और ईसके चिते पौने तीन बज गये।
मेरे लिए यह नवीन बात थी। मैं डटकर सोने वािों में ह।ाँ रालत्र
में यह लनिा-भगं मझु े ऄच्छा नहीं िगा। डर िगा लक यह क्रम
चिा तो सवेरा हो जायगा। चार बजने में पााँच-दस लमनट रहते
शय्या मयाग न करूं तो लनमयकमव सयू ोदय से पवू व परू े ही न हों।
ऄत: मैंने मनीराम से कहा - 'बन्द कर दो यह सब और सो
जाओ।'
आस प्रकार लनिा नहीं अती िगी तो मैंने कहा ऄपने कन्हाइ
से - 'भैया, सो जाने दे। यह सब मैं लिख दगंू ा । एक छोटी पस्ु तक
लिख दगंू ा - बस?'
17
सचमचु मन की ईधेड-बनु बन्द हो गयी ओर मैं सो गया।
सबेरे ईठकर मैंने कापी माँगवायी और सचू ी बना डािी। ऄब आस
सचू ी के अधारपर लिखा क्या जायगा, यह बात यह नटखट
मयरू मकु ु टी ही जानता होगा। मैं तो रालत्र में आसे लदये वचन को
पािन करने के लिए िेखनी िेकर कागज कािा करने बैठ गया
ह।ाँ
कागज ही तो कािा लकया है मैंने सदा। ईसमें जो वण्यव
लवषय है, वह तो मेरा नहीं है। वह सदा ही कन्हाइ का ऄनदु ान रहा
है। आस बार ही कोइ नयी बात नहीं होनी; लकन्तु आसलिए ऄटपटा
िग रहा है; क्योंलक सचू ी ऐसी बनी है जैसे यह ईपदेश का पोथा
बननेवािा हो।
कन्हाइ की जैसी आच्छा - आस बाबा नन्द के िाडिे की
आच्छा पणू व हो। िेलकन ईपदेश ही क्यों - यह ईपन्यास भी तो बन
सकता है।
रॉकिोटव िॉज सुदर्शन ससिंह
मसरू ी 14-6-1979
18
एसन्द्रयक जीवन-
'अप अाँख बन्द लकये क्यों बैठे हैं?' भि ने झंझु िाकर ईस
ऊलष की दाढ़ी लहिा दी। यह भी कोइ बात है लक कोइ गोिोक में
अकर आस प्रकार रीढ़ सीधी करके नेत्र बन्द करके बैठे। ध्यान ही
करना हो तो पथ्ृ वी है, महिोक है, तपोिोक है, जनिोक है और
समयिोक-ब्रह्मिोक भी है। लदव्यिोक में ध्यान करने की हठ थी
तो यह जटाधारी लशविोक क्यों नहीं गया।
'क्या?' ईस विीपलित काय, सदु ीघवजटी ने नेत्र खोिे और
सामने देखा। कुछ रोष भरे स्वर में पछ
ू ा - 'यहााँ ऄन्तमवख
ु होना
ऄपराध है?'
'ऄन्तमवख
ु ? लकसलिए?' भि को लवलचत्र िगता है यह
ऄन्तमवख
ु शब्द। ईसे, आसमें ऄपने कन्हाइ की ईपेिा भी िगती है।
यह नन्दनन्दन समीप हो और कोइ नेत्र बन्द करके बैठे। यह समीप
न हो तो आसे ढूाँढना चालहये या ऐसे गमु समु बैठे रहना चालहये।
ईसने तलनक झक ु कर ईन ईजिे के श मलु न महाराज को घरू कर
देखा - 'अपके दोनों नेत्र ठीक हैं। नालसका, कणव भी ठीक हैं और
अप तो बोि भी िेते हैं।'
19
एक तेरह-चौदह वषव का नटखट बािक आस प्रकार झक ु कर
अाँख, नाक, कान देखे, मख
ु समीप िाकर जैसे पता िगा रहा हो
लक कान या नाक में लछि है या नहीं, तो अपको कै सा िगेगा?
कुशि कलहये लक ईसने कोइ लतनका डािकर देखने की धष्ठृ ता
नहीं की थी।
'तमु क्या कहना चाहते हो?' मलु न महाराज को बािक की
चेष्टा से रोष अ गया। ये दलढ़यि बाबाजी िोग रुष्ट शीघ्र हो जाते
हैं - 'आलन्ियााँ हैं, ऄत: ईनका ईपयोग - ऐलन्ियक जीवन ही सब
कुछ है? आनके लनरोध का, ऄन्तमवख ु होने का प्रयोजन तम्ु हें
सीखना चालहये! तमु ऐलन्ियक जीवन प्राप्त करो।'
'ऄच्छा!' मलु न महाराजको अशा थी लक बािक डरे गा, हाथ
जोडेगा। लगडलगडाकर शाप-लनवलृ ि की प्राथवना करे गा; लकन्तु
बािक ने तो तािी बजायी। खि ु कर हाँसा - 'कन्हाइ मेरे साथ
रहेगा; लकन्तु ऄब वह अपको ऄाँगठू ा लदखा दे तो मैं नहीं
जानता।'
'ऐ!ं ' मलु न महाराज चौंके ; लकन्तु ऄब चौंकने से िाभ?
गोिोक कोइ स्थि ू िोक है लक वहााँ से लकसी को लनकािना पडे
20
या कोइ वहााँ ऄपनी शलि के बि पर रह सके । भगवती योगमाया
की पिक मात्र लहिती हैं और कोलट-कोलट ब्रह्माण्ड बन जाते या
लमट जाते हैं।
मलु न महाराज ने जैसे ही रोष-ग्रहण लकया, वे समझ ही नहीं
सके लक ईनकी ऄवस्था क्या हुइ या हो रही है। ऄपना शाप भी
ईन्होंने कहााँ परू ा लकया, लकसे लदया, यह बतिाने की लस्थलत में वे
भी नहीं रह गये। गोिोक कहााँ गया, क्या हुअ - ईन्हें पता नहीं।
मलु न महाराज को के वि यह िगा लक वे ईस ऄतीलन्िय
लदव्य िोक से बाहर हो गये और बाहर-बाहर होते जा रहे हैं।
उपर से नीचे की बात व्यथव है। वहााँ काि या स्थान का प्रवेश
नहीं है। जैसा ऄनभु व अपको गाढ़ लनिा से जागने पर होता है,
ठीक वैसा भी नहीं। लकसी को यलद िण-दो-िण को प्रगाढ़ ध्यान
हुअ हो तो जैसा ऄनभु व ईस ध्यान से जागने पर होता है, कुछ-
कुछ वैसा ऄनभु व।
वे महामलु न थे - आतने भि एवं ज्ञानी लक गोिोक पहुचाँ सके
थे। दभु ावग्य ईनका लक दीघवकाि तक योगी भी रहे थे। लनलववकपप-
लनबीज समालध लसद्ध योगी। ऄतः गोिोक पहुचाँ ते ही वहााँ के
ऄकपपनीय सौन्दयव ने ईन्हें ऄन्तमवखु कर लदया था।
21
ऄब ईिटी गलत प्रारम्भ हो गयी थी। वे समझ रहे थे लक वे
बडे वेग से जैसे सक्ष्ू मतम से स्थि
ू की ओर िें क लदये गये हैं;
लकन्तु लववश - कोइ प्रयमन सम्भव नहीं था। कहीं ऄवलस्थलत नहीं
हो रही थी। ऄवस्थान के प्रयमन को भी ऄवकाश नहीं था।
ठीक सोचने की भी लस्थलत तब प्राप्त हुइ जब वे यह समझ
सके लक वे स्थिू प्रकृलत के िेत्र में पहुचाँ गये हैं। िेलकन प्रकृलत में
अकर भी सयू व िोक में रुक जाना सम्भव नहीं हुअ। लकसी
ऄिक्ष्य शलि ने ईन्हें जैसे बिपवू वक ऄलचवमागव से खींचकर
लपतयृ ान के पथ में पटक लदया।
'देव! मझु से ऄपराध तो हो गया।' लपति
ृ ोक पहुचाँ कर जब
लस्थर हुए, पलहिा सकं पप ईठ सका, ईठा - 'िेलकन ऄब आस जन
का भी अग्रह है लक अप ही आसे ऄपनावेंगे और अप ही भेजेंगे
तो यह अपके कन्हाइ के चरणों के समीप जायगा। अप पीछे
जायेंगे - यह पलहिे जायगा, ऐसा लनणवय यह अपकी ऄकपपनीय
ईदारता पर अस्था करके करता है। अप आसे नेत्र खोिकर जो
दशवन कराना चाहते थे, लजसे ऄपनी ऄज्ञता से आसने खो लदया,
वह अप ही आसे देंगे। अपका संकपप व्यथव नहीं जायगा - ऄतः
ऄब आसका क्या होता है, यह लचन्ता अप ही करना।'
22
'ओम!् ' लपति
ृ ोक में महामाया की यह स्वीकृलत भिे न सनु ी
गयी हो; लकन्तु ऄनन्त के शाश्वत लवधान में तो वह ऄलं कत हो
गयी। कन्हाइ या कन्हाइ के लकसी ऄपने से िगकर लकसी का
ऄमंगि तो हुअ नहीं करता और कोइ भावना ईनसे िगे तो
महामाया को भी ईसे स्वीकार करना ही पडता है। आस लनयम को
वे भी ऄस्वीकार तो कर नहीं सकतीं।
ऄब आससे क्या बनता-लबगडता है लक वे महामलु न ऄब
महामलु न नहीं रहेंगे। वे ऐलन्िय प्राणी भी नहीं हो सकते। ईन्हें ऄब
पाषाण बनना है।
23
पररहास -
'ऄचानक ईन मलु न महाराज को क्या हुअ?' भि चौंका।
ऄब यह मत पलू छये लक लकतने समय पीछे । क्योंलक जहााँ काि का
प्रवेश ही नहीं है, वहााँ शीघ्र या देर की बात बनती नहीं। वहााँ
के वि वतवमान रहता है।
'तू ईसका स्मरण करता है?' कन्हाइ ने कुछ रोषपवू वक
ईिाहने के स्वर में कहा। ठीक कहा; क्योंलक यह नीिसन्ु दर
समीप हो तो कोइ दसू रे का स्मरण क्यों करे और यह समीप न हो
तो आसके लचन्तन के ऄलतररि ऄन्य स्मरण ही क्यों अवे?
'तू ईनसे ऄसन्तष्टु क्यों है?' भि को ऄपने श्यामसन्ु दर के
स्वर से िगा लक आसे ईन मलु न की चचाव ही बरु ी िगी है।
'ईसकी बात मत कर! वह बहुत बरु ा है।' कन्हाइ झझंु िा गया
- 'ईसने तझु े शाप लदया। ह!ाँ '
आस 'ह'ाँ का ऄथव भि जानता है। आसका ऄथव है - 'मैं देख
िाँगू ा।'
24
'बेचारा मलु न' भि के लचि में करुणा ईमड पडी। यह
कमििोचन कन्हाइ ऄपनों का है। ऄब आससे ईन मलु न के
सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। यह सनु नेवािा नहीं। ईिटे
ऄलधक रुष्ट होगा। कोइ ऄनजान में भी आसके ऄपनों का कुछ
ऄलहत सोचने िगे - कन्हाइ रूठा धरा है और कन्हाइ रूठ गया
तो समलष्ट में दसू रा कौन जो सन्तष्टु बना रहेगा? कन्हाइ रूठा तो
योगमाया कुलपत और लजस पर वे कुलपत ईस पर कृपा करने का
साहस कोइ देवता करे गा? ऄब ईस बेचारे मलु न का जप-तप,
साधन-भजन सब नगण्य हो गया।
'ईसका शाप? कै सा शाप?' भि ने सचमचु ऄब तक ध्यान
ही नहीं लदया था लक ईसे कोइ शाप भी लदया गया है। जब तक वह
स्वयं आच्छा न करे , लकसी का शाप ईसका स्पशव कै से कर सकता
है।
'तझु े शाप लदया ईसने!' श्याम के मख
ु पर रोष की ऄरुलणमा
है। आसका ऄथव ही है लक ईस ऄभागे मलु नका पतन चि रहा है।
वह कहीं लकलञ्चत् भी रुक नहीं पाता है।
25
'शाप? मझु े कहााँ िगा शाप?' भि ने आस प्रकार ऄपनी भजु ा,
पैर देखे जैसे शाप भी गौमय जैसा कुछ होगा और ईसका कोइ
छींटा कहीं पडा हो तो ईसे देख िेगा।
'ऐलन्ियक जीवन प्राप्त करो! यह शाप ईसने तझु े लदया।'
कन्हाइ का स्वर वैसा रोष भरा नहीं सही; लकन्तु भरा भरा है - 'तनू े
भी झटपट स्वीकार कर लिया।'
'ऄरे !' भि तो खि ु कर हाँस पडा। ईसका यह छोटा भाइ
आसलिए आतना रुष्ट है और रोने-रोने को हो रहा है? श्याम के दोनों
कन्धों पर ऄपने दोनों हाथ रख लदये भि ने। कन्हाइ को समझाना
पडेगा और यह के वि स्नेह की भाषा समझता है।
'ऐलन्ियक जीवन - मैं तझु े देख रहा ह,ाँ छू रहा ह,ाँ िे साँघू रहा
ह।ाँ तेरी बात सनु रहा हाँ - यही तो ऐलन्ियक जीवन।' भि को तो
सचमचु आसमें शाप जैसी कोइ बात नहीं िगती है।
'िेलकन वह खसू ट मन में यह िेकर शाप दे गया लक तझु े
ममयवधरा पर ऐलन्ियक जीवन प्राप्त करना है।' बडी कलठनाइ से
श्याम यह कह सका। आसके बडे-बडे नेत्रों से लबन्दु टपकने िगे।
26
'तो हो क्या गया?' लवलचत्र है भि भी। आसे आस शाप में भी
कोइ भय करने या लचन्ता करने जैसी बात नहीं िगती। भय और
लचन्ता आसके स्वभावमें ही नहीं है। आसने झटपट समाधान ढूाँढ़
लिया - 'बडा अनन्द अवेगा। ऄपना यह िोक तो लनमय है। यह
तो कहीं जाता नहीं। मैं ममयवधरा पर ऐलन्ियक जीवन में ऐसे ही तझु े
स्नेह दगाँू ा। बस तू आसमें एक संशोधन कर दे।'
'हााँ' भि ऄपने पटुके से श्याम के नेत्र पोंछने में िगा था।
ईसका हाथ तलनक हटाकर कन्हाइ हााँ करके ईसके मख ु की ओर
ऐसे देखने िगा जैसे कह रहा हो - 'तू बता तो सही। मैं एक तो
क्या एक िाख संशोधन भी ऄभी लकये देता ह।ाँ '
'मेरा के वि तू रहेगा वहााँ भी।' भि ने लस्थर गम्भीर स्वर में
श्याम की ओर सीधे देखते कहा - 'दसू रे लकसी को ऄपने-मेरे मध्य
में नहीं अने देगा।'
'ह'ाँ कन्हाइ ने ऄपने वाम-कर से ऄपनी घघंु रािी सलु चक्कन
ऄिकें टटोिी - 'भालभयााँ मेरे लसर में एक भी के श नहीं रहने
देंगीं।'
27
'तू ईनसे समझते रहना।' भि ऄब खि ु कर हाँस पडा - 'ईनमें
जो तझु े स्नेह दे सके , तेरे नाते यदा-कदा लमिती रह सकती है।
सदा सववत्र एकमात्र तू मेरा बना रहेगा।'
'कोइ नया बना रहगाँ ा।' कन्हाइ के भी ऄधरों पर ऄब लस्मत
अया - 'तू ना भी करे तो मैं तझु े छोडकर जाउंगा कहााँ? दाउ
दादा तो चाहे जब गमु समु बैठ जाता है। मझु े लिर कौन
सम्हािेगा?'
'लिर तू ईन मलु न से आतना क्यों रुष्ट था?' भि ने लिर चचाव की
- ' ईन्होंने तो पररहास लकया है।'
'ईसका नाम मत िे।' कन्हाइ को ईनकी चचाव भी सनु नी
स्वीकार नहीं - 'ये दलढ़यि जटी पररहास क्या जानें!'
'पररहास तो है ही।' भि समझ गया लक कन्हाइ से ईन मलु न
की चचाव करना व्यथव है। ऄब ईनको यहााँ िाना हो तो स्वयं ही
िाना पडेगा और आसमें ईनके शापको लनलमि बनाया जा सकता
है।
28
पुनः पररहास-
ऄनेकता और एकता भी देश और काि की कृलतयााँ हैं।
कणों की ऄनेकता देश लदखिाता है और िणों का ऄनेकमव
काि की कपपना है। जहााँ देश और काि ही कलपपत हो जाते हैं,
ईस लदव्य िोक में ऄनेकमव एवं एकमव का भी कुछ ऄथव नहीं है।
वहााँ एक साथ प्रमयेक ऄनेक भी है और ऄसंख्य होकर भी एक
ही है। धरा का मानव वहााँ की कपपना लकसी प्रकार कर नहीं
सकता। वहााँ जो कुछ है िीिा है। देश, काि, वय अलद कोइ
बाधा वहााँ नहीं। एक साथ ऄसंख्य िीिा और सब एक की। सब
पात्र-ईपकरण एक और ऄसंख्य भी। ऄतः घटनाओ-ं िीिा का
वणवन करने में क्रम देना वहााँ सम्भव नहीं है।
भि के चौंकने की ही बारी थी आस समय। आसका यह नटखट
सखा है ही ऐसा लक लकसी को चौंकाकर तािी बजाकर कूद-
कूदकर हाँसता है। सहसा कहीं से लवशाखा अयी और भि के पैर
ही पकडकर रोने िगी।
'िडलकयों के लिए रोना कोइ अश्चयव की बात नहीं है। रुदन
तो आनकी प्रकृलत का अवश्यक ऄगं है।' अप भिे भि से सहमत
न हों; लकन्तु यह कहता है लक 'िडलकयााँ रोवें नहीं तो आनका
29
अहार कदालचत ही पचे। ऄतः ये सकारण ही रोवें, ऐसा नहीं है।
ये तो कलपपत कारण बनाकर भी रोती हैं और खबू िूटिूट कर
रोती हैं।'
िडलकयों में कोइ रोने िगे तो ईधर ध्यान देने की
अवश्यकता नहीं है। ईसे हाँसा देने का मन हो तो अप भी वैसे ही
रोने िगो। भिे झठू -मठू को ही रुदन करो। िेलकन कोइ लबना बात
अपके ही पैर पकडकर रोने िगे तो? भि को वैसे भी िडलकयों
के रुदन से ईपरलत है और कोइ ईसका ही पैर या गिा पकडकर
रोवे, आससे तो यह बहुत घबडाता है।
'ऄरी क्या हुअ?' भि ने ऄपना पैर छुडाने का प्रयमन करते
कहा - 'तझु े बन्दर ने डरा लदया या लबिि
् ी ने काट खाया? यह
मेरा पैर है। आसे छोड और पैर ही पकडकर रोने से तेरा अज का
अहार पचनेवािा हो तो आस कन्हाइ का पकड। मैं तेरी पाचक
औषलध बनने को प्रस्ततु नहीं ह।ाँ '
'मझु े चाहे लजतना लचढ़ािो।' लवशाखा ने तलनक मखु उपर
ईठाया और रोते-रोते ही बोिी - 'िेलकन मेरी स्वालमनी पर दया
करो।'
30
'कनाँ!ू बरु ी बात है।' भि का मख
ु सहसा गम्भीर हो गया - 'तू
ईस भोिी सरिा को भी सताता है?'
'मैंने क्या लकया है?' कन्हाइ ने दोनों हाथों से पकडकर
लवशाखा का लसर झकझोर लदया - 'तू मझु े ही डााँट िगवाने दौडी
अयी है?'
'आन्होंने कुछ नहीं लकया' दसू रा ऄवसर होता तो लवशाखा
कन्हाइ को ऄगं ठू ा लदखा देती भि से लछपाकर; लकन्तु आस समय
यह बहुत व्याकुि है - 'ऄपराध मेरा है। मझु े शाप दो, यहााँ से
लनकाि दो। कुछ करो मेरा। मैं भाग्यहीना तो यमानजु ा ह।ाँ जड
जिरूपा ह।ाँ तमु दोनों ने कृपा करके ऄपना चरणाश्रय लदया और
तम्ु हारे आन सखा की कृपा से स्वालमनी की सेवा लमि गयी तो मैं
भि ू ही गयी लक मैं स्वभाव-लनष्ठुरा ह।ाँ कृपा करना मेरा काम नहीं
है। िेलकन स्वालमनी का रुदन मझु से नहीं देखा जाता। तमु ईन पर
दया करो।'
'कहााँ हैं वे?' भि सचमचु व्याकुि हो ईठा। सामान्यतः यह
श्रीराधा के सम्मख ु नहीं जाता है लक वे शीिमयी आसका बहुत
सम्मान करती हैं। बहुत संकोच करती हैं। कन्हाइ से दस महीने
बडा क्या है, वे तो आसे दाउ के समान ही मानती हैं। ईनको
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सक
ं ोच में डािना आसे ऄमयन्त ऄलप्रय है। वे रुदन कर रही हैं, यह
सम्वाद ही आसे ऄसह्य है। श्री वषृ भान-ु नलन्दनी की अाँखों में ऄश्र-ु
भि व्याकुि हो गया है।
'वे यहााँ नहीं हैं।' लवशाखा ने ऄमयन्त दीन स्वर में कहा -
'यहााँ अना भी स्वीकार नहीं करती हैं। लशविोक के मागव में बैठी
हैं और वहााँ से भगवती पाववती के पास भी जाना नहीं चाहतीं।'
'लशविोक के मागव में? भतू -प्रेतों की समीपता में और अक-
धतरू े के वन के पास?' लशविोक परम लदव्य सही; लकन्तु
श्रीकीलतवकुमारी के कुछ िण भी रुकने योग्य कै से हो सकता है।
भि ने श्याम का हाथ पकडा - 'चि! िे अवें ईस पागि िडकी
को।'
'मैं चिाँ?ू ' श्यामसन्ु दर लहचक गया। लवशाखा के मख
ु की
ओर देखने िगा। यलद आसके जाने से बात बनने योग्य होती तो
लवशाखा भि के पैर पकडकर नहीं रोती।
'आनको मत िे जाओ!' लवशाखा ने िूट -िूटकर रुदन प्रारम्भ
कर लदया - 'पलहिे मझु े कोइ भारी दण्ड दे दो। मैं िमा मााँगने की
ऄलधकाररणी नहीं ह।ाँ '
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'भारी दण्ड तो गोकुि में मेरे लपताजी का है।' भि आस समय
भी पररहास कर गया - 'मैं तो छोटा-सा िकुट रखता ह;ाँ लकन्तु तू
ईनकी िाठी ईठा पावेगी?'
'हाँसी मत करो!'
'तू ईठती है या तेरी चलु टया पकडकर ईठाना पडेगा।' भि
झपिाकर बोिा - 'तेरी बात लिर सनु िाँगू ा। ििी के समीप
चि!'
'ऄच्छा चिो!' बहुत करुणस्वर में कहकर लवशाखा ईठी -
'मझु से कहीं ऄलधक कातर होकर मेरी स्वालमनी वहााँ तम्ु हारे पैर
पकड िेंगी तो सहा जायगा तमु से? आसलिए मेरी बात यहीं
सनु िो। तमु दोनों सनु िो और आस पालपष्ठा को दण्ड दे िो तब
वहााँ जाओ।'
'तनू े क्या लकया है?' भि खडा रह गया। यद्यलप ईसका स्वर
कह रहा था लक जो कुछ कहना है, झटपट कह दे।
33
'मैं भि
ू गयी लक यम-भलगनी को बहुत दयािु नहीं होना
चालहये।' लवशाखा ने रोते-रोते ही कहा - 'मैं कृपामयी बनने चिी
थी। स्वालमनी की सेवा का ऄवसर दे लदया मैंने सवु चविा को।'
'यह तो कोइ ऄपराध नहीं है।' भि को िगा लक लवशाखा
कहीं कलपपत कारण से ही तो रुदन नहीं कर रही है और ऄपनी
स्वालमनी का नाम िेकर ईसे छकाने तो नहीं अयी है -
'श्रीकीलतवकुमारी के वि कृपा का घनीभाव हैं। ईनका सामीप्य
लजनको प्राप्य है, ईनमें लकलञ्चत् भी कृपा की न्यनू ता ईन
करुणामयी की ऄवमानना ही होगी।
'कृपा की ऄनलधकाररणी को मैंने ऄपनी कृपापात्रा बना
लिया।' लवशाखा का रुदन रुक नहीं रहा था - 'मैंने देखा ही नहीं
लक ईसमें प्रीलत नहीं, के वि पालतव्रमय है और ईसका ऄहक ं ार
भी।'
'सवु चविा का क्या हुअ?' भि को ऄब अशक ं ा हो गयी।
ऄवश्य आस िडकी के साथ कुछ हुअ िगता है। श्रीराधा की सब
लकंकररयों पर - ऄमयन्त बलहव्यवहू की दालसयों तक पर भि का
बहुत स्नेह है। यह सवु चविा तो लवशाखा की सेलवका थी।
34
'ईस कुलतया को भक ू ना था तो धरा कहााँ छोटी थी ईसके
लिए।' लवशाखा के रुदन में रोष का स्वर सलम्मलित हुअ - 'वह
वाणी वलञ्चता धरा पर धमू कर सकती है; लकन्तु आस ऄभालगनी
के कारण स्वालमनी मागव में बैठी हैं। रुदन कर रही हैं!'
'तनू े शाप लदया सवु चविा को? क्या लकया था ईसने?' भि ने
अतरु तापवू वक पछू ा।
'मैं आतनी धष्ठृ ता करूंगी, ऐसी ऄधमा हो गयी तम्ु हारी दृलष्ट
में?' लवशाखा ने पैरों पर लसर पटक लदया - 'स्वालमनी के सम्मख ु मैं
ऐसा साहस करती? भगवती योगमाया कामयायनी कहीं चिी
गयी हैं?'
'भगवती योगमाया' भि को ईन महामलु न का स्मरण अ
गया। ईन्होंने भि को ऐलन्ियक जीवन व्यतीत करने का शाप लदया
और योगमाया ने लवधान कर लदया लक ईन मलु न से ऐलन्ियक
जीवन ही नहीं, ऐलन्ियक चेतना भी छीन िी जाय। 'सवु चविा ने
लकसी को शाप लदया?'
35
'जीजी को - हेमा जीजी को शाप लदया ईसने। ईन्हीं को क्यों,
दसू री जीलजयों को भी शाप लदया और स्वयं चिी गयी कुलतया
बनने।' लवशाखा को बहुत क्रोध था सवु चविा पर।
'ऄच्छा पररहास है।' भि को तलनक भी बरु ा नहीं िगा। 'क्या
शाप लदया ईसने?'
'मैं ऄपने जिे मख ु से ईसकी अवलृ ि कर सकंू गी, यही
अशा है तम्ु हें मझु से?' लवशाखा का मख
ु बहुत दयनीय हो ईठा -
'स्वणाव जीजी सबके साथ स्वालमनी के समीप ही हैं। िेलकन अज
स्वालमनी ईनका ऄनरु ोध भी स्वीकार नहीं कर रही हैं।'
'बहुत भोिी है वह पगिी।' भि ऄब चि पडा - 'ईसे िगता
होगा लक सवु चविा का ऄपराध ईसका ऄपना है। हेमा ने क्रोध
लकया?'
'ईनको क्रोध शीघ्र अता तो है; लकन्तु अया नहीं।' लवशाखा
ने रोते-रोते बतिाया - 'स्वणाव जीजी हाँस पडीं और लिर तो सब
स्वालमनी को समझाने में िग गयी हैं।'
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'शाप कब लकस रूप में स्वीकार लकया जाय, यह सश ं ोधन
तो ििी ही कर देती।' भि को कुछ ऄटपटा नहीं िगता -
'कन्हाइ भी कर देगा।' ईस पगिी को समझाना पडेगा। लचन्ता तो
करनी पडेगी सवु चविा की।'
37
आर्ीवाशद-
'ऄनरु ोध करने अया हाँ दादा!' सबु ि दौडता अया और भि
के गिे में दोनों भजु ाएं डािकर कन्धे पर लसर रखकर िूट पडा-
'आस लवशाखा को बचािे। बलहन तेरे ऄलतररि और लकसी की
बात नहीं मानेगी। ऄब वह आसे समीप भी नहीं देखना चाहेगी। तू
जानता है, मझु े ये सब बलहन जैसी ही िगती हैं और बलहन आनमें-
से एक को भी पथृ क करके बहुत द:ु खी हो जायगी।'
'तू बहुत भोिा है। ऄपनी बलहन को भी नहीं समझता।' भि
ने सबु ि के नेत्र पोंछे - 'ििी को रोष करना अता ही नहीं। वह
के वि कृपा कर सकती है। लकसी पर कठोर नहीं हो सकती।'
'स्वालमनी को मख ु मैं कै से लदखाउाँगी।' लवशाखा लिर रोने
िगी - 'मझु े कोइ शाप क्यों नहीं देता है।'
'तू चपु चाप चिी चि।' भि ने सबु ि का हाथ पकडा - 'तू
बतिा लक हुअ क्या ?'
सबु ि क्या बतिा देता। ईसे भी परू ा पता नहीं था। ईसे तो
यही पता था लक ईसकी बलहन कै िास गयी थी और िौटते मागव
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में रुक गयी हैं। लवशाखा रोती भि के समीप गयी है तो ईसीसे भि
का कोइ ऄपराध हुअ होगा। िेलकन भि का ऄपराध हुअ तो
बलहन िमा कर नहीं सकती, यह सबु ि भिी प्रकार जानता है।
ऄच्छा हुअ लक थोडा अगे बढ़ अयी स्वणाव आन सबों को
अते देखकर। भि ने ऄपनी ज्येष्ठा पमनी को देखते ही पछ
ू ा-
'स्वणव, क्या हुअ है?'
'तम्ु हारी ििी एक पररहास मात्र से ऄलतशय दःु लखत हो रही
हैं।' स्वणाव के स्वर में सहजभाव था - 'तमु ईन्हें सदन चिने को
मनािो। दसू रा कुछ नहीं हुअ है।'
'सवु चविा ने आतना बडा शाप दे लदया और कुछ हुअ ही
नहीं?' लवशाखा अश्चयव से स्वणाव को देखनें िगी - 'जीजी! तमु
आसे पररहास कहती हो?
'कै सा शाप?' भि ने पमनी से ही पछ
ू ा।
'हम सब कै िास से िौट रही थी तो सवु चविा ने कह लदया -
'भगवती पाववती ही वस्ततु ः पलतव्रता हैं। दसू री नाररयों को ईनकी
कृपा से पालतव्रत प्राप्त होता है।' सवु चविा ऄभी नवीन अयी -
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अयी भी आस लवशाखा की कृपा से। धरा पर वह दृढ़ पलतव्रता थी
और भगवती ईमा की नैलष्ठक अरालधका। ऄतः ईसमें ऄभी श्रद्धा
का अवेश था।'
'ऄम्बा अद्या का स्तवन कोइ दोष तो है नहीं।' भि की श्रद्धा
ही कहााँ ईन जगद्धात्री के प्रलत ऄपप है।
'बलहन हेमा बोि पडी थीं लक नारी का सहज स्वभाव
पालतव्रत है। वह लवकृलत को ऄपनाती है यलद आस स्वभाव से
लवचलित होती है। लवकृलत सकारण होती है, प्रकृलत के लिए तो
कोइ कारण अवश्यक नहीं होता।'
'सवु चविा का दभु ावग्य - वह भडक ईठी। ईसे आस बात में
भगवती पाववती की ऄवमानना का अभास हुअ होगा। ईसने
शाप दे लदया; लकन्तु वह शाप तो पररहास जैसा है।' स्वणाव को
शाप महत्त्वहीन िगता था।
'क्या शाप लदया?' भि ने पमनी से सीधे पछ
ू ा।
40
'तम्ु हें ऄपने पालतव्रत का बडा गवव है? ममयवधरा को धन्य
करो। ऄन्त में भी ऄन्य से दो सतं ान ईमपन्न करके तब स्वामी को
प्राप्त करना और वह भी ऄपप सलन्नलध ईनकी।'
'मैंने बाधा दी।' स्वणाव ने कहा - 'मझु पर भी बरस पडी और
बलहन कनका पर, शभ्रु ा पर भी।'
'तम्ु हें भी शाप लमिा?' भि ऄब गम्भीर हो गया। हेमा तो
तलनक लचडलचडी है; लकन्तु कोइ स्वणाव जैसी सौम्या, सदया को
भी शाप दे सकती है?
'तू भी दसू रे के पास जाकर रह। ईसी की सन्तान का पािन
कर। स्वामी को पाकर भी दसू रे की बनकर रह।' स्वणाव ने शाप
सनु ा लदया; लकन्तु ईसके मख ु पर कोइ लवषाद नहीं अया।
'बलहन कनका ने रोकना चाहा' स्वणाव ने कहा - 'ईसे भी कह
लदया लक तू भी दसू रे की बनकर तब ऄपने स्वामी को पावेगी और
शभ्रु ा को भी। ईसने तो हाथ लहिा लदया - 'तमु सब!'
'क्या तामपयव?' भि का स्वर यह 'तमु सब' सनु कर ईग्र हो
ईठा।
41
'तमु क्यों रुष्ट होते हो?' स्वणाव बहुत सहज स्वर में बोिी -
'ईसका सक ं े त के वि हम चार के लिए था या पीछे खडी लहरण्या
और काञ्चना के लिए भी, यह स्पष्ट नहीं हुअ।'
'ताम्रा और खवाव के लिए?' भि सौम्य हो गया। ईसने समझ
लिया लक शाप के वि ईसी की पलमनयों को लदया गया है। श्रीराधा
और ईनकी सलखयों को शाप की अशंका से वह ईग्र ही ईठा था।
'वे दोनों तो साथ थी ही नहीं।' स्वणाव ने बतिाया - 'वे
लशविोक नहीं गयी थीं; लकन्तु बेचारी सवु चविा पर ऄब तमु को
कृपा करनी है।'
'जीजी! तमु ऄदभतु हो। तमु आस शाप को भी पररहास कहती
हो?' लवशाखा का अश्चयव ऄब तक लमटा नहीं था।
'देवर के और आनके भी ऄनन्त रूप हैं।' स्वणाव ने सलस्मत
कहा - 'ये और चार-छ: रूप बना िेंगे तो कुछ नहीं लबगडेगा
आनका।'
42
'मैं भी प्रशप्त हाँ देलव!' ऄब भि हाँस पडा - 'िेलकन देखती ही
हो लक शाप का कोइ छींटा मेरे ऄगं में कहीं नहीं िगा है। तमु को
भी शाप ने कहीं स्पशव लकया दीखता नहीं। कोइ शीघ्रता नहीं शाप
को ऄभी स्वीकृलत देने की।'
'तमु को लकसने शाप लदया?' सबु ि के नेत्र ऄरुण हो ईठे ।
'तमु क्यों रुष्ट होते हो?' भि ने सखा के कन्धे पर स्नेहपवू वक
कर रखा - 'एक मलु न महाराज थे। िेलकन कन्हाइ ही ईन पर रुष्ट
हुअ बैठा है। ईन्होंने भी पररहास ही लकया है। के वि ऐलन्ियक
जीवन प्राप्त धकरने को कहा।'
'ऄच्छा हुअ।' स्वणाव ऄब सप्रु सन्न बोिी - 'तमु हम चारों
बलहनों को समेट िाना।'
'िेलकन ििी क्यों मागव में यहााँ बैठी है?' भि ने पछ
ू ा।
'ऄब ऄपनी ििी को तमु स्वयं समझाओ लक यह सब
पररहास है।' स्वणाव ने कहा - 'वे अज मेरी भी सनु ती नहीं हैं। बार-
बार मेरे पैर पर मस्तक पटकती हैं। मझु से ईनका यह भाव सहा
नहीं जाता। ईन्हें पता नहीं क्यों िगता है लक सब का सब ऄपराध
43
ईन्हीं का है और कोइ बहुत बडा ऄनथव हो गया है। वे तो ऄब
देवर के सम्मखु जाने योग्य ही ऄपने को नहीं मानती हैं।'
'सबु ि! बहुत भोिी है तम्ु हारी बलहन।' भि ने सखा को
समझाना चाहा - 'तमु ईसे समझािो।' कहीं कोइ ऄपराध नहीं
हुअ। के वि ईन मलु न महाराजकी लचन्ता थी मझु े और ऄब
देखता हाँ लक सवु चविा को भी मझु े ही सम्हािना पडेगा।'
'सच, सम्हाि िेना ईस बेचारी को।' स्वणाव ऄमयन्त दया एवं
अग्रहपवू वक बोिी - 'वह कहीं की नहीं रही। हम तो तम्ु हारी हैं।
भगवती महामाया हमारी सदा रलिका रहेंगी। लकसी का कोइ शाप
हमारा कुछ नहीं लबगाड सकता; लकन्तु भगवती कामयायनी को
क्रुद्ध कर लदया ईसने हम सबको शाप देकर। देवर या
श्रीकीलतवकुमारी ईसकी कोइ पक ु ार नहीं सनु ेंगी। ऄब के वि तमु
ईसको यहााँ िा सकते हो।'
'तमु िाना चाहती हो, ऄतः ईसे िाना तो पडेगा ही।' भि ने
अश्वासन दे लदया - 'ईसे ििी स्वीकार भी कर िेगी। के वि ऄब
ममयवधरा के काि का प्रश्न है।'
44
'जीजी!' ऄचानक लवशाखा लगर पडी स्वणाव के चरणों पर -
'आस ऄधमा पर भी कृपा करो। आतनी िमा, आतनी करुणा स्वालमनी
के ऄलतररि तम्ु हीं कर सकती हो।'
'तझु े क्या हो गया है?' स्वणाव ने झक ु कर ईठाना चाहा
लवशाखा को; लकन्तु वह पैर पकडे झकु ी रही।
'मैं तम्ु हारे ये चरण तब तक नहीं छोडंगी जब तक मझु े िमा
करके अशीवावद नहीं दे दोगी।' लवशाखा लहचलकयााँ िे रही थी।
'ऄच्छा, तझु े िमा लकया। लबना लकसी ऄपराध के िमा
लकया।' स्वणाव ने हाँसते हुए ईसके लसर पर हाथ रखा - 'अशीवावद
देती हाँ लक देवर तझु े बहुत-बहुत प्यार करें ।'
'हसं ी मत करो जीजी!' लवशाखा ऄमयन्त कातर स्वर में
बोिी - 'अशीवावद दो लक स्वालमनी ऄपनी सेवा में आसे लिये रहें।'
'तू कीलतवनलन्दनी की सदा ऄनग्रु ह-भाजना बनी रह!' स्वणाव ने
स्वस्थ स्वर में सचमचु अशीवावद दे लदया।
45
'अज कृताथव कर लदया तमु ने जीजी!' लवशाखा ने अञ्चि
करों में िेकर लिर स्वणाव के पदों पर लसर रखा और ईठकर खडी
हो गयी। मैं अश्वस्त हो गयी। ऄब स्वालमनी के समीप मेरे ऄपराध
की बात सोचना भी ऄपराध हो गया।
'चिो, एक को तो तमु ने अश्वस्त कर लदया।' भि ने पमनी की
ओर देखा।
'िेलकन ऄपनी ििी को तम्ु हीं अश्वस्त कर सकते हो।'
स्वणाव हाँसकर बोिी - 'वे आस समय देवर की भी सनु ने वािी नहीं
हैं।'
'भाभी ठीक कहती हैं दादा!' सबु ि बोिा - 'बलहन को मैं
नहीं समझा सकता; लकन्तु तेरी बात वह टाि सकती ही नहीं।'
'मझु े ही चिना पडेगा!' भि श्रीराधा के समीप कम ही जाना
चाहता है; लकन्तु अज तो लववशता है।
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र्ाप सुधार-
'अपकी ििी अपसे ऄनरु ोध करती है' भि को बहुत
ऄटपटा िगता है, बहुत ऄखरता है लक वह पहुचाँ े तो श्रीवषृ भान-ु
नलन्दनी भलू म में मस्तक रखकर, ईसे प्रणाम करती हैं और सकं ोच
से लसकुड जाती हैं। कुछ कहना ही हो तो ईनकी ओर से िलिता
को ही कहना पडता है। अज भी िलिता ही बोिी - 'अप िमा
कर दीलजये और कोइ नाम मत िीलजये। ईस ऄपरालधनी का नाम
सनु ना भी आन्हें सह्य नहीं है।'
'कनाँू भी यही कहता था।' भि गम्भीर हो गया। ऄन्तत:
कन्हाइ और श्रीराधा दो तो नहीं हैं लक आनके स्वभाव दो होंगे।
'िेलकन िमा मााँगकर ििी मझु े पराया बतावें, यह ईलचत नहीं है।
एक साधारण पररहास में िमा का प्रयोजन? मैं ऄभी शाप में
सधु ार करता ह।ाँ ििी ईसको स्वीकृलत देंगी। मैं लकसी को यहााँ
तम्ु हारे समदु ाय में भेजाँू तो मझु पर तो तमु सब प्रलतबन्ध नहीं
िगाओगी?'
'ऄब ऄमयाचार तो मत करो।' श्रीराधा ने पनु ः भलू म पर
मस्तक रखा तो िलिता ने हाथ जोडे - 'तमु पर प्रलतबन्ध िगाने
का साहस जो करे गी, ईसे भगवती योगमाया िमा करें गी?'
47
'तब तमु सब यहााँ क्यों बेठी हो?' भि ने अदेश के स्वर में
कहा - 'ईठो और ऄपने लनकुञ्ज को सश ु ोलभत करो। कन्हाइ
ऄनन्त काि तक गोचारण करता रह सकता है; लकन्तु बेचारी
बालिकाएं कब तक आस प्रकार मागव में लनवावलसता-प्राय रहेंगी।'
'अपकी ये ििी साहस नहीं कर पाती हैं अपके ऄनजु के
सम्मख ु जाने का।' िलिता ने बहुत लवनम्र बनकर लवनय की - 'वे
आस समय लकसी को भी कुछ कह दे सकते हैं। न भी कहें तो जीजी
स्वणाव और ईनकी बलहनें यहााँ न हों तो अपकी ििी लनकुञ्ज में
प्रवेश कर पावेंगी? लवशाखा के लबना क्या लनकुञ्ज शोभा
पावेगा?'
'लवशाखा को तो स्वणाव ने अशीवावद दे लदया है लक वह
ऄपनी स्वालमनी की सदा ऄनग्रु ह-भाजना बनी रहे।' भि का वाक्य
परू ा होते ही श्रीकीलतवकुमारी ऄचानक ईठीं और स्वणाव के पदों पर
मस्तक रख कर ईसके दोनों चरण ईन्होंने भजु ाओ ं मे बााँध लिये।
'देवर तमु से ऄनन्त प्यार करें ।' स्वणाव ने ईनके लसरपर भी हाथ
रखकर अशीवावद दे लदया और बिपवू वक ईठाकर रृदय से िगा
लिया।
48
'कोइ कहीं जा नहीं रही है।' भि ने िौटते-िौटते कहा - 'मेरा
अदेश तमु में कोइ नहीं टािेगा। ऄभी आसी िण यहााँ से चि दो
और ऄपने धाम पहुचाँ ो। कन्हाइ कुछ न सोचेगा, न करे गा।'
'अदेश तो ऄनपु िंघनीय है।' श्रीकीलतवकुमारी मन्द पदोंसे
चि पडीं, तब िलिता ने ही कहा - 'िेलकन कोइ कहीं नहीं
जायेगी ईस शाप के रहते? अप ईसे लनरस्त कर रहे हैं?'
'गोिोक पहुचाँ ने का लजसे ऄलधकार लकसी प्रकार लमि गया,
ईसका शाप लनरस्त कर लदया जाय तो िोककी मयावदा ही नष्ट हो
जायगी। शाप गोिोक से बाहर लदया गया, आसका तो महत्त्व नहीं
है। िेलकन भि यलद शाप को लनरस्त करता है तो बाधा डािने की
शलि भी तो लकसी में कहीं नहीं है।'
'मैं ईसमें सश
ं ोधन करता ह।ाँ ' भि ने गम्भीर स्वर में कहा -
'ििी ईसको स्वीकृलत देगी।'
'अपकी अज्ञानवु लतवनी हैं अपकी ििी।' िलिता प्रसन्न हो
गयी - 'स्वीकृलत तो ईसे तभी भगवती योगमाया दे चक ु ी जब
अपने संकपप लकया। हम तो सनु िेने को सममु सक
ु हैं।'
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'समस्त सलृ ष्ट यहााँ की प्रलतलबम्ब भतू ा ही तो है।' भि ने स्पष्ट
लकया - 'एक-एक और प्रलतलबम्ब पड जायाँगे ममयवधरा पर शाप
को साथवक करने के लिए। यहााँ से कोइ नहीं जायगी।'
श्रीराधा पनु ः स्वणाव के चरणों में पड गयी होतीं, यलद ईसने
ईनको ऄक ं में न समेट लिया होता।
'िेलकन शभ्रु ा जीजी?' िलिता ने पनु : शंका की - 'ईस
ऄमंगिा ने कह लदया था लक ये यहााँ लिर नहीं अ सके गी।'
'यहााँ से बाहर कहीं कुछ है? ऄसम्भव शाप की साथवकता
कभी हुइ है?' भि हाँस पडा - 'ऄवश्य शभ्रु ा ऄब आस रूप में तम्ु हें
यहााँ नहीं लमिेगी; लकन्तु वह साके त में वहााँ की ऄधीश्वरी ऄम्बा
की पत्रु वधू बनकर रहे, आसमें तो कोइ बाधा नहीं है।'
'तमु यहााँ नहीं रहोगे तो तम्ु हारे ऄनजु सप्रु सन्न रह सकें गे?'
िलिता को यह शाप-सधु ार लप्रय नहीं िगा था।
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'मैं कहााँ जा रहा ह।ाँ ' भि ने हाँसकर कह लदया - 'एक रूप से
मैं साके त में ऄम्बा का स्नेह प्राप्त करता रह,ाँ आसमें तझु े क्यों इष्याव
होती है? एक रुप से मझु े ममयवधरा पर भी जाना है।'
'तम्ु हें जाना है ममयवधरा पर?' िलिता चौंकी।
'एक मलु न महाराज मझु े ये अशीवावद दे गये हैं।' भि ने कहा -
'ऄब कन्हाइ ईनकी चचाव ही सनु ने को प्रस्ततु नहीं। ऄन्ततः
ईनको ऄनन्तकाि तक पाषाण ही तो नहीं रहने लदया जा सकता।
यहााँ ििी को भी एक की चचाव सनु नी स्वीकार नहीं। जो एक बार
कै से भी आनके चरणों तक पहुचाँ गयी, ईसे भटकने तो नहीं ही
लदया जा सकता। मेरी आन सहधलमवलणयों के जो प्रलतलबम्ब वहााँ
प्रकट होंगे, ईनको समेटने का कायव कौन करे गा?'
'आस बार ऄवतार िेकर तमु धरा को धन्य करोगे?' िलिता
खडी रह गयी।
'यह सनक मझु े नहीं है।' भि खि ु कर हाँस पडा। 'यह सब
करना होगा तो दाउ दादा कभी जायगा या कन्हाइ करे गा। मैं तो
के वि ऄपनों को समेटूाँगा और धमू करूाँगा। समस्याएाँ ईमपन्न
करता रहगाँ ा। ईन्हें कन्हाइ को सि
ु झाते रहना पडेगा।'
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'तमु जाओगे तो तम्ु हारे ऄनजु यहााँ नहीं रहेंगे।' िलिता
भाव-लवह्ऱि बोि पडी - 'तब तम्ु हारी ििी यहााँ रहेंगी? हम सब
यहााँ रहकर क्या लसर धनु ेंगी?'
'कह तो लदया लक कोइ कहीं नहीं जा रहा है।' भि ने लझडकी
दी - 'िडलकयों को तो रोने-मचिने का कोइ बहाना चालहये।
ऄनन्त काि से प्रलतलबम्ब ही सलृ ष्ट की प्रतीलत करा रहे हैं। एक
और प्रलतलबम्ब वहााँ प्रकट हो जायगा और कन्हाइ को तो वहााँ
जाना नहीं है। कभी कदालचत ईससे न रहा जाय तो ऄपप िण को
प्रकट हो िेगा; क्योंलक ईसका प्रलतलबम्ब भी सलच्चदानन्द ही
होता है।'
'तमु सब ऄब शीघ्रता करो! ऄपने सदन पहुचाँ ो।' भि ने
चौंककर कहा - 'िगता है भगवान् अशतु ोष पधार रहे हैं। ईनके
वषृ भ के कण्ठ के घण्टे का प्रणवनाद गजंू ने िगा है।'
'तम्ु हारे ऄनजु भी अ ही रहे होंगे।' िलिता ने प्रणाम करने
के लनलमि ऄञ्जलि बााँधकर मस्तक झक ु ाया।
52
आन भाव िोकों में अना-जाना तो के वि शब्द व्यवहार है।
सब लदव्यिोक समस्त लदक् में सववव्यापक हैं। अलवभावव-
लतरोभाव ही होता है वहााँ। वषृ भारूढ़ भगवान् धजू वलट को प्रकट ही
होना था।
53
पुनः र्ाप-
'ऄच्छा, तमु मेरे पेट का पररहास करते हो मनष्ु यों के समान!'
भगवान लशव के साथ नन्दीश्वर के ऄलतररि के वि एक गण
अया था। कोइ कूष्माण्ड था। नन्दीश्वर ने गणों को लनषेध कर
लदया था। गोिोक में भिा भतू -प्रेत प्रवेश कर सकते हैं; लकन्तु यह
एक पीछे िगा िढ़ु कता चिा अया था। बहुत ईमकण्ठा थी आसे
गोिोक देखने की। लशविोक भी ऄभी शीघ्र ही लमिा था आसे।
महाभैरव का ही सेवक था। नन्दीश्वर के लनषेध को महमवपणू व नहीं
माना आसने।
भगवान् लवश्वनाथ का महावषृ भ गोिोक के सम्मख ु रुका तो
ईमसाह में यह कूष्माण्ड पीछे से अगे िढ़ु क अया। कोइ बहुत
बडे गज के बराबर कद्दू िढ़ु कता चिे तो अपको कै सा िगेगा।
बाबा के गणों में भतू , प्रेत, लपशाचों के ही वगव में कूष्माण्ड होते हैं।
आनकी अकृलत कद्दू के समान। लसर, हाथ, पैर होते तो हैं; लकन्तु
ऐसे लक ध्यान से देखने पर ही दीखें। शरीर में के वि तोंद और ये
गोि-मटोि िढ़ु कते ही चिते हैं। ऄवश्य ये मानलसक सलृ ष्ट के हैं।
भतू नी, चडु ेि (प्रेतनी), लपशालचनी, यलिणी तो होती हैं; लकन्तु
कूष्माण्ड वणव में नारी नहीं। ये अजीवन ब्रह्मचारी बहुत क्रोधी
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होते हैं। या तो लकसी का ऄलनष्ट करें गे ही नहीं, ऄथवा ईसका
समिू वश ं नाश कर देंगे।
कूष्माण्ड स्वभाव से कुतहू िी होते हैं। कहीं ऄचानक प्रकट
होकर िोगों को ऄकारण डरा देना ओर िढ़ु कते चिे जाना आन्हें
लप्रय है।
यह कूष्माण्ड पीछे से िढ़ु कता महावषृ भ के अगे बढ़ता ही
जा रहा था। नन्दी आसे वाररत करते, आससे पवू व ही भि दौडता
अया। यह बहुत भारी िढ़ु कता कद्दू आसे लवलचत्र िगा। ऄपने
दालहने हाथ की चारों ऄाँगलु ियााँ आसके गोि शरीर में चभु ाकर हसं
पडा।
'तमु ने मेरे पेट में चार ऄगं लु ियााँ चभु ायी हैं, ऄतः चार यगु -
परू े मन्वन्तर पयवन्त ममयवधरा पर रहो!' कूष्माण्ड ने शाप लदया।
'चि लगर नीचे!' नन्दीश्वर के नेत्र ऄरुण हो गये। ईन्होंने हाथ
का सक
ं े त लकया और कूष्माण्ड ऐसे ऄदृश्य हो गया, जैसे वहााँ
कभी था ही नहीं।
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'अप मझु े िमा करें ।' नन्दीश्वर भि के सम्मख
ु हाथ जोडकर
कुछ कहते; लकन्तु कन्हाइ के चपि सखा आसका कहााँ लकसी को
ऄवसर देते हैं। भि तब तक तो भगवान् चन्िमौलि के श्रीचरणों
तक पहुचाँ चक
ु ा था।
'तमु अ गये!' भगवान गंगाधर ऄपने महावषृ भ से िगभग
कूद पडे थे। चरणों में प्रणत होते भि को चारों भजु ाओ ं से
समेटकर ईन्होंने ऄक
ं में ही ईठा लिया।
'बाबा!' भि ने ईन नीिकण्ठ के श्रीमख ु की ओर देखते
के वि आतना कहा और ईनके कण्ठ में भजु ाएाँ डाि दीं।
जो ममृ यञ्ु जय के ऄक
ं में पहुचाँ गया, ईसको ईनके अभरण
बने कािभजु गं का भिा भय क्या। ऄब तो बाबा के कण्ठ, भजु ा
अलद के अभषू ण बने सापं ईसे के वि स्नेह से सहिा सकते हैं।
यह गोिोक-लबहारी के सखा का स्पशव ऐसा ईपेिणीय तो नहीं
लक कोइ आस सौभाग्य का ऄवसर चक ू जाय। ऄतः मस्तक की
जटाओ ं में लिपटा नाग भी नीचे सरककर लसर बढ़ाकर भि की
ऄिक सहिाने िगा है।
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'अप यहीं रुक गये!' कन्हाइ दौडा अया। सहह्ल-सहह्ल
बािक दौडे अये। भगवान् लवश्वनाथ के श्रीचरणों में ऄिौलकक
पष्ु पों की ऄञ्जलि ऄलपवत करके सबने साष्टागं प्रलणपात लकया।
ईठकर श्यामसन्ु दर ने प्राथवना की - 'पधारें और हमें ऄचाव का
सौभाग्य प्रदान करें ।'
'तमु मझु े िमा कर दो!' ऄब कहीं वे नीिकण्ठ प्रभु बोि
सके । आनका रोम-रोम ईलमथत, नयनों से ऄश्रधु ारा चिती और
सम्पणू व गात्र कम्पायमान। भि को ऄकं में ही लिये ऄब तक
स्तब्ध खडे रह गये थे। ऄब भी स्वर गद्गद था - 'तम्ु हारे सखा को
एक ऄज्ञ गण ने शाप दे लदया।'
'मझु े तो आष्याव हो रही है आसके सौभाग्य पर!' कन्हाइ भी भि
को ही देख रहा था - 'यह हम सबका यथू नायक तो था ही, ऄब
अपके ऄक ं का ऄलधकारी हो गया। ऄम्बा अद्या आसे पलहिे ही
ऄपना पत्रु मानती हैं और साके त का भी यह यवु राज बन गया है।'
'बाबा! यहााँ कोइ लकसी को शाप तो दे ही नहीं सकता।' भि
ऄब धीरे से ऄकं से ईतरा और भगवान् अशतु ोष का दलिण कर
पकडकर ईनके श्रीऄगं से सटकर खडा हो गया था। जैसे बाबा पर
कन्हाइ से ऄलधक स्वमव है ईसका - 'यहााँ कोइ शाप देने का मन
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भी करता है तो ऄम्बा अद्या ईसकी वाणी को वरदान बना देती
हैं।'
'तमु ईलचत कहते हो!' भगवान् भोिेनाथ ऄमयन्त गम्भीर हो
गये। ईन्होंने दलिण भजु ा ईठाकर घोषणा की - 'मैं मयावदा बनाता
हाँ लक आन लदव्यिोकों में कोइ लकसी को शाप नहीं दे सके गा और
देगा तो ईसे स्वयं भोगना होगा।'
'शाप देने वािा तो ऄब भी भाग्यहीन ही बना।' भि बहुत
नम्रता से बोिा - 'बाबा! ईस ऄभागे गण को.......।'
'वमस! मेरा एक ऄनरु ोध मान िो।' भि को रोककर बीच में
ही भगवान् डमरूपालण बोिे - 'ईसकी चचाव भी मझु े ऄमयन्त
ऄलप्रय है। ईसका स्मरण न तमु करो और न मझु े कराओ।'
'अप भी कन्हाइ जैसे ही हैं बाबा!' भि भररत कण्ठ बोिा -
'अप अज्ञा दे सकते हैं। ऄनरु ोध तो मैं करता हाँ लक ऄनन्त
करुणा-वरुणािय प्रभु मझु े तो लकसी पर कृपा करने को स्वतन्त्र
रहने दें और यलद मैं लकसी को आन चारु चरणोंमें भेजना चाहाँ तो
..........।'
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'वह सदा मेरा लप्रय रहेगा।' भगवान लवश्वनाथ ने भि को लिर
ऄकं में ईठा लिया - 'तमु लजसे मेरे यहााँ, गोिोक या साके त भेजने
की आच्छा भी करोगे, ईसके स्वागत को हम तीनों सममु सक ु बने
रहेंगे। मेरे यहााँ ननद् ीश्वर भी ईसका शासन नहीं कर सकें गे।'
'अपकी अज्ञा मेरे लिए तो सदा ऄनपु िंघनीय है।' कन्हाइ
ने ऄञ्जलि बााँध िी; क्योंलक भगवान वषृ भध्वज की दृलष्ट कहती
थी लक वे ऄपने अशीवावद का व्रजराजकुमार से ऄनमु ोदन चाहते
हैं।
'तमु आन सब शापों को ऄस्वीकार कर देने में समथव हो,
स्वतन्त्र हो।' ऄब ईन महेश्वर ने भि की ठुड्ढी में दलिण कर
स्नेहपवू वक िगाकर ईसका मख ु तलनक उपर ईठाया और ईसका
लसर सघंू लिया।
'मैं अपका स्नेह भाजन, अपका - अप ऄमतृ स्वरूप का
पत्रु ' भि ने सहास्य कहा - 'कोइ शाप मेरा क्या लबगाडेगा।
महाकाि के लप्रय पत्रु को प्रपीलडत करना तो दरू , ईसे लखझाने का
साहस लकसी में अ कै से सकता है। ये शाप तो मेरा - मेरे एक
प्रलतलबम्ब का लवनोद बनेंगे।'
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'तमु ऄपने आन नीिसन्ु दर सखा से ऄलभन्न हो, ऄतः आनके
समान ही तम्ु हारी करुणा भी ऄसीम ऄतक्यव है।' भगवान् धजू वलट
का स्वर अिव हो ईठा - 'ऄब तम्ु हें ऄपना ही ऄलहत करने वािों
के ईद्धार की लचन्ता हो ईठी है। आसे मैं भी कै से वाररत कर सकता
ह।ाँ तम्ु हारी कृपा के ऄलतररि तो ऄब ईनका कहीं कोइ अश्रय
रहा नहीं।'
'िेलकन बाबा! िोकािय में भी तमु कन्हाइ के समान ही मेरे
ऄपने रहोगे। मझु े ऄपना कराविम्बन देते रहोगे।' ऄब भि ने
ऄक
ं से ईतरकर ऄञ्जलियााँ बााँधी - 'मैं जब पक ु ारूाँगा, तमु
समालध में नहीं बैठे रहोगे।'
'एवमस्त!ु ' चन्िमौलि प्रभु से दसू रा कुछ सनु ने की तो अशा
कभी कोइ करता नहीं। ईनका स्वभाव है लक ईनसे कुछ कहा जाय
तो ईनके श्रीमख ु से स्वत: 'एवमस्त'ु लनकि पडता है। िेलकन
ईन्होंने भि का पनु : हाथ पकडा - 'तम्ु हें यह कहने की
अवश्यकता थी? लशव तमोगणु का ऄलधष्ठाता सही; लकन्तु ऐसी
जड समालध तो कभी नहीं िगाता जो तम्ु हारी पक ु ार से भी भग्न न
होती हो।'
60
'बाबा! अप तो यहीं खडे रह गये।' कन्हाइ ने ईिाहना लदया
- 'हम सभी ऄचाव करने को ईमसकु हैं।'
'ईलचत तो यह था लक मझु े तम्ु हारे आस लदव्यधाम में प्रवेश का
ऄनलधकारी मान लिया जाता।' भगवान कृलिवास का कण्ठ लिर
भर अया - 'तम्ु हारे जनों का ऄपराध करके यह प्रियंकर भी
सकुशि नहीं रहता - यह मयावदा स्थालपत होनी चालहये थी; लकन्तु
तमु और तम्ु हारे सखा कृपा के ही घनीभाव हैं। तम्ु हारी आच्छा की
ईपेिा नहीं की जा सकती।'
'सर्वहर र्िंकर गौरीर्िं,
वन्दे गिंगाधरमीर्म।्
रूद्रिं पर्ुपसतमीर्ानिं,
कलये कार्ीपुररनाथम॥् '
भगवान वषृ भध्वज तो अगे पैदि ही जाना चाहते थे; लकन्तु
श्याम ने ईन्हें वषृ भारूढ़ होने को बाध्य करा लदया। नन्दीश्वर जब
द्रारपर लठठकने िगे, कन्हाइ ने ईनको भी अगे बढ़ने को बाध्य
लकया - 'अप ऄपनी ऄचाव से हमें क्यों वंलचत करना चाहते हैं?
जानते तो हैं लक महेश्वर के सेवक मझु े ऄमयन्त लप्रय हैं। मैं ईनका
भी ऄचवक ही ह।ाँ '
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'अप और ये मेरे प्रभु दो नहीं हैं, दया करके मेरी यह बलु द्ध
सदा बनी रहने दीलजये।' नन्दीश्वर ने दोनों हाथ जोडे - 'ऄन्यथा
अपकी माया भगवती की मलहमा का पार नहीं है। अप ऄमयन्त
िीिा-लनपणु और अपकी माया ऄगम्य। ऄत: मझु पर ऄनग्रु ह
करें । प्रणतपाि! मैं अपकी शरण ह,ाँ पालह!'
'एवमस्त!ु ' कन्हाइ ने भगवान् शंकर के समान ही गम्भीरता
से कहा तो सब सखा तािी बजाकर हाँस पडे।
'मैं तमु से बडा हो गया!' भि ने धीरे से कन्हाइ का हाथ
दबाया - 'ऄब तो मानेगा?'
'दादा! तू बडा तो सदा से है।' भगवान् शशाकं -शेखर की
सलन्नलध में श्यामसन्ु दर आस समय गम्भीर बन गया है - 'मैया
कहती है लक तू मझु से दस महीने बडा है और साके त के यवु राज
एवं साम्बलशव के माँहु बोिे कुमार को छोटा कहने की धष्ठृ ता
भिा मैं कै से करूाँगा।'
'ऄब तमु ऄपने िोक में मेरे गण को भी िे अये।' भगवान्
लशव को नन्दीश्वर को भी साथ िे अना ऄच्छा नहीं िगा था।
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'हम सब भी तो अपके ही गण हैं।' कन्हाइ ने ऄञ्जलि
बााँधी - 'ऄपनों में से ही एक ऄग्रणी का समकार करने का ऄवसर
तो अज लमिेगा मझु े।'
नन्दीश्वर भाव-लवह्ऱि हो रहे थे और भगवान् लशव भी मौन
रह गये। ईन्होंने देखा लक वे कुछ कहेंगे तो ये मयरू -मक
ु ु टी ऐसी ही
ऄटपटी बातें करते रहेंगे।
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र्ापों का सववेचन-
'ऄन्ततः ये शाप होते ही क्यों हैं?' भि का प्रश्न ईलचत नहीं
है, ऐसा कोइ कह नहीं सकता। गोिोक, साके तालद में सववथा
लनमविु कपमष, ऄहक ं ारहीन प्राणी पहुचाँ ता है। प्राकृत ऄन्त:करण
भी ईसमें नहीं होता। ईसका शरीर, मन, बलु द्ध सबका सब तो
प्राकृत जगत में छूट चक ु ा। वह लदव्य देह प्राप्त करके ही अने में
समथव हुअ। ऄब ईसमें ऄपना तो कुछ रहा नहीं। तब ईसमें पवू -व
संस्कार, पवू ावभ्यास का प्रसंग कै सा? तब ईसमें ऄलभमान, रोष
क्यों अता है? वह क्यों शाप देता है?
भि ने नहीं पछू ा; लकन्तु प्रश्न तो है ही लक माया-मण्डि से
सववथा परे आन लदव्य भगवद् धामों में पहुचाँ कर लकसी का भी पतन
क्यों? यहााँ से भी यलद कोइ जन्म-मरण के चक्र में िौटता है तो
भलि का, आन लदव्यधामों का ही क्या प्रभाव? ये भी ब्रह्मिोक के
सम्नान पनु रावती ही हुए। सब न सही, कोइ तो यहााँ से भी िौटता
ही है। ब्रह्मिोक से भी सब तो नहीं िौटते। बहुत-से लनमवि ु -
कपमष वहााँ से भी ब्रह्मा के साथ लनवावण पद प्राप्त ही कर िेते हैं।
भगवान् नीिकण्ठ की ऄचाव हो चकु ी थी। गोपबािक
श्रीकृष्णचन्ि के साथ ईन अशतु ोष के समीप अज सहज
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चापपय मयागकर शान्त बैठे थे। भि को तो ईन लत्रिोचन ने ऄक
ं
में ही बैठा लिया था।
भि ने ही प्रश्न लकया। ईसे यही समझ में नहीं अता लक
भगवती योगमाया आन धामों में शाप देने का सयु ोग ही लकसी को
क्यों देती हैं। शाप ऄसम्भव बना लदया जाना चालहये यहााँ।
'तम्ु हारे ये ऄनजु बहुत चपि हैं।' कन्हाइ की ओर भगवान्
शंकर ने संकेत लकया तो सब बािक आसे देखकर मस्ु कराये। श्याम
ने लसर झक ु ा लिया। ऄब आन महेश्वर के सम्मखु प्रलतवाद तो लकया
नहीं जा सकता। सदालशव ने कहा - 'आनसे शान्त तो बैठा नहीं
जाता। यह तो मेरे सक ं ोच से आस समय ऐसे बेठे हैं। आन्हें िीिा
करनी होती है तो भगवती योगमाया ऄशक्यको भी शक्य बना
देती हैं।'
भगवती योगमाया ऄघटन घटना पटीयसी हैं यह सब जानते
हैं। कन्हाइ बहुत नटखट है, उधमी है, यह भी सबको पता है?
'यह आसी का ईमपात होता है?' भि ने श्याम की ओर देखा
और हाँस पडा। आस सक
ु ु मार को ईिाहना नहीं लदया जा सकता।
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'तमु जानते हो लक माया के िेत्र में जो ऄनन्त-ऄनन्त
ब्रह्माण्ड हैं, ईनमें तम्ु हारे िोक के ही प्रलतलबम्ब पडते हैं। माया
और माया की लवकृलत ऄहक ं ारालद के कारण ईन प्रलतलबम्बों में
ऄपना पथृ क ऄलस्तमव-बोध, कतवमृ वालभमान अता है। तब
कमवचक्र चि पडता है।' भगवान् भतू नाथ ने समझाया - 'लकन्तु
कमवचक्र तो है ही दःु खलनिय। ईसमें पडा प्राणी आन अनन्दघन से
लवमख ु होकर ऄलतशय कातर हो जाता है। तब आन िीिामय को
ईस पर दया अती है। ईसके ईद्धार के लिए ये कोइ-न-कोइ
बहाना बनाते हैं।'
'ओह! तो ऄपना यह कन्हाइ नटखटपन भी जीवों पर
ऄलतशय दया करके ही लदखिाता है।' भि ने बडे स्नेह, ऄपनमव
से ऄनजु की ओर देखा। ईसे भगवान् लशव ने दो भजु ाओ ं से
पकड न रखा होता तो कूदकर ऄपने कनाँू को रृदय से िगा िेता।
'तम्ु हारा यह िोक तो अनन्द का घनीभाव है।' ज्ञालनयों के
परमगरुु प्रभु समझा रहे थे - 'यहााँ ज्ञान को भगवती योगमाया
प्रसप्तु रखती हैं। ऐसा न हो तो िीिा ही नहीं चिे। आन सगणु -
साकार िोकों में और आनसे परे भी एक ऄखण्ड, ऄलद्रतीय सिा
है, वह ज्ञान है। लनलववकार, लनलववशेष ज्ञान। ईस ब्रह्म के ही ये
घनीभाव श्यामसन्ु दर और आनसे ऄलभन्न तमु सब।'
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सबको ही यह स्तवन जैसा िगा। भि ने कह लदया - 'बाबा,
अप तो ऄपनी बात हम सबका और कन्हाइ का नाम िेकर करने
िगे।'
'तम्ु हारे िोक से बाहर, माया की एक पाद लवभलू त में जो
ऄनन्त ब्रह्माण्ड हैं, वे प्रलतलबम्ब हैं आन लदव्य िोकों के । स्वप्न के
समान वे िोक।' भगवान् भवानीनाथ की बात अगे बढ़ी - 'ईनमें
तम्ु हारा अनन्द समवगणु बन जाता है। ज्ञान वहााँ रजोगणु होकर
लक्रयाशीि रहता है और सिा वहााँ तमोगणु होकर सघन हो जाती
है, स्थिू ता प्राप्त कर िेती है।'
'अप तो शाप को समझा रहे थे।' भि को यह गम्भीर चचाव
बहुत अकषवक नहीं िगी।
'वही समझा रहा ह।ाँ ' भगवान लशव ने तत्त्वलववेचन सलं िप्त
लकया - 'तम्ु हें या तम्ु हारे प्रलतलबम्ब को जब ममयवधरा पर प्रकट
होना है तो वहााँ लत्रगणु ों को स्वीकार करना ही है। ऄत: तम्ु हें तीन
शाप तीन प्रकार के व्यलियों से तीन ढंग से प्राप्त हुए।'
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'ऄच्छा!' भि ही नहीं, सब ईमसक
ु हो ईठे । के वि कन्हाइ
लसर झक
ु ाये रहा।
'वह मलु न था। अने से पवू व ममयविोक में लवशद्ध
ु समव से एक
हो चक ु ा था। ईसने तम्ु हें ऐलन्ियक जीवन प्राप्त करने की कहा।'
भगवान लशव ने स्पष्ट कर लदया - 'सलृ ष्ट में तो अनन्द की
ईपिलब्ध ऐलन्ियक भोगों के माध्यम से ही सम्भव है। तमु स्वयं
ऐलन्ियक जीवन न प्राप्त करो तो िोकािय में जीवों को ऄपने आस
गोलवन्द को प्रमयि करने का पथ, आसकी िीिाएाँ कै से समझा
सकते हो?'
'िेलकन वह मलु न तो पाषाण बन गये!' भि की शक ं ा ठीक है।
समवगणु ी मलु न को ऄमयन्त तामस योलन क्यों लमिनी चालहये?
'कमविोक में प्रालणयों को अराधना का अधार देने के लिए
ऄचाव-लवग्रह अवश्यक होते हैं।' भगवान चन्िचडू को अगे
व्याख्या नहीं करनी पडी। ऄचाव-लवग्रह सामानय् धात-ु पाषाण नहीं
बन सकता। कोइ लदव्य, लवशद्ध ु समव न बने तो स्वयं श्याम को
वह रूप िेने को लववश होना पडता है। मलु न पाषाण होकर भी
कन्हाइ से वहााँ भी ऄलभन्न हैं, यह सन्तोष हुअ भि को।
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'दसू रा शाप सीधे तम्ु हें नहीं है।' सववज्ञ शशाक
ं शेखर से लछपा
क्या रह सकता था - 'िेलकन तम्ु हारी ऄधावगलनयों ाँ को है तो तम्ु हें
ही है। वह है लक्रयाशीिता का - रजोगणु को स्वीकार करने का
शाप। भोग-प्रवलृ ि रजोगणु की। तमु परम स्वतन्त्र, तमु पर
प्रलतबन्ध तो कोइ कहीं िगा नहीं सकता। तमु में यह प्रवलृ ि न हो
तो तमु वहााँ जाकर भी कुछ करोगे ही नहीं। तमु से कुछ कराना हो
तो तमु में प्रवलृ ि तो देनी ही चालहये थी।'
'मैं खबू धमू करूाँगा।' भि ने तािी बजायी - 'ऄपनी मयावदाएाँ
अप सम्हािना।'
'तमु जानते हो लक मेरे गण कोइ मयावदा नहीं मानते।' भगवान
लशव ने सलस्मत कहा - 'तम्ु हारे आन ऄनजु को भी मयावदाओ ं की
बहुत पडी नहीं होती। यहााँ से लबम्ब जाय या प्रलतलबम्ब पडे, कोइ
कमव-परतन्त्र तो जा नहीं रहा। ऄतः शाह्ल का बन्धन ही कहााँ
रहता है। मैं और तम्ु हारे ये ऄनजु भी के वि आतना जानते हैं लक
जो तम्ु हारा, तम्ु हारे ऄनक
ु ू ि, तमु लजस पर प्रसन्न, वह हमारा और
हमारा प्रीलतभाजन। जो तम्ु हारे प्रलतकूि - ईसका कमव, धमव,
प्रारब्ध हम दोनों को देखना नहीं अवेगा। ईसके भाग्य में के वि
दःु ख और पतन।'
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'बाबा, अप भी आतने पिपाती बनोगे?' भि को यह
व्यवस्था बहुत रुची नहीं।
'हााँ, बनेंगे।' कन्हाइ ने पलहिी बार लसर ईठाया - 'बाबा तो
सदा से ही ऐसे हैं। ऄपनों के - के वि ऄपनों के ।'
बाबा की ओर से कन्हाइ ने कुछ कह लदया तो बात दगु नु ी
पक्की हो गयी। ऄब बाबा तो ईसे ऄपना लवधान मान िेंगे।
'पर बेचारी सवु चविा......।' भि का स्वर बहुत करुण हो ईठा।
'ईसे लवशद्ध
ु वाणी तो कभी नहीं लमिेगी। भगवती योगमाया
ने लवधान ही यह कर लदया; लकन्तु ऄन्त में वह सगं ीत के स्थान
पर नमृ य प्राप्त कर िेगी ऄपनी लनकुञ्जेश्वरी की सेवा के लिए।'
अशतु ोष भी ईस पर सदय ही थे - 'श्वान-योलन ईसे पररशद्ध ु कर
देगी। ईसे तम्ु हारी सहधलमवलणयों से एक की सेवा लमि जायगी।
तम्ु हारी चरण-रज पाकर वह मनष्ु य योलन प्राप्त कर िेगी।'
'िेलकन बाबा! मैं भालभयों की ऄपरालधनी को ऄपना नहीं
सकता।' कन्हाइ ने कुछ कातर भाव से ही महेश्वर की ओर देखा -
'अप ऐसा कोइ अशीवावद मत दो। ईस पर कृपा तो वह भाभी
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कर सकती है, लजसे ईसने सबसे ऄलधक लतरस्कृत लकया और
यलद भि ईसे ऄपना सके गा तो लनकुञ्जेश्वरी को ऄस्वीकार करने
का ऄवसर नहीं रहेगा। मैं स्वीकार करूाँ तो स्वयं मैं ही रोष-भाजन
बन जाउाँगा।'
'वह कूष्माण्ड?' भि ने ऄन्त में पछ
ू ा।
'मैंने तमु से ऄनरु ोध लकया है लक ईसकी चचाव मत करो।'
भगवान लशव का स्वर लखन्न हो गया - 'वह तो प्रेत था - तमोगणु ी
प्रेत। ईसका शाप तामलसक। ईसने काि की सीमा लनधावररत की
तम्ु हारे लिए। ऄतः वह ऄनन्तकाि तक प्रेत ही रहेगा। ऄब भी
वह कूष्माण्ड ही बना िढ़ु कता लिरता होगा।'
'कन!ंू तू ईसके रूप में कभी कद्दू बनेगा?' भि को हाँसते
देखकर कन्हाइ बोि पडा - 'बनाँगू ा, क्या हुअ आसमें?'
जो कछुअ, मछिी, वाराह भी बनता है, वह कूष्माण्ड भी
बन जायगा और तब वह कूष्माण्ड भिे ऄनन्तकाि तक ईसी
योलन में रहे, आन नीिकण्ठ प्रभु का सामीप्य तो ईसे प्राप्त हो ही
जायगा।
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तुम्हारी जय हो-
'ऄम्बा अद्या ऄमयन्त क्रुद्ध हैं। सरु ही नहीं, सलृ ष्टकताव तक
सत्रं स्त हैं लक वे शान्त न हुइ ंतो ईनका रोष ही प्रिय कर डािेगा।'
कन्हाइ का स्वर भी आस समय भरा-भरा है। भि के कन्धे पर कर
रखे यह ऐसा सलचन्त हो रहा है लक कोइ कपपना भी न कर सके ।
अनन्दकन्द कन्हाइ में लचन्ता - सोचने से भी परे की बात है।
'भगवान चन्िमौलि भी आस समय ईन लत्रपरु ा के सम्मख ु जाने
को प्रस्ततु नहीं हैं।' श्यामसन्ु दर यह नहीं कह पा रहा है सखा से
लक तू जा। कहता है - 'तू स्वीकार करे तो मैं जाता ह।ाँ वे हुकं ार
करके देखगें ी ही तो। लिर तो स्वयं पश्चाताप होगा ईन्हें।'
लत्रपरु सन्ु दरी हुक
ं ार करके देखगें ी - आस बात को कन्हाइ ही
आतने साधारण ढगं से कह सकता है। ईन महाशलि का सहुक ं ार
दृलष्टपात सहन करने का साहस तो सािात् प्रिंयकर प्रभु भी
ऄपने में नहीं पा रहे हैं। काि भी रुइ के नन्हें टुकडे के समान भस्
से भस्म हो जाय ईस हुक ं ार से और कन्हाइ जायगा ईसे झेिने?
'तू क्यों जायगा?' भि को ऄपने आस भोिे ऄनजु की लचन्ता
का कारण लमि गया है - 'डरता है लक मझु े भी वे हुक
ं ार करके
72
देखगें ी? ऐसा शक्य नहीं है। वे ऄम्बा हैं, ऄनन्त करुणामयी
ऄम्बा। मैं ईनके समीप जा रहा ह।ाँ देखता हाँ लक मझु े देखकर ईनमें
वामसपय कै से नहीं ईमडता।'
'तू ही ईन्हें शान्त कर सकता है।' कन्हाइ ने ऄक
ं माि दी -
'िेलकन ऐसे मत जा। लशशु बनकर जा तो वामसपय सहज
ईमडेगा।'
गोिोक भाविोक है। भि के वह्लाभरण ऄदृश्य हो गये। एक
ढाइ वषव का लशशु बन गया वह। ताम्र गौर, कमि िोचन,
लकसिय सक ु ु मार लदगम्बर लशशु कुलटि ऄिकें िहराता, कर के
कंकण, कलट की रमनमेखिा और चरणों के नपू रु ों की रुन-झनु
करता नन्हें पदों से दौड चिा। ईसे कहााँ लकसी देश में जाना था।
सक्ष्ू मता से स्थि ू ता में ऄवतरण कोइ देशगत दरू ी है लक श्रम
पडता।
ऄनन्त-ऄनन्त ब्रह्माण्ड और ईनके समयिोक, जनिोक,
महिोक, तपोिोक, स्वगव - िेलकन भि के वे िीिामय ऄनजु
ईसे जहााँ भेजना चाहते थे, वहीं तो ईसे प्रकट होना था।स्वगंगा
का वह ऄसीम लवस्तार िण-िण कलम्पत हो रहा था। भतू , प्रेत,
लपशाच, कूष्माण्ड, रािस, यि, बैताि, भतू नी, प्रेतनी,
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लपशालचनी, योलगनी, यलिणी, रािलसयााँ, चडु ेंिें - िि-िि
भयक ं र दारुण वणव और ये तो लकसी गणना में ही नहीं। चामण्ु डा,
शीतिा, कािी, ईग्रतारा, कपालिनी, लछन्नमस्ता, सब भैरव
ऄपने वाहनों पर ऄह्ल-शह्ल ईठाये हुक
ं ार करते ऄन्धाधन्ु ध दौड
रहे थे। चक्कर काटते भटक रहे थे। जैसे सब ईन्मादग्रस्त हो गये
हों।
शम्ु भ-लनशम्ु भ का तो शव भी चामण्ु डा ने चबा लिया था।
ईस रणांगण में के वि भलू म रिाि थी और ऄह्ल-शह्लों तथा रथों
के खण्ड लबखरे पडे थे। ऄसरु ों में लकसी का मस्तक नहीं बचा था।
सब मण्ु ड या तो भतू -प्रेतों, कालिकाओ ं ने कण्ठाभरण बना लिये
थे या कन्दकु बनकर खण्ड-खण्ड हो चक ु े थे।
एक भी शव-धड परू ा नहीं था। सब लचथडे हो रहे थे। ईनकी
अाँतें प्रेत-लपशाचों ने गिे में िटका रखी थी। गज, ऄश्व, खच्चर,
गदवभ अलद ऄसरु -वाहनों के शव भी िाड-चीथ डािे गये थे।
ऄमयन्त वीभमस दृश्य और भयानक हुक ं ारें , घोर चीमकारें ।
प्रेत-लपशाचालद लचपिाते क्रोधोन्मि दौड रहे थे। ईन्हें
िाडने-चीथने, तोडने-िोडने को भी कुछ लमि नहीं रहा था।
सबसे उपर, सबसे भयानक शब्द था महालसंह की दहाड। वह
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अद्या का वाहन कराि दष्ं रा के शरी लनरन्तर दहाड रहा था।
ईसकी दहाड से लदशाएं जैसे िटी जा रही थीं।
महालसंह पर अरूढ़ा षोडशभजु ा सायधु ा अद्या महाशलि
लत्रपरु सन्ु दरी ऄलतशय क्रुद्ध थी। ईनके खड्ग, लत्रशि ू से रि झर
रहा था। ईनके कर के खप्पर से सधमू ज्वािा ईठ रही थी और वे
हुक
ं ार कर रही थीं। िण-िण पर हुक ं ार कर रही थीं। ईनकी हुकं ार
से लदशाएाँ कााँप रही थीं। जैसे ब्रह्माण्ड िट जायगा। लत्रिोकी भस्म
हो जायगी। ईनकी हुक ं ृ लत से भतू -प्रेतालद, चामण्ु डा-कालिका सब
ईन्मि भाग रही थीं।
ईग्र भकृ ु लट, कठोर नेत्र - ईन महाशलि की ओर देखने का
साहस सरु ों में भी नहीं था। बहुत दरू भाग गये थे वे और सब
के वि 'त्रालह-त्रालह' पक
ु ार रहे थे; लकन्तु लकसी को कहीं कोइ त्राण
देने वािा दीख नहीं रहा था।
'ऄम्ब!' ऄचानक एक लशशु के कण्ठ की ऄलतशय मदु ि
ु ,
िीण ध्वलन कहीं से अयी और भिकािी ने चौंककर आधर-ईधर
देखा। ईनके चरण लस्थर हो गये।
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'ऄम्ब!' ढाइ वषव का ऄमयन्त सन्ु दर, कुसमु सक ु ु मार,
गौरवणव, लदगम्बर लशशु दौडता चिा अ रहा था। ऐसे चिा अ
रहा था जैसे भतू -प्रेत-लपशाच ईसे दीखते ही न हों। जैसे के शरी की
दहाड और अद्या महाशलि की लत्रभवु नभेदी हुक ं ार ईसके श्रवणों
तक पहुचाँ ही न रही हों।
'ऄम्ब!' भिकािी की दृलष्ट ईस लशशु पर पडी और ईनके
दलिण कर का ऄलस्थदण्ड उपर ईठ कर अकाश में लहिने िगा।
वह दण्ड लहिा और जैसे भतू -प्रेत-लपशाचालद, डालकनी-शालकनी
सब, कालिका-चामण्ु डा-ईग्रतारा प्रभलृ त सबके पद एक साथ
लस्थर हो गये। सब जहााँ-के -तहााँ खडे रह गये। सबका चीमकार
करना बन्द हो गया। सबके ऄह्ल-शह्ल ईठाये कर नीचे अ गये।
'ऄम्ब!' लशशु पर दृलष्ट गयी और सलृ ष्ट का वह सीमातीत ईग्र
समदु ाय ऐसा शान्त, सौम्य बन गया जैसे ईनमें ईग्रता कभी थी ही
नहीं। ऄवश्य सब लसमटने िगे।
'ऄम्ब!' लशशु तो दौडता अया और दौडता सबके मध्य में
चिा जा रहा है। वह नीचे देखता ही नहीं लक कहााँ ऄह्ल-शह्लों के
खण्ड पडे हैं और कहााँ कोइ लचथडा बना गज या ऄश्व है।
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भिकािी के कर का ऄलस्थदण्ड लहि रहा है। वे जानती हैं
लक लशशु के सकु ु मार पाद-ति में कोइ नन्हीं कंकडी भी चभु ी या
कोइ शव-खण्ड ईससे ठकराया तो अद्या ईन्हें िमा नहीं करें गी।
ऄलस्थदण्ड लहि रहा है और लशशु के सम्मख ु का मागव स्वच्छ
होता जा रहा है। शवों के टुकडे, रथों तथा शह्लों के खण्ड स्वत:
ईछिकर दरू लगरते जा रहे हैं।
'ऄम्ब!' लशशु दौडता कराि दष्ं रा, ज्विदलग्नमधू वजा, ईग्र
नेत्र दहाडते के शरी की ओर ही जा रहा है।
'चपु !' ऄपनी नन्हीं सक
ु ु मार हथेिी धर दी लशशु ने दहाडते
के शरी की नाक पर और डााँटा - 'लिर बोिेगा तो तेरी नाकपर
चपत मारूाँगा - ऐसी चपत लक छींकते-छींकते थक जायगा त।ू '
के शरी ने चौंककर लशशु को देखा। ईसका मख ु बन्द हो गया।
मस्तक झक ु ा लदया ईसने। वह ऐसी चेष्टा करने िगा जैसे ईससे
ऄपराध हो गया और ऄब िमा चाहता है। यलद अद्या ईसकी
पीठ पर अरूढ़ न होतीं तो वह ऄवश्य लशशु के पदों में ऄब तक
िोट गया होता।
77
'ऄम्ब!' लशशु को के शरी की चेष्टा पर ध्यान देने का
ऄवकाश नहीं। के शरी तो शान्त हो गया। भतू -प्रेतालद कबके
चपु चाप, शान्त खडे हो चकु े । लदशाएाँ लनमवि हो गयीं। समीर ऄब
िू के स्थान पर सखु स्पशी बन चक ु ा है; लकन्तु ये महाशलि ऄभी
हुक
ं ार कर ही रही हैं।
'ऄम्ब!' लशशु झिपिा गया। वह तो छोटा है। आतने बडे लसंह
की पीठ तक ईसके कर पहुचाँ नहीं सकते; लकन्तु ईसकी पक ु ार ये
ऄम्बा क्यों नहीं सनु रही हैं? ईसने देवी के दलिण चरण के समीप
जाकर ईनका पादांगष्ठु पकडा ओर लहिा लदया।
'वमस तमु !' सहसा भगवती ने ऄपने चरण का ऄगं ष्ठु पकडे
बािक को देखा और एक साथ सब करों के ऄह्ल-शह्ल, खप्पर
अलद लसहं के वामपाश्वव में िें ककर कूद पडीं। लशशु को ईन्होंने
झक
ु कर ऄकं में ईठा लिया।
'ऄम्ब!' ईन अद्या के ऄकं में पहुचाँ कर लशशु ने मख
ु ईठाकर
ईनके श्रीमख
ु की ओर देखा और ऄपनी नन्हीं हथेिी ईनके
कपोि पर रख दी - 'तू क्रोध करती है?'
78
'वमस!' ईन महाशलि के पयोधर ऄमतृ -लनझवर बन चक ु े थे।
ऄलतशय वामसपय से ईनका वीणा लवलनन्दक स्वर भी कलम्पत
था। लशशु के ििाट को चमू कर बोिीं - 'तमु समीप नहीं होते,
तब कभी क्रोध भी अ जाता है। ऄब तो वह भाग गया।'
'भाग गया ऄम्ब?' लशशु ने आधर-ईधर मस्तक घमु ाकर देखा।
जैसे क्रोध कोइ शशक-मषू क या श्वान होगा लजसे भागते देख िे
सके गा।
'ऄम्ब! तू तो दयामयी है?' लशशु भिा ऄपनी स्नेहमयी
ऄम्बा का स्तवन करे गा। वह तो ऄभी सनु ी लपछिी हुक
ं ारों और
क्रोध का ईपािम्भ दे रहा था।
'दयामय तो तमु हो। ऄपना अनन्द िोक और ऄपने
अनन्द-कन्द ऄनजु को मयागकर आस माया-मण्डि में स्वेच्छा से
लत्रभवु न को अश्वासन देने ईतर अये।' अद्या ने स्नेह-लवगलित
स्वर में ऄनरु ोध लकया - 'ऄब अ ही गये हो तो धरा को भी धन्य
कर दो। ईस ऄपने ऄपराधी कूष्माण्ड को के वि तम्ु हीं िमा करके
ईसके अराध्य के समीप भेज सकते हो।'
79
'ईसे तो कन्हाइ भेज देगा भगवान भोिे बाबा के समीप।'
बािक ने सहज भाव से कह लदया - 'मैं तलनक धरा को भी घमू
िंगू ा; लकन्तु तू मेरी वहााँ देखभाि करती रहेगी ऄम्ब! मैं पक
ु ारू
तो हुकाँ ार करने में या सो जाने में नहीं िगी रहेगी।'
'ऄब तो मैं तब तक तम्ु हीं पर दृलष्ट िगाये रहगाँ ी, जब तक
तमु ऄपने ऄनजु के समीप नहीं पहुचाँ जाते।' ईन महाशलि ने कह
लदया - 'तम्ु हें पक
ु ारना नहीं पडेगा।'
'ऄम्बा अद्याकी जय !' लशशु ने प्रसन्नता से तािी बजायी।
'जय ! तम्ु हारी-ऄमतृ पत्रु ! तम्ु हारी जय !' अद्या ने भी
सोपिास जयध्वलन की।
80
मुसनकुमार-
ऄिण्ु णव्रत ऄलमततेजा मलु न सव्रु त का कुमार सभु ि; लकन्तु
कुछ तो नहीं सीखता। सतयगु का बािक और वह भी लवप्रकुमार,
परन्तु आतना चपि! माता बहुत दःु लखत रहती हैं। ईनको िगता है
लक ईन्हीं के लकसी ऄसयं म, ऄसलच्चन्तन से ईनका पत्रु ऐसा
बलहमवख ु हो गया है।
मलु न सव्रु त में प्रमाद के प्रवेश की कपपना भी नहीं की जा
सकती। कौमारावस्था से वे सहज तापस। ध्यान में बैठे रहना
ईनका स्वभाव है और समालध तो जैसे ईनके संकपप की प्रतीिा
करती रहती है।
लपता की अज्ञा स्वीकार करके ईन्होंने पमनी-पररग्रह लकया
था। महलषव लत्रत ईमसक ु न हो ईठते ईन्हें ऄपनी कन्या प्रदान करने
को - वे कहााँ आस प्रपञ्च में पडने वािे थे। महलषव ने ईनके लपताश्री
से ऄनरु ोध लकया और लपता की अज्ञा ईन्हें स्वीकार करती पडी।
वह कृतयगु था - सलृ ष्ट का प्रथम सतयगु । ईस समय गहृ -
लनमावण तो के वि शासक और वलणक् के लिए ईलचत माना जाता
था। ब्राह्मण तो ईटज भी नहीं बनाते थे। अहार देने को वन में
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पयावप्त वि
ृ थे और ऄलग्नहोत्र के लिए ऄलग्न लगरर-गहु ाओ ं में
सरु लित रह सकते थे। ब्राह्मण क्यों वस्तु पररग्रह करे या झोपडी
बनावें। वषव में कुछ ही लदन तो होते हैं जब वषाव से ऄलग्न-रिा के
लिए अश्रय ऄपेलित है।
ऄमयन्त अग्रह, अदर भी ऄपवाद स्वरूप लगने-चनु े
ब्राह्मणों को ही लकसी वलणकप्रधान या राजधानी के समीप रहने
को बाध्य कर पाता था। वे समथव, साधनलसद्ध ऄलतशय कृपािु
महलषव थे। िोक पर ऄहैतक ु ी कृपा करके ही वे लकसी गहृ ाश्रयी के
कुछ समीप रहना स्वीकार करते थे। आसलिए स्वीकार करते थे
लजससे िलत्रय एवं वैश्य गहृ स्थों का संस्कार सरु लित रहे। आनके
बािकों को सम्यक् शाह्ल-लशिण प्राप्त हो।
न नगर, न ग्राम। कहीं शासक का कोइ सदन है तो वहााँ कुछ
थोडे झोपडे। ईनके अचायव महलषव वहीं कहीं समीप के वन में जि
का सपु ास देखकर लकसी गि ु ा को अश्रम बना िेते थे।
तब कृलष की कपपना भी नहीं थी। वनों में प्रचरु िि,
कन्दालद थे। प्रकृलत आतनी लनमवि लक वन पशु तक शान्त। कहीं
रजस का संघषव या तमस का कपमष नहीं।
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वलणक वगव को कुछ वन्य ऄथवा समिु -तटीय पदाथव
नाररके ि, सपु ारी जैसे व्यापार को प्राप्त थे और ईस समय व्यापार
वस्त-ु लवलनमय ही था।
वनों में िि-जि की सलु वधा देखकर कोइ कहीं लटक जाता
था। मानव सहज ऄन्तमवखु , ईसे समाज- साथ की ऄपेिा नहीं थी
और नहीं था कोइ भय। जनसंख्या ऄमयपप। कइ लदन चिने पर
कोइ दसू रा लमि जाय तो सवेश की महती कृपा।
शासक को के वि रुग्ण, ईन्मि पशओ ु ं एवं यदा-कदा
ऄपवाद रूप लकसी मनष्ु य की भी व्यवस्था करनी थी। ऄलतशय
वद्ध
ृ ों में देह का मोह तो होता नहीं था। ऄत: वे ऄनशन अलद
ईपायों से लनयम-लनवावह में ऄसमथव होने पर स्वयं देहमयाग कर देते
थे।
ऄलतवलृ ष्ट-ऄकाि, ऄन्धड-ईमपात,् सप-वलृ श्चक, दश
ं -मशक,
मषू क-लटड्डी, रोग अलद ईमपात प्रकृलत में मनष्ु य के पापों से
लवकृलत अने पर ईमपन्न होते हैं। ईस समय आनका नाम भी लकसी
ने नहीं सनु ा था।
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रोगी-अहत, ऄपगं -ऄसहाय, ऄन्ध-बलधर कहीं सनु े नहीं
जाते थे। ऄवश्य बहुत कम मनष्ु य थे धरापर; लकन्तु जो थे, स्वस्थ,
सन्ु दर, सन्तष्टु , सौम्यशीि थे।
समवगणु प्रधान सतयगु में लक्रयाशीिता ऄमयपप थी। चाहे
जो एकाकी कानन में ध्यानस्थ बैठा है और बैठा तो कौन कह
सकता है लक वह लकतने सप्ताह या लदन समालधस्थ रहकर ईठे गा।
यही लकसे पता था लक लकतने िण पश्चात् वह पनु ः बैठ जायगा
लकसी लशिा पर पनु ः ध्यान करने।
मलु न सव्रु त तो लकशोर होने से भी पवू व समालधलनष्ठ हो गये थे।
ईस समय की लनमवि मेधा लशशओ ु ं को श्रतु धर सहज बना देती
थी। लपता से पााँच वषव की ऄवस्था में ही प्रणव की दीिा लमिी।
गायत्री श्रवण की। बस, लशिा सम्पणू ।व शेष तो स्वयं समालहत
लचि में स्वतः प्रकट हो जाना था। अवश्यकता भी क्या थी ईस
तप एवं ध्यानलनष्ठ समय में लकसी लवशेष लशिा की।
यात्रा भी करनी ही पडती थी। जब लकसी ऄन्त:करण में
तत्त्व-लजज्ञासा ईमपन्न हो, ईसे गरुु के ऄन्वेषण में लनकिना पडता
था। वैश्य वस्त-ु लवलनमय के लिए यात्रा करते थे। िलत्रय को यात्रा
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करते ही रहना चालहये। ईसे कहीं रिा का - सेवा का सौभाग्य
ढूाँढकर ही तो लमिना था।
कन्या लकशोरी हो जाय तो कन्या के लपता को ईसके लिए
सयु ोग्य वर ढूाँढ़ने लनकिना पडता था। महलषव लत्रत ऐसे ही ऄपनी
कन्या िेकर यात्रा करने लनकिे थे। मलु न सव्रु त को ईन्होंने देखा
और ईनके लपताश्री से प्राथवना की। सव्रु त को लपताकी अज्ञा
मानकर ईस कन्या का पालण-ग्रहण करना पडा।
महलषव लत्रत तो कन्या देकर चिे गये। ईस समय ब्राह्म-लववाह
- कन्या के साथ कुछ सामान्य वस्तएु ाँ, वपकिालद लदया और
लववाह सम्पन्न। ऄब कन्या का भार ईस पर लजसने ईसका हाथ
पकडा।
पत्रु ने लववाह कर लिया - गहृ स्थ हो गया तो लपता पर ईसका
दालयमव नहीं रहा। वह ऄब ऄपना पथृ क अवास ऄन्वेषण करे ।
मलु न सव्रु त ने ईसी लदन लपता-माता को प्रणाम करके पमनी के साथ
यात्रा कर दी।
'देलव! यह लगरर-गहु ा तम्ु हें और मेरी गाहवस्थ्य ऄलग्न के लिए
ईपयि
ु अश्रय है। वन में एक छोटी सररता के समीप सव्रु तजी ने
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एक गि ु ा ढूाँढ़िी और ईनका कतवव्य परू ा हो गया। ऄब गलृ हणी
जाने और ईसका वह गहु ा-गहृ जाने। सव्रु त मलु न तो दो घडी पीछे
ही सररता तट पर एक लशिा पर मगृ चमव लबछाकर बैठ गये
ध्यानस्थ।
वन से कन्द, िि, सलमधा िाना पमनी का कतवव्य। प्रात:-
सायं ऄलग्नहोत्र करके ऄलग्न-रिा भी ईसी को करनी। वह गहृ स्थ
है, ऄत: ईसका सबसे बडा कतवव्य ऄलतलथ-समकार ईसे ईसके
पलत ने लनलदवष्ट कर लदया है; लकन्तु ऄलतलथ तो कभी जगदीश्वर
कृपा करके भेजेंगे तब सेवा का सौभाग्य लमिेगा। वह प्रतीिा ही
तो कर सकती है। प्रतीिा तो ईसे सप्ताह-के -सप्ताह करनी पडती है
लक ईसके अराध्य ध्यान से ईठें तो ईन्हें कुछ िि-जि ऄलपवत
कर सके ।
'देलव! तमु ने ऄपने शरीर की ईपेिा करके मेरी सेवा की आतने
वषव।' लकसी सौभाग्य से, लकसी सघु डी में मलु न सव्रु त ििाहार
करके पनु ः ध्यान करने नहीं बैठे। ईन्होंने पमनी के मख
ु की ओर
देख लिया। कृशकाय ईस तपलस्वनीपर दया अयी ईन्हें। ईन्होंने
पछू लिया - 'तम्ु हें क्या ऄभीष्ट हैं?'
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'देव! बापयकाि में माता से सनु ा है' ईस गररमामयी ने
नलमतनयन, िज्जारुण मख ु लकसी प्रकार कहा - 'नारी की
सििता मातमृ व में है।'
'ओम!् ' मलु न सव्रु त ने स्वीकृलत दे दी। पमनी ने यलद वह
ऄवसर खो लदया होता - कौन कह सकता है लक मलु न को पनु ः
कभी पछ
ू ने की प्रवलृ ि होती भी या नहीं।
मलु न की वह स्वीकृलत साथवक तो होनी ही थी। नो महीने
पश्चात् ईसके ऄंक में मलु न सव्रु त की ही दसू री ननह् ी मलू तव, वैसा ही
सन्ु दर, कमि-नेत्र कुमार अ गया। मलु न ने ईसका नामकरण लकया
सभु ि।
सभु ि को माता का सम्पणू व वामसपय लमिा। वह बढ़ने िगा;
लकन्तु माता को ईसके शैशव ने सन्तष्टु नहीं लकया। एक मलु नकुमार
और आतना चपि! वैसे माता को ऄपने लशशु की लचन्ता कम ही
करनी पडती थी। वन के पशु और पिी तभी से ईसे घेरे रहने िगे,
जबसे वह भलू म पर बैठने िगा।
'यह मगृ या के शरी शावकों को पकड िेता है। ईनके उपर
चढ़कर ईन्हें संत्रस्त करने में भी संकोच नहीं करता।' मलु न पमनी ने
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ऄमयन्त लखन्न-कण्ठ एक लदन पलत से प्राथवना की - 'तलनक भी
शान्त नहीं बैठता और ऄप्रिालित िि ही मख ु में नहीं िेता,
लसहं नी के लशशु के साथ ईसके स्तन में भी मख
ु िगाकर मैंने आसे
दग्ु धपान करते देखा है।'
मलु न-पमनी की लचन्ता का कारण था। शैशव में जो आतना
चपि है, वह बडा होकर ध्यान कै से करे गा? लजसमें जन्मजात
अहार के शद्ध ु ाशलु द्ध का लववेक नहीं है, वह तपोलनरत कै से
रहेगा?
'मझु से कहााँ प्रमाद हुअ?' मलु न पमनी को बहुत ममवव्यथा थी।
वे सम्भव हो तो ऄब भी कोइ कठोर तप, ऄनष्ठु ानालद करके ऄपने
आस लशशु को ससु ंस्कार देना चाहती थीं।
देलव यह तो हमें धन्य करने अया है। मलु न सव्रु त ने ध्यान
लकया पत्रु के पवू व सस्ं कार जान िेने के लिए। ईस समय सब प्रकार
के ज्ञान को पाने का एकमात्र ईपाय ध्यान था। भौलतक-दैलवक,
परोि-ऄपरोि सब ध्यान में प्रमयि कर देने की शलि ऄब भी है;
लकन्तु ऄब वैसा सलु स्थर ध्यान जो सम्भव नहीं होता। ईस समय
तो वह सहज था।
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'आसके कोइ प्रािन कमव देखने में मैं ऄसमथव हो गया।' मलु न ने
नेत्र खोिे और दो िण रुककर पमनीसे कहा - 'सलञ्चत, प्रारब्ध
कुछ नहीं आसका। यह तो स्वेच्छा से तम्ु हारे ईदर में अया। ऄत:
आसे लकसी साधन की ऄपेिा नहीं। कहााँ से अया - मैं भी ऄसमथव
हाँ जानने में। के वि आतना कह सकता हाँ लक लकसी लदव्यधाम से
अया होगा। भगवती अद्या सहज ऄनक ु ू िा हैं आस पर। मेरी
ध्यान-शलि भी आसके सम्बन्ध में ऄलधक अिोक नहीं दे पाती।'
'कोइ हो, अपका ऄश ं है।' माता ने श्रद्धा भररत स्वर में कहा
- 'आसे अपकी पलवत्रता तो प्राप्त ही है। के वि चंचि बहुत है।
सम्भव है, समय आसे शान्त बना सके ।'
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सुभद्र-
ऄलत शीघ्र सभु ि ऄके िा हो गया। अज की भाषा में कहना
होता तो कहा जाता लक ऄनाथ हो गया; लकन्तु सतयगु में तो आस
ऄनाथ शब्द का कोइ ऄथव ही नहीं था। कोइ सद्योजात लशशु भी
माता-लपताहीन होकर ऄनाथ नहीं होता था। प्रकृलत ही तब
पालिका थी। पश-ु पिी के शावक तक ऄनाथ नहीं होते थे तो
मानव लशशु ऄनाथ कै से बनेगा। सरु तब धरा पर ऄपने को धन्य
मानते थे। मानव की कृपा ऄपेलित थी ईन्हें। लकसी मानव-लशशु
की रिा करके वे ऄपना ही भलवष्य ईज्ज्वि करते; क्योंलक बडा
होकर वह ऄपने रिक का प्रबि-पोषक ही तो बनने वािा होगा।
सभु ि के लपताश्री ने मान लिया लक पत्रु ईमपन्न हो गया तो वे
लपतऊृ ण से मि ु हो गये। ऊलष-ऊण और देव-ऊण से तब ब्राह्मण
सहज मि ु होता था। मोह तब सामान्य मानव के भी मन को
मलिन नहीं बना पाता था, सव्रु त तो मलु न थे। ईन्होंने ऄपनी ध्यान-
लशिा पर समालध िगायी लबना ईमथानका कोइ सक ं पप लिये।
लनलववकपप समालध लनवीज हो तो शरीर के वि आक्कीस लदन ही तो
लटकता है।
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मलु न-पमनी अराध्य के चरणों पर प्रलतलदन के समान
पष्ु पाञ्जलि ऄलपवत करने अयी प्रात:काि, तो ईन्हें ऄनेक
ऄकलपपत बातें देखने को लमिीं। ईनके अराध्य के चारों ओर
वन-पशु एकत्र थे। मगृ , वाराह, गज, के शरी अलद सब और वे
व्यलथत िगते थे - रुदन करते-से। पिी बार-बार ईडते थे और
लिर नीचे बैठ जाते थे। ईनमें भी चारा-चग्ु गा ढूंढ़ने का ईमसाह नहीं
था। वे चीमकार कर रहे थे।
पशओ
ु ं ने मलु न-पमनी को स्वतः मागव दे लदया। ऄनेक ने ईन्हें
संघू ा और ऐसी चेष्टा की जैसे कोइ ऄनरु ोध करते हों। पलियों का
समहू चीमकार कर ईठा।
'क्या है? क्या हुअ है तमु सबको?' ईन स्नेहमयी के सब
लशशु ही थे। िेलकन पलत के समीप वे मवररत पदों से पहुचाँ ीं। पश-ु
पलियों का ऄनवरत सक ं े त ईसी ओर था। पहुचाँ कर भी लठठक
गयीं। ईनके अराध्य के श्रीमख ु पर तेज अज नहीं था।
समालध में शरीर में उष्मा नहीं रह जाती। रृदय की धडकन
एवं नाडी की गलत ऄवरुद्ध हो जाती है। लनलववकपप समालध में
लस्थत योगी का शरीर-परीिण करके कोइ कुशि लचलकमसक भी
ईसे मतृ ही मानेगा; लकन्तु पश-ु पिी प्रकृलत के पत्रु होते हैं। ईन्हें
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भ्रम नहीं हुअ करता। मलु न-पमनी ने पश-ु पलियों की चेष्टा देखी,
पलत का तेजोहीन मख ु देखा, बहुत सक्ष्ू म दृलष्ट से देखने िगीं तो
देखा लक कुछ चींलटयााँ ईस लदव्य देह पर चढ़ने िगी हैं।
'अपने आस दासी को ऄनगु ालमनी बनने का सौभाग्य लदया!'
के वि दो लबन्दु ऄश्रु लगरे नेत्रों से। मलु नपमनी िणभर में स्वस्थ हो
गयीं। ईनका मख ु ऄपवू व ज्योलत से दीप्त हो गया। वहााँ कोइ
देखनेवािा नहीं था लक ईनके पादति से कंु कुम झरने िगा है। वे
जहााँ पादिेप करती हैं, वह भलू म ऄरुण हो जाती है।
ईन्होंने स्वयं सररता में स्नान लकया और स्वामी का शरीर
ऄक ं में ईठाकर ईसे स्नान कराया। ईसी लशिा पर, ईसी
मगृ चमावस्तरण पर ईन्होंने ईस शरीर को लिटा लदया। पनु ः स्नान
करके जिाञ्जलि दी पलत को।
ईस देह को ऄक ं में लिये ही वे गहु ा में अयीं। सब एकत्र
सलमधाएं ऄलग्न में एक साथ ऄलपवत करके ईस देह को ऄक ं में
लिये ईन लदव्या ने ऄलग्न में प्रवेश लकया। लजस ऄलग्न की
लनष्ठापवू वक लववाह के लदन से ऄब तक ईन्होंने सेवा की थी,
पलतदेह के साथ ऄपने शरीर को भी ईन्होंने ऄलन्तम अहुलत दे दी।
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लपता तो सदा से ममता से रलहत थे। ईनमें ऄपने शरीर के
प्रलत ही राग नहीं था तो ह्ली-पत्रु के प्रलत ममता कहााँ से होती।
स्नेहमयी माता का भी यह ऄलग्न-प्रवेश सभु ि शान्त देखता रहा।
वह न रोया, न लचपिाया और न ईसने माता का ध्यान ऄपनी
ओर अकलषवत करने का कोइ प्रयमन लकया।
माता - ईसकी जननी सामान्या नारी भी होती तो सतयगु की
नारी थी। वैसे वे ऊलषकन्या थी। मलु नपमनी थी। जैसे ही ऄनमु ान
हुअ लक ईनके पलत ने देहमयाग लदया, ईसी िण ईन्हें ऄपना शरीर
और संसार लवस्मतृ हो गया। ऄपने चार वषव के लदगम्बर लशशु
सभु ि पर ईन्होंने दृलष्ट ही नहीं डािी।
माता-लपता का शरीर भस्म बन गया। सभु ि गहु ा-द्रार पर तब
तक खडा रहा, जब तक गहु ा में वह लचतालग्न ध-ू धू करके जिती
रही। वह ईस ऄलग्न को ही देखता रहा। पता नहीं ईस ऄलग्न में वह
क्या देख रहा था। ऄलग्न से जब नन्हीं िपट भी ईठना बन्द हो
गयीं, वह ईसी गहु ा के द्रार पर िेट गया। पता नहीं कब ईसे लनिा
अ गयी।
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पशओ
ु ं में भी लकसी ने ईस लदन अहार नहीं लिया था। पिी
तक ईपोलषत थे। पशओ ु ं का समहू सभु ि को घेरे रालत्र भर जागता
रहा और पिी समीप के वि ृ ों पर, लशिाओ ं पर ही बैठे रहे।
दसू रे प्रभात में सभु ि जागा। ईसने सररता में स्नान करना
सीख लिया था। वह ईठा तो पलियों, पशओ ु ं का समदु ाय भी
सलक्रय हुअ। बहुत-से पशु वन में दौड गये। ऄनेक पिी ईड गये
वन की ओर।
सभु ि - चार वषव का लदगम्बर बािक सभु ि स्नान करके ईस
गि
ु ा में अया। ऄब तक लचता का एक ऄश ं सि ु ग रहा था। जो
भाग शीति हो गया था, वहााँसे ईस बािक ने ऄपनी छोटी
ऄञ्जलि में भस्म ईठायी और ईसे िेजाकर सररता के जि में
डाि लदया। अप आसे चाहे ऄलस्थ-लवसजवन कहें या तपवण।
बािक सररता के प्रवाह पर िै ि कर बहती ईस भस्म को
खडा देखता रहा - देखता रहा। लिर ईसने सररता में प्रवेश करके
स्नान कर लिया।
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वन में गये ऄनेक पशु तथा पिी भी िौट अये थे या िौट
रहे थे। सब कोइ-न-कोइ िि िे अये थे। सबने ऄपने वे ईपहार
बािक के सम्मख ु रख लदये।
बािक सभु ि वहााँ बना रहता तो ये पश-ु पिी ईसकी सदा
सेवा करते रहते। वह तो आनके साथ खेिने का ऄभ्यस्त था। ये
पलहिे भी ईसे प्यार-दि
ु ार देते रहे थे। वह आनमें ऄनेक के स्तनों में
मख
ु िगाकर दधू पी चक ु ा है। गज-भपिक ू ईसे पीठ पर बैठाकर
ऄनेक बार दरू तक वन में घमु ा चक ु े हैं।
सभु ि बािक सही; लकन्तु मलु नकुमार था। वह अकाश की
ओर दृलष्ट ईठाकर आच्छा करता तो सरु ों में से ऄनेक और सरु राज
भी ईसकी सेवा में तमकाि ईपलस्थत हो जाते। यह ठीक है लक वह
गहु ा ऄभी रहने योग्य नहीं थी; लकन्तु सभु ि दो घडी भी वहााँ बना
रहता तो पशु पिी ही गहु ा को स्वच्छ कर देते।
यह सब कुछ नहीं हुअ। सभु ि का ईस गहु ा में ऄब कोइ
अकषवण नहीं रहा। ईसने लिर ईस ओर देखा ही नहीं। पश-ु
पलियों के िाये िि कन्द भी ईसने ईठा-ईठाकर ईनको ही
लवतररत लकये। ईसके छोटे हाथों का ईपहार सबने स्वीकार कर
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लिया। व्याघ्र और के हरी तक ने ईसके कर से लमिे कन्द मख
ु में
डाि लिये।
सभु ि के वि तब तक रुका वहााँ, जब तक ईसकी समझ से
सब पश-ु पिी नहीं अ गये और वह सबको कोइ-न-कोइ िि या
कन्द नहीं दे चक ु ा। वह ननह् ा बािक ऄनजान में ही माता-लपता
की यह ऄन्मयेलष्ट नहीं कर रहा था, यह कमवकाण्ड का कोइ धरु न्धर
लवद्रान भी कहने का साहस करे गा?
सभु ि को वहााँ से चिे जाना था; लकन्तु यह बहुत कलठन था।
कहााँ जाय वह? लकधर जाय? ईसने तो ऄब तक ऄपने माता-
लपता को छोडकर कोइ दसू रा मनष्ु य भी पथ्ृ वी पर कहीं होगा, यह
जाना ही नहीं है। आस गि ु ा, आस छोटी सररता और असपास के
वन के ऄलतररि वह और कुछ नहीं जानता। आन पश-ु पलियों के
ऄलतररि कोइ पररचय ईसका कहीं नहीं।
आतने छोटे बािक को पवू व-पलश्चम का पता होता है? ऄब
तक माता के ऄक ं में और पशओ
ु ं के मध्य ऄथवा ईनकी पीठ पर
ही रहा है वह।
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ऄभी ईसकी अयु ऐसी नहीं है लक आनमें-से कोइ कलठनाइ
ईसे अतलं कत कर सके । ईसने जाना ही नहीं लक भय, अशक ं ा या
कष्ट क्या होता है। िेलकन ईसकी कलठनाइ ये पशु हैं। ये ईसे घेरे
खडे हैं और मागव देने को प्रस्ततु नहीं हैं। यह ईनको ऄपने नन्हें
करों से लकतना ठे िे?
ऄनेक-ऄनेक ईसके सम्मख ु िेट गये हैं। के शरी भी श्वान के
समान ईसके पैरों में लिपट गया है। िेट-िेट जाते हैं ये व्याघ्र। वह
तो आनको पचु कार कर भी हटा नहीं पाता है। आन सबके स्नेह का
अग्रह; लकन्तु वह मलु नकुमार है। ईसका मन मोह से ऄसंस्पष्टृ ।
ईसने यहााँ से चिे जाने का लनणवय लकया तो यहााँ से जायगा ही।
लकसी के भी स्नेहाग्रह के साथ लनष्ठुरता तो की नहीं जा
सकती; पश-ु पलियों का स्नेहाग्रह, आस वगव ने बाधा दी तो सभु ि
सोचने पर लववश हुअ। वह लसर झक ु ाकर सोचने िगा - 'लकधर
जाय? क्यों जाय? कै से जाय?'
सभु ि के वि सतयगु का मलु नकुमार ही नहीं था। वह
जन्मजात लसद्ध, जालतस्मर, और जब ईसे स्मरण है लक कन्हाइ
ईसका सखा, ईसका ऄनजु है, तब ईसके संकपप में बाधा देने
वािी शलि सलृ ष्ट में कहााँ है।
97
'यह संसार कौन बनाता है? क्यों बनाता है? कै से बनाता है?'
सभु ि के मन में प्रश्न ईठा। सलृ ष्टकताव से ही लमि िेना ईसे ईलचत
िगा। आच्छा करते ही ईसका शरीर वहााँ ऄदृश्य हो गया।
98
ससृ ष्टकताश के साथ-
ऄच्छा िगा सभु ि को सलृ ष्टकताव का िोक। के वि एक बात
ईसे ऄटपटी िगी। कहीं कोइ पश-ु पिी नहीं। कोइ ईसका
समवयस्क बािक नहीं।
वहााँ ईसके लपता के समान जटाधारी ऊलष-मलु न थे। लह्लयााँ
बहुत थीं; लकन्तु ईसकी माता के समान तपलस्वनी कोइ नहीं
दीखती थी। सब ससु ज्ज थीं और वह आस श्रगंृ ार से ऄपररलचत
था।
ईसने धरा पर देखा ही क्या था; लकन्तु आस ऄपररचय ने ईसे
चौंकाया नहीं। ईसके ऄन्तज्ञावन को-सस्ं कार को-स्मलृ त को (ठीक
शब्द नहीं लमि रहा) जागतृ कर लदया और जब ईसे ऄपना
गोिोक स्मरण अ गया - ब्रह्मिोक बहुत दररि, ऄसस्ं कृत-
कुरूप, ईपेिणीय िगा ईसे। वह कूतहू ि से आधर-ईधर देखता
खडा रह गया। ऄवश्य धरा की जो स्मलृ त थी, ईसके सम्मख ु ब्रह्म
िोक ऐसा था जैसे लकसी जीणव झोपडी के सम्मख ु राजसदन।
99
'तमु अ गये?' चतमु वख ु , भगवान ब्रह्मा सोपिास ईठे -
'ईतनी दरू क्यों खडे हो? यहााँ ऄभी तम्ु हारे ऄनेक पररलचत लनकि
अवेंगे।'
'वमस! तमु मझु े तो पलहचानते हो।' देवी सरस्वती ने ऄक
ं में
ईठाया तो वह सहज प्रसन्न हो गया - 'ऄम्ब!'
'हााँ, वमस!' वीणापालण भगवती ने वीणा पथृ क् धर दी थी।
ईनके कर की स्िलटक मािा भी स्खलित हो गयी - 'यहााँ यह हसं
तम्ु हारा लवनोद लकया करे गा।'
ऄब ईसने देखा लक एक खबू बडा, खबू ईज्ज्वि हसं वहााँ
है और वह समीप अ गया है।
'ऄम्ब! अप कै िाश पर ...... ।'
'वहााँ मैं कभी-कभी ही देवी लहमवान-सतु ा से लमिने जा
पाती ह।ाँ ' भगवती शारदा ने बीच में ही बािक को समझाया -
'िेलकन ईन लसंहवालहनी और लसन्धसु तु ा से भी मेरा ऄभेद है। तमु
ईमा के समान ही मेरे भी पत्रु हो और पत्रु को माता से मााँगना नहीं
100
पडता। मेरा स्नेह तम्ु हारा स्वमव है। तमु कहीं रहो, तम्ु हारा यह
स्वमव सदा प्राप्त रहेगा।'
'बाबा! अप सलृ ष्ट करते हैं?' बािक ऄब प्रलतभा की देवी
का अशीवावद पाकर ब्रह्माजी के पास अ गया - 'कै से करते हैं?
अप तो कुछ करते नहीं दीखते। के वि कुछ िण को ऄभी
ऄदृश्य हो गये थे। कहााँ गये थे अप? सलृ ष्ट करने गये थे? सलृ ष्ट
करने का अपका कोइ कायाविय ऄन्यत्र है? कहााँ है? मैं ईसे
देखगाँू ा? अप देखने देंगे?'
एक साथ बािक ने ढेर से प्रश्न कर डािे। ऄन्तत: बािक ही
तो था।
'तमु कहीं जाना चाहो, कुछ देखना या करना चाहो तो तम्ु हें
मैं या मेरी सलृ ष्ट का कोइ रोक कै से सकता है। सलृ ष्टकताव का स्वर
गदगद हो गया था - 'मैं ऄनरु ोध करता हाँ लक जब तक मेरी सलृ ष्ट
में रहने की आच्छा है, आसकी मयावदा मानोगे तो मझु े ऄनगु हृ ीत
करोगे।'
101
'मैं अपका और अपके लनयमों की ऄवमानना नहीं
करूाँगा।' बािक ने वचन लदया - 'कुछ पटकाँू या तोडाँगा नहीं।
उधमी तो कन्हाइ है। वह कुछ करे तो अप ईसे मना करना।'
'मैं ईन्हें मना करूाँगा?' ब्रह्माजी ने मस्तक झक
ु ाया - 'मझु जैसे
ऄसंख्य िोकस्रष्टा तम्ु हारे द्रारपाि की दया दृलष्ट के लभिक ु रहते
हैं; लकन्तु तमु यहीं रह जाओ तो मैं ऄपने को धन्य मानाँगू ा।
'बाबा! मैं कहााँ रहगाँ ा, कन्हाइ जानता है।' बािक ऄपने
सहज स्वभाव को कहीं छोड नहीं सकता - 'लकन्तु अपने तो
बतिाया ही नहीं लक अप सलृ ष्ट कै से करते हैं? कहााँ करते हैं?'
'मैं कहााँ सलृ ष्ट करता ह।ाँ ' सलृ ष्टकताव ने स्पष्ट स्वीकार लकया- 'मैं
तो लनलमि ह।ाँ तम्ु हारे सखा एक रूप से सवेश्वर हैं। ईन्होंने सब
व्यवस्था ऐसी कर दी है लक लकसी को कुछ करना नहीं है।'
'वे सववव्यापक हैं। लचद् घन हैं।' ब्रह्माजी ने बतिाया - 'मैं
के वि सलृ ष्ट के प्रारम्भ में कुछ प्रयमन ईनके प्रदलशवत पथ से करता
ह।ाँ के वि प्रारम्भ में ही - पीछे तो सब ऄपने-अप चिता रहता
है। मझु े तभी कुछ करना पडता है, जब कोइ लवशेष पररलस्थलत
ईमपन्न हो जाय।'
102
'अप तब करते क्या हैं?' बािक को लवलचत्र िगी यह बात।
'ईन श्रीहरर का लचन्तन और ईनके मगं िमय सयु श का
श्रवण।' ब्रह्माजी के यहााँ गन्धवव, ऄप्सराएं अ गयी थीं। ऄत:
ईन्होंने कहा - 'तमु भी सनु ो। तम्ु हें बहुत लप्रय िगेगा।'
बािक सभु ि को सचमचु वह संगीत बहुत लप्रय िगा। वह
भगवद-् यश कीतवन तन्मय होकर सनु ता रहा।
ब्रह्मिोक में िधु ा-लपपासा तो है नहीं। स्वगव के समान
ऐलन्ियक भोग भी नहीं। सदा तलृ प्त, सन्तलु ष्ट और शालन्त। वहााँ यलद
कुछ लक्रया है तो मात्र यह श्रीहरर के सयु श का सकं ीतवन।
वहााँ वाणी-व्यवहार भी नाममात्र का। देवी सरस्वती ने
बािक के मस्तक पर ऄपना दलिण कर रख लदया और ईसे सलृ ष्ट
का रहस्य प्राप्त हो गया।
कमव, कमव से संस्कार, संस्कारों से प्रारब्ध, प्रारब्ध से जन्म
और संस्कार-भोग तथा नतू न कमव। सलृ ष्ट की यह ऄनालद परम्परा।
103
कमव-सस्ं कार की ऄनन्त-ऄनवलच्छन्न धारा जैसे ईसे प्रमयि दीख
गयी।
चेतन तमव सववव्यापक है, ऄत: ऄमयन्त सक्ष्ू म में भी
लवद्यमान है। कहना यह ईपयि ु है लक सक्ष्ू मता में ईसकी
सलन्नकटता बढ़ती जाती है, ऄतः लचच्छलि और शलिमिा भी
बढ़ती जाती है।
लवज्ञान की भाषा में कहें तो प्रालणयों के रजवीयव में जो िाख
िाख कीटाणु हैं, ईनमें भी ऄनेक क्रोमोसोम और प्रमयेक
क्रोमोसोम में करोडों जीन्स। आन जीन्सों में संस्कार-ग्रहण की और
ईसे सैकडों पीलढ़यों तक सरु लित रखने की ऄकपपनीय शलि है।
लवज्ञान भी ऄभी बतिा नहीं पाता लक जीन्स कब, कै से सस्ं कार
ग्रहण करता है और लकस समय कौन-सा सस्ं कार वह प्रकट करे गा
या लछपाये रहेगा।
प्रालणयों के रंग, रूप, अकार - नख, के श, रोम, नेत्रालद की
सब बनावट की रूपरे खा - मानलचत्र जीन्स में और वह भी लकतने
और कै से-कै से मानलचत्र, कोइ कपपना नहीं।
104
प्राणी को जालत, अय,ु भोग (सख ु -दःु ख, यश-ऄयश, हालन-
िाभ) देनेवािा प्रारब्ध या कमव-सस्ं कार का प्रवाह ऄनालद और
ईसके सस्ं कारों के वाहक जीन्स के लबना जन्म ही सम्भव नहीं
ईसका।
भगवान ब्रह्मा को सलृ ष्ट के प्रारम्भ में प्रयमन करना पडता है।
कश्यपजी की लवलभन्न पलमनयों से ईन्होंने मानव, दानव, देवता,
नाग, पश-ु पिी, वि ृ , िता, प्रभलृ त सब ईमपन्न करने की व्यवस्था
की। सलृ ष्ट में वैसी कोइ लवशेष पररलस्थलत कहीं अ पडे तब
सलृ ष्टकताव को लवशेष प्रयमन करना पडता है।
'अप बीच बीच में ऄदृश्य क्यों होते हैं?' बािक ने सक
ं ीतवन
लवरलमत होने पर पछू ा - 'अप तो आस सयु श-कीतवन के मध्य भी
कइ बार ऄदृश्य हुए।'
'धरा पर जब-जब श्रीहरर ऄवतार िेते हैं, मैं ईनके दशवन कर
अता ह।ाँ ईनकी ऄभ्यथवना करता ह।ाँ ' ब्रह्माजी ने कहा - 'सलृ ष्ट मेरी
है, मेरे गहृ के समान। प्रभु पधारे तो मझु े स्वागत सेवा में प्रमि तो
नहीं होना चालहये।'
105
'आतने ऄपप िणों में ही ऄवतार होते रहते हैं?' बािक को
बहुत लवलचत्र िगा।
'तमु काि को समय मानकर मत बोिो।' ब्रह्माजी ने कहा -
'जैसे तम्ु हारे गोिोक से चिे वहााँ ऄभी िणाधव भी नहीं हुअ,
वैसे ही आस िोक के िणों में धरा की चतयु वलु गयााँ बीत जाती हैं।'
'तमु काि की आस सापेि लस्थलत को समझते हो।' बािक
को सोचते देखकर सलृ ष्टकताव ने समझाया - 'देवताओ,ं ऊलषयों का
काि भी ममयवधरा के काि से लभन्न है।'
'ममयवधरा का काि सबसे छोटा!' बािक ने प्रसन्न होकर
तािी बजायी। ईसे ममयवधरा पर के वि एक चतयु वगु ी ही तो रहना
है। तब वह आसे बडे कािवािे ब्रह्मिोक में क्यों बैठा रहे।
'मनष्ु यों के काि से भी ऄमयपप काि धरा के ििु प्रालणयों
का है।' ब्रह्माजी ने समझाया -'लजतने समय में एक लदन मनष्ु य का
बीतता है, ईतने समय में वहााँ ऄनेक छुि प्रालणयों की कइ पीलढ़यााँ
बीत जाती हैं।'
106
बािक को बहुत ििु -प्रालणयों के काि में कोइ रुलच नहीं।
ईसे मनष्ु य की एक चतयु वगु ी धरा पर रहना है। ईसे मानव काि से
प्रयोजन है।
'सब िोक - मेरी सलृ ष्ट के सब िोक मेरे आस िोकपद्म में ही
लस्थत हैं।' सलृ ष्टकताव ने बािक से कहा - 'काि के समान देश भी
सबके ऄपने-ऄपने हैं। जैसे ईदम्ु बर िि के भीतर ईमपन्न पथ्ृ वी
के सक्ष्ू म प्रालणयों के लिए वह िि ही ब्रह्माण्ड है। देश भी
कलपपत है। ईसमें सक्ष्ू मता-स्थिू ता का ही तारतम्य है।
'देश का यह सापेिमव मैं देख चक ु ा ह।ाँ ' बािक सभु ि
ऄन्ततः पथ्ृ वी से ब्रह्मिोक अया है।
'तमु यलद धरा पर पनु : पधारने से पवू व कुछ और िोकों को
ऄपनी चरण-धलू ि देते जाते!' ब्रह्माजी ने प्राथवना के स्वर में कहा -
'धरा से तो तम्ु हारे ऄनजु तम्ु हें ऄपने साथ िे जायेंगे। ऄन्य आस मेरे
ब्रह्माण्ड के िोकों को यह सौभाग्य ऄभी ही लमिे तो लमिेगा।
मझु े ईपािम्भ देंगे भगवान रुि और श्रीलवष्णु भगवान भी, यलद
तमु ईनके यहााँ नहीं जाते।'
107
जो कमव-परतन्त्र नहीं अया, लजसे कमव अगे भी एक लनलश्चत
सीमा तक ही भोग दे सकते हैं, वह ऄपना मानव-जीवन पथ्ृ वी पर
प्रारम्भ कर देगा, तब भिा और लकसी भी भोग िोक में क्यों
जायगा?
'ऄम्बा भवानी और श्री लसन्ध-ु सतु ा की चरण-वन्दना तो मझु े
करनी है।' बािक ने कहा - 'अपकी अज्ञा है तो िोकपािों के
भी दशवन करके तब ममयवधरा जाउाँगा।'
108
प्रलयिंकर का प्रेम-
ऄनन्त लवस्तार लहम प्रदेश का, जैसे सलृ ष्ट की सम्पणू व
सालमवकता सघन हो गयी है। मध्य में के वि एक वट वि ृ और
वह भी आतना लवस्तीणव लक पथ्ृ वी पर कोइ कपपना न की जा सके !
भारतवषव का लहमािय का ही प्रदेश था वह। नन्दा और
ऄिकनन्दा से लघरा हुअ; लकन्तु मनष्ु य वहााँ पहुचाँ भी जाय तो
ईसे लहम और शीत के ऄलतररि क्या लमिता है।
भगवान रुि, ईनका मलण-महािय, ईनके गण, ईनका
वटविृ ही क्यों, कुबेर की ऄिकापरु ी और ईनके यि भी तो
मानव नेत्रों के लिए ऄदृश्य ही हैं।
बािक भि - भि पथ्ृ वी की गणना से ती ऄनेक चतयु वगु ीन
वद्ध
ृ है; लकन्तु यह ऄमतृ पत्रु धरा से चार वषव की अयु में
ब्रह्मिोक गया और वहााँ परू े एक लदन भी तो नहीं रहा है। ऄभी
लदगम्बर लशशु ही है। धरा के कै िाश पर कुछ ऐसा नहीं था जो
ईसके लिए ऄदृश्य रहता।
109
भगवान रुि के ऄसख्ं य गण थे वहााँ और थे कै से हैं, कहना
नहीं होगा। िेलकन ईनमें एक ने भी बािक को डराने का साहस
नहीं लकया। नन्दीश्वर लजसे प्रथम ही मस्तक झक
ु ावें और गणालधप
लजससे लमिने दौड पडें, ईसे गण के वि दरू से प्रणलत दे सकते थे।
'ऄम्बा तम्ु हारी प्रतीिा ही कर रही हैं।' ऄपने पदों में प्रणत
होते बािक को िम्बोदर गजवदन मंगिमलू तव ने अशीवावद देकर
कहा - 'लपता के समीप वे वटवि ृ के नीचे ही लवराजमान हैं।'
'मैं तो स्वयं अ रहा था।' बािक का तामपयव था - 'अपने
कष्ट क्यों लकया?'
'तमु ऄम्बा के ऄक ं में पहुचाँ कर मेरी ओर देखना भी भिू
जाओगे।' गणेशजी ने सहास्य कहा -'सलृ ष्टकताव ने मझु े प्रथमपज्ू य
पद लदया है और ऄनजु प्रमाद न करे , आसका भी दालयमव ऄग्रजपर
ही होता है। आसलिए मैं ऄपने अप दौड अया लक तम्ु हारा प्रथम
प्रणाम मझु े प्राप्त हो जाय।'
'अप भी भद्भुत हैं।' बािक तािी बजाकर हाँसा - 'मैं कहााँ
कोइ शभु ारम्भ करने जा रहा हाँ लक अलदपज्ू य को स्मरण करूाँ।
अप यह नहीं कहते लक ऄनजु का स्नेह अपको दौडा िाया।'
110
'तमु मेरे मषू क पर बैठोगे?' गणेशजी को प्रसगं -पररवतवन
ईलचत िगा। वे बलु द्ध के ऄधीश्वर जानते हैं लक कन्हाइ के सखा
लकतने नटखट होते हैं। यह तम्ु हें लगरायेगा नहीं और वेगपवू वक दौड
सकता है।'
'मषू क कोइ ऄच्छा वाहन नहीं। आसे लबि दीखा तो प्रवेश
करने में लविम्ब नहीं करे गा। अप ही आस पर ऄच्छे िगते हैं।
बािक कह गया - 'मैं न मयरू पर बैठकर ईडना चाहगाँ ा और न
वषृ भ मझु े बैठने योग्य िगता। बैठना ही होगा तो ऄम्बा का
के शरी कहीं गया है?'
'तमु को कोइ ऄस्वीकार नहीं करे गा; लकन्तु तमु यहााँ रुक गये
तो देखो ऄम्बा स्वयं अ रही हैं।' गणेशजी ने सकं े त कर लदया।
'हााँ - ऄब ठीक है।' भगवती ईमा ने ििककर ऄकं में ईठा
लिया तब बािक ने गणेशजी की ओर देखा - 'मैं क्यों दसू रा
वाहन बनाउाँ? मझु े कहीं जाना होगा तो ऄम्बा ऄक ं में िेकर
पहुचाँ ा देंगी।'
111
'बहुत नटखट है।' ईन शैिसतु ा ने सहास्य कहा - 'मझु े वाहन
बना रहा है।'
बािक को कोइ कौतहू ि नहीं था वहााँ के मलण-सदन को
देखने का। वटवि
ृ के समीप पहुचाँ ते ही स्वयं ऄम्बा के ऄक
ं से
ईतरकर ईसने भगवान नीिकण्ठ के चरणों पर मस्तक रखा।
'कपयाणमस्त!ु ' ईन अशतु ोष ने ऄपना ऄभय कर ईसकी
ऄिकों पर रखा।
'बाबा अप तो बहुत ऄच्छे हैं' बािक ने पछ ू ा - 'क्यों िोग
कहते हैं लक अप भयानक हैं और प्रिय करते हैं?'
'भयानक तो मैं ह।ाँ मेरे तीन नेत्र जो हैं।' भतू नाथ प्रभु सलस्मत
कह रहे थे - 'कहीं ईमसव हो जाता है या मेिा समाप्त होता है तो
ऄन्त में वहााँ स्वच्छता अवश्यक हो जाती है। सलृ ष्ट का महोमसव
समाप्त हो जाता है तब मैं स्वच्छ कर देता हाँ देश और काि को
भी।'
112
'तब सदा सहं ार कौन करता है?' बािक ने आधर-ईधर देखा।
ईसे तो लत्रशि
ू भी दरू गडा दीखा। सहं ार-ममृ यु का कोइ भी
ईपकरण तो वहााँ नहीं था।
'मैंने भतू -प्रेत, प्रमथ-लपशाच सलृ ष्ट के प्रारम्भ सें ही बना लदये।
रोग-व्यालध के सब देवी-देवता मेरे गणों में हैं।' भगवान नीिकण्ठ
ने कहा - 'आनको भी कह लदया है लक बहुत ईमपात न करें । के वि
तब आनको सलक्रय होने का ऄवकाश है, जब प्राणी प्रमाद करे ।
िेलकन प्रमादहीन रहकर कोइ ही ऄमरमव को प्राप्त कर पाता है।
ऄलधकांश तो परमायु से भी पवू व स्वयं मरण-शरण होते हैं।'
'बाबा! तमु तो समालध में ही बैठे रहते हो।' बािक ने कुछ
नहीं पछ
ू ा।
'जन्म के साथ ममृ यु िगी है। सलक्रयता के साथ ही सि ं य है।
ऄणु ईमपन्न होने के साथ शलि का ईमसगव करने िगता है।' प्रभु ने
स्वयं समझाया - 'ममृ यु एक लदन नहीं अती। वह तो कण-कण के
साथ िण-िण िगी है। मैंने ऄपने सब गणों कों सक ं े त कर लदया
है लक आन्हें शीघ्रगामी नहीं होना चालहये। तमोगणु ी होने से ये सब
वैसे भी सस्ु त हैं। सलृ ष्टकताव को सलृ ष्ट गलत से मन्द पद ये न चिें तो
सलृ ष्ट बची कै से रहेगी।'
113
'अप यहााँ रहते हैं ऄम्बा के साथ?' ऄब बािक की दृलष्ट
चारों ओर के लहम-प्रदेश पर गयी।
'यह तम्ु हारी ऄम्बा का लपतगृ हृ है।' श्रीचन्िचडू ने भगवती
ईमा की ओर देखा - 'भारत धरा पर आन्होंने काशी में अवास बना
लिया है और ऄधोिोको में से एक िोक ही है। वैसे आिावतव....'
'अप बािक को क्यों व्यथव भटकने को ईमसक ु बनाते हैं।'
देवी ने बीच में ही लकलञ्चत् िज्जापवू वक कहा। ऄन्ततः आिावतव
परुु ष-प्रवेश वज्यव प्रदेश है। साम्ब-लशव की लवहार भलू म और
ऄधोिोक लवति भी। बािक कहीं मचि पडा - आसे न वाररत
लकया जा सके गा और न शाप की शलि आसका स्पशव करे गी।'
'तमु एक भ्रम में दीखते हो।' भगवान ने प्रसगं ान्तर लकया -
'तमु लजन महेश्वर से पररलचत हो, जो तम्ु हारे गोिोक पधारते हैं, मैं
ईनसे ऄलभन्न होकर भी ईनका ऄश ं ह।ाँ ईन लनलखि ब्रह्माण्ड
लवधायक का छुि ऄश ं । के वि आस वामन ब्रह्माण्ड का रुि।'
'आन ब्रह्माण्डों के भी नाम होते हैं?' बािक को कुतहू ि हुअ।
114
'जब ऄनन्त ब्रह्माण्ड हैं तो तम्ु हारे सखा लबना नाम के ईन्हें
कै से पलहचानेंगे।' बािक को यह बात ठीक िगी। बहुत गायों में
भी लकसी को पक ु ारने के लिए ईसका नाम िेना पडता है। नाम तो
ईसके सखाओ ं के भी हैं। 'िेलकन आस ब्रह्माण्ड का नाम के वि
मझु े ज्ञात है। सम्भव है ब्रह्माजी को भी ज्ञात हो और लवष्णु
भगवान तो आस नामकरण के कारण ही हैं। वामनावतार में लवराट
बनकर ईन्होंने आतना उपर चरण बढ़ाया लक ईनके पादांगष्ठु के
निाघात से ब्रह्माण्ड का बाह्यावरण तलनक िट गया। ईसी से
तम्ु हारे लदव्यिोक का ब्रह्मिव आस ब्रह्माण्ड में अकर सरु सरर
कहिाया। वामन के नख से अवरण िटने से ब्रह्माण्ड का नाम
वामन पडा।'
'अज तो समालध में नहीं बैठे अप?' बािक के प्रश्नों में क्रम
कहााँ होता है।
'समालध तो आनका सहज स्वरूप है।' आस बार ऄम्बा बोिी -
'सहं ार की के वि प्रियकाि अने पर सझू ती है। एक साथ सब
लमटा देते हैं; िेलकन समालध कहााँ दीघवकािीन होती है। जब-जब
श्रीहरर पथ्ृ वीपर पधारते हैं........।'
115
'ब्रह्माजी के समान प्रभु भी कुछ िणों के ऄन्तर से यहााँ
ऄदृश्य होते रहते हैं?' आस बार बािक बीच में ही पछ
ू बैठा।
'ऄके िे तो बहुत कम जा पाता ह।ाँ ' भगवान ने कहा - 'मैं
ऄधवनारीश्वर ह।ाँ ऄत: तम्ु हारी ये ऄम्बा प्राय: साथ जाती हैं और
ऄनेक बार ईमसक ु गणों को मैं रोक नहीं पाता।'
'आन भतू -प्रेतों को अप क्यों पािते हैं?' बािक का यह प्रश्न
सम्भव है अपका प्रश्न भी हो।
'आनको कहीं तो शरण चालहये।' अशतु ोष करुणामय ने कहा
- 'आनके अकार और स्वभाव लकसी को भी लप्रय नहीं िगते। कोइ
आन्हें प्रसन्नतापवू वक समीप नहीं रखना चाहता।'
'बाबा! अपका एक गण था न, वह बडा भारी कूष्माण्ड?'
बािक को ऄकस्मात आस चचाव में स्मरण अ गया।
'गण तो वह महेश्वर का बन चक ु ा था।' ईन दयामय का स्वर
भी रूि हो गया - 'तमु ईसकी चचाव ओर स्मरण मत करो। ईसे
भटकने दो आस ब्रह्माण्ड के भवु िोक में।'
116
'तमु को भगवान नारायण के भी तो दशवन करने हैं!' भगवान
शक
ं र को िगा लक यह सक ु ु मार यहााँ से सीधे भवु िोक भी दौड
जा सकता है, ऄतः यह चचाव ईठा दी 'तमु ईनसे कहााँ लमिोगे?'
'कहााँ लमिेंगे वे?' बािक ने पछ
ू ा।
'के वि ब्रह्माजी ऄपने िोक में रहते हैं।' भगवान लवश्वनाथ ने
बतिाया - 'जैसे मैं यहााँ, काशी, आिावतव और लवति में भी रहता
ह,ाँ वैसे भगवान लवष्णु के भी कइ िोक हैं। रमाबैकुण्ठ, िीरसागर,
पाताि, श्वेतद्रीप और सयू वमण्डि।'
'मैं सब देखगाँू ा।' बािक की ईमसक
ु ता ईसकी ऄवस्था के
ऄनरू
ु प ही थी। वह तो ईसी िण ईठ भी पडा।
117
देवसषश दीखे-
अच्युतिं के र्विं रामनारायर्िं
कृष्र् दामोदर वासुदेविं हररम।्
श्रीधरिं माधविं गोसपकावल्लभिं
जानकीनायक रामचन्द्र भजे।।
सभु ि को चौंकने का भी ऄवकाश नहीं लमिा। वीणापालण
देवलषव नारद ईसके सम्मखु अकर खडे हो गये। ऐसा िगा लक
ज्योलतरालश ही सघन होकर देवलषव की देह बनी है।
वहााँ न कोइ अधार था और न ईसे अकाश ही कह सकते।
ऄन्तररि ऄलधकतम ईपयि ु शब्द है।
'भगवन!् यह कौन-सा िोक है?' सभु ि ने प्रणाम करने के
ऄनन्तर पछ
ू ा। जब देवलषव वहााँ हैं तो कोइ िोक होना चालहये।
'कोइ िोक नहीं।' देवलषव सस्नेह बोिे - 'वमस! जो दीख पडे
वह िोक (िोक्यन्तेSलत िोका:) िेलकन यहााँ तमु को मेरे
ऄलतररि कुछ दीख पडता है?'
118
'हम दोनों शन्ू य में हैं?' सभु ि के प्रश्न का ऄथव था लक शन्ू य में
हमारी लस्थलत कै से सम्भव हुइ?
'शन्ू य कहीं कुछ नहीं है।' देवलषव ने समझाया - 'लनगवणु
लनराकार लनलववकार परम ब्रह्म ही पररपणू व है, ऄलद्रतीय है। लकन्तु
लनगवणु में ऄन्य सिा सम्भव नहीं। ऄपनी ऄलचन्मय योगमाया से
वही सगणु -लनराकार भी है। ईसी में सलवशेष सिा की प्रतीलत
होती है। तमु आस प्रकार समझो लक हम दोनों इश्वर में हैं।'
'इश्वर में हैं?' बािक सभु ि ठीक समझ नहीं पा रहा था।
'यहााँ माया की तो सिा नहीं है। माया का ही दसू रा नाम
प्रकृलत। ईससे ईमपन्न, ईससे स्थि
ू महिमव और ईससे स्थि ू
ऄह-ं तत्त्व। आस ऄहं के तामसाश
ं से व्योम।' देवलषव ने कहा - 'तमु
व्योम को ही ऄन्तररि कहते हो।'
'हम इश्वर में कै से हैं?' बािक ऄभी भी समझ नहीं पा रह था।
'तमु जैसे कै िाश में भगवती ईमा के ऄक ं में थे और वही
तम्ु हें कुछ दरू िे गयी थीं, देवलषव ने सीधा ढंग ऄपनाया - 'वैसे ही
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हम दोनों इश्वर में हैं। वही हमारा अधार है और हम जैसा चाहते
हैं, वैसा हमें प्रतीत करा देता है।'
'ह,ाँ तब यह कन्हाइ है। बािक हाँस पडा - 'आतना नटखट वही
है लक पास रहकर भी लछपा रहता है। खटखटु भी करता रहता है
और ऄपना पता भी नहीं िगने देता।'
'है तो वही; लकन्तु लनराकार बना हुअ है।' देवलषवने कहा -
'हम-तमु दोनों के देह, हमारी सिा भी वही है।'
'मेरी देह भी?' सभु ि ने ऄपना ईदर छूकर देखा।
'तमु ने जब पथ्ृ वी से ब्रह्मिोक पहुचाँ ने की आच्छा की, तम्ु हारा
वह प्राकृलतक-पाञ्चभौलतक देह तो ऄणओ ु ं में लबखर कर ऄदृश्य
हो गया।' देवलषव ने कहा - 'तम्ु हें तमकाि यह लदव्य देह लमिा।
आसमें न िधु ा-लपपासा है, न श्वास-प्रवास है। आस लचन्मय वपु में
व्यवहार की के वि प्रतीलत है।'
'हम लकस देश में यहााँ हैं?' बािक ने लिर पछ
ू ा।
120
'इश्वर में हैं।' देवलषवने लिर वही ईिर देकर समझाया - 'देश
और काि मझु े लववश नहीं करते। आस समय तमु भी मेरी ही
लस्थलत में हो। हम दोनों का देश-काि हमारी आच्छा के वश में है।
जहााँ लजस देश-काि में ईपलस्थत होना चाहेंगे, ईसमें ही ऄपने को
देखगें े, तब ईस देश-काि में लस्थत िोगों के साथ व्यवहार कर
सकें गे।'
'मैं पनु : पथ्ृ वी पर िौट जाना चाहाँ तो?' बािक ने लजज्ञासा
की।
'िौट सकते हो; लकन्तु के वि दो प्रकार से।' देवलषव ने
समझाया - 'आस लदव्य देह से धरा पर जाओगे तो के वि शद्ध ु
सालमवक ऄलधकारी ही तम्ु हें देख सकें गे। ईन्हीं से सम्पकव हो
सके गा। वह भी ऄलधक समय बनाये रखना तम्ु हें स्वयं ऄलप्रय
होगा। तम्ु हारी वहााँ ईपलस्थलत सलृ ष्टकताव के लवधान में व्याघात ही
बनेगी।'
'यह मैं नहीं करूाँगा।' ब्रह्माजी को लदये ऄपने वचन वह
लवस्मतृ नहीं हुअ है।
121
'तब लकसी समपरुु ष के वीयव का अश्रय िेकर लकसी माता
के ईदर से जन्म िेना पडेगा।' देवलषव ने स्पष्ट कहा - 'पाञ्चभौलतक
देह प्राप्त करने की यही प्रलक्रया है। यद्यलप ईस देह में भी तम्ु हारी
ऄलधकाश ं लदव्य शलियााँ तम्ु हारे पास रहेंगी। जब तक तमु वहााँ
कहीं असि नहीं होते, तमु स्वतंत्र हो। कमव तम्ु हें परतन्त्र कर नहीं
सकता। िेलकन तमु तो नारायण के समीप जाना चाहते हो?'
'नारायण सदा जि में ही डूबे रहते हैं?' बािक को स्मरण
अया लक नार शब्द का ऄथव जि है।
'मेरा नाम भी तो नारद है। तम्ु हें क्या अशा है लक मैं िोगों
को पानी लपिाता घमू ता होउाँगा?' नारदजी हाँसे - 'नार का दसू रा
ऄथव ज्ञान है। मैं ज्ञानदाता होने से नारद हाँ और लवशद्ध
ु ज्ञानस्वरूप
ज्ञानैकगम्य होने से भगवान नारायण हैं।'
'वे पानी में नहीं रहते?' बािक को देवलषव की व्याख्या लप्रय
तो िगी; लकन्तु वह परू ा स्पष्टीकरण चाहता था।
'वे िीरालब्धशायी हैं-गभोदशायी हैं और ईनका श्वेतदीप भी
समिु के मध्य में ही है। शेषशायी बनकर पाताि में भी वे सागर में
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ही रहते हैं।' नारदजी ने कहा - 'लकन्तु वे रमावैकुण्ठ लबहारी भी हैं
और सयू वमण्डि में तो वे ऄलग्न के भीतर असन िगाये हैं।'
बािक सोचने िगा लक आनमें से वह पलहिे कहााँ जाय;
क्योंलक एक बार आन सब रूपों में श्रीहरर को देखने का संकपप
ईसका ऄभी लशलथि नहीं हुअ था।
'तमु चाहो तो श्वेतद्रीप मेरे साथ चि सकते हो।' देवलषव ने
स्वयं प्रस्ताव लकया 'मझु े तो घमू ते रहने का व्यसन है। कहीं लकसी
एक स्थान पर मैं के वि दो घडी रुक पाता ह।ाँ मझु े दि के शाप ने
पररव्राजक बना लदया है।'
'अप मझु े सब लवष्णि
ु ोक और दसू रे िोक भी घमु ा नहीं
देंगे।' बािक ठीक सोचता है लक जब देवलषव को घमू ते ही रहना है
तो आनका साथ क्यों न कर लिया जाय।
'आससे तम्ु हारी यात्रा ऄपणू व रह जायगी।' देवलषव को एकाकी
रहना लप्रय है। वे क्यों लकसी को साथ िगावें - 'तम्ु हें ईन िोकों
की सहज लस्थलत में देखने का सयु ोग नहीं लमिेगा। सबको मेरा
समकार करने की पडती है, जब मैं लकसी के यहााँ पहुचाँ ता ह।ाँ '
123
'ईन्हें मेरा समाधान करने का भी ऄवसर नहीं लमिेगा।'
बािक को भी एकाकी यात्रा ही ईिम जान पडी। देवलषव के साथ
वह के वि श्वेतद्रीप जायगा।
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सवष्र्ु की व्यापकता-
अपने सनु ा हैं -
'र्ुक्लाम्बरधरिं सवष्र्ु र्सर्वर्ं चतुभशुजम।्
प्रसन्नवदनिं ध्यायेद् सवेसवघ्नोपर्ान्तये।।'
श्वेतवणव, चतभु जवु , श्वेत वह्लधारी स्वयं भगवान और ईनका
लनवास श्वेतद्रीप। श्वेत भी सब लहम या कपास जैसा नहीं। सब
ज्योलतमवय, सख ु द, शीति ज्योलत। ईसमें अकृलत की प्रतीलत
के वि ज्योलत के तारतम्य से।
सब शान्त। ऐसा शान्त जैसे लनलष्क्रयप्राय हो। के वि लवशद्ध
ु ।
सत्त्वगणु का घनीभाव! एकमात्र ईपासना ही वहााँ का जीवन। प्रेम
ही वहााँ प्राण। श्रीनारायण के साथ वहााँ िक्ष्मी भी नहीं।
वहााँ बोिने, चिने की जैसे प्रवलृ ि भी है तो स्तवन, पररक्रमा
मात्र के लिए और ऄनन्त गाम्भीयव लिये।
देवलषव वहााँ पहुचाँ ते ही शान्त हो गये। मक
ू हो गयी ईनकी
वीणा। वे ऄपिक लस्थर दशवन करते रहे। वहााँ वे जब अते हैं,
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दशवन ही करने अते हैं। यहााँ अकर बोिने की वलृ ि ही नहीं रह
जाती।
सभु ि न धरा का और न ब्रह्मिोक का। यह बािक गोिोक
का। ऄतः आस पर जैसे कहीं का प्रभाव पडता ही नहीं। आसका
सहज स्वभाव अच्छन्न नहीं होता।
'बाबा! यहााँ दलधभाण्ड में तैरती नवनीत की बंदू ों जैसे ही सब
हैं?' नारदजी का हाथ लहिा लदया ईसने - 'के वि चमकती बदू ें
िगते हैं।'
'वमस!' जिदगम्भीर स्वर सनु पडा। जैसे ऄमतृ ही स्वर बन
गया हो। देवलषव तो मौन शान्त खडे थे; लकन्तु बािक को भगवान
नारायण ने स्वयं ईठकर ऄपनी लवशाि भजु ाओ ं में ईठा लिया।
'बाबा! अप?' बािक को िगा लक ईसे प्रणाम करना
चालहये थीं; लकन्तु ऄब तो वह ऄक
ं में पहुचाँ चक
ु ा था।
'सलृ ष्टकताव और प्रियंकर के समान पािक कोइ व्यवस्था
करके पथृ क नहीं बैठ सकता।' भगवान ने स्वयं समझाया -
'पािनकताव को सदा साथ रहना पडता है। ऄत: मैं प्रमयेक
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ऄतं :करण में ऄन्तयावमी रूप में रहता ह।ाँ पि-पि सम्हािता
रहता हाँ प्रवलृ ि के िेत्र में प्राणी को।'
'यहााँ अप कुछ करते हैं?' बािक का स्वभाव तो तमु कहने
का है; लकन्तु ये शलशवणव नारायण ईसे ऄपररलचत िगते थे। आनसे
संकोच होता था ईसे।
'यह समलष्ट के लवशद्धु ऄन्तकरण को तमु देख रहे हो।'
नारायण भगवान् ने बतिाया - 'लवशद्ध ु होने पर समव श्वेत
ज्योलतमवय होता है। ऄमयन्त लवशद्ध
ु ऄन्त:करण प्रेमैक प्राणों का
मैं यहााँ पोषण करता ह।ाँ िेलकन तम्ु हें मेरे प्रलतपािक रूप को
देखना है, तब सयू वमण्डि में ईसका सािात् करो।'
सभु ि को पता नहीं लक देवलषव कब तक श्वेतद्रीप में वैसे ही
लस्थर खडे रहे। ईसे श्रीनारायण के ऄक
ं से ईतरने का भी ऄनभु व
नहीं हुअ। ईसे िगा के वि यह लक ईसके चारों ओर ऄमयन्त
प्रचण्ड तेज - ऄमयग्रु ज्वािा है। ऐसी ज्वािा लजसमें पाषाण,
िौह पिक झपकते भस्म हो ईठे ; लकन्तु ईसे वह ईष्णता सख ु द
िगती है।
127
वह ऄब भी नारायण के ऄक ं में ही है; लकन्तु नारायण
गगननीि, लवद्यदु वसन चतभु जवु हैं। ये कमििोचन ऄरुणपद्म पर
असीन हैं ईसे ऄक ं में िेकर। ऐसा िगता है लक ये लकसी रथ पर
बैठे हैं। आनका ऄमयरुण सारथी आनके अगे बैठा है।
'वमस! ईष्णता ही जीवन है।' भगवान ने कहा - 'गलत, शलि,
प्रकाश ईष्णता के ही पयावय हैं। सलृ ष्ट रहेगी ही नहीं, यलद रजोगणु
ईसे सलक्रय न रखे। शद्ध
ु रजस का के न्ि यह मेरा सयू वमण्डि।'
'बाबा! सनु ा लक अपके आसी धाम से प्राणी मि ु होता है।'
बािक ने पछ
ू ा - 'कौन अते हैं यहााँ अपके समीप?'
'लनरुद्धवलृ ि समालध से शरीर मयाग करने वािे योगी और
धमवयद्ध
ु में सम्मख ु मरण को वरण करनेवािे शरू ।' भगवान सयू व
नारायण ने समझाया - 'देहासलि ही बन्धन है। शरीर की असलि
का मि ू ोच्छे द हो गया तो मनष्ु य मि
ु तो हो ही गया। यहााँ अकर
ईसका अकार का मोह भी भस्म हो जाता है।'
'मेरा ही एक नाम लहरण्यगभव है।' भगवान सयू व ने स्वयं
बतिाया - 'मेरे आस मंडि का ही एक पष्ठृ ब्रह्मिोक है। तमु मेरे
समीप वहााँ पहुचाँ चक
ु े हो। सलृ ष्ट में जीवन की सलृ ष्ट मेरी रलश्मयों
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की ईष्णता ही करती है और मैं यहााँ आस रूप में ऄपनी उष्मा से
पोषण करता ह।ाँ प्रालणयों के नेत्रों का ऄलधदेवता होकर ईन्हें
प्रकाश देता ह।ाँ '
'आतना तेज, आतना ईग्र प्रकाश?' बािक को सन्देह हुअ।
'तमु ठीक सोचते हो।' सयू व भगवान ने कहा - 'प्रियंकर भी मैं
ही ह।ाँ रुििोक मेरा दसू रा पष्ठृ है। रुि भी मेरा ही रूप है। मैं ईन
लशव की एक मलू तव ह;ाँ लकन्तु वह रूप पणू व सलक्रय प्रिय के समय
होता है। सलृ ष्ट के सञ्चािन-पािन के लिए उजाव का ईद्गम हाँ मैं
और उजाव ईग्रतेज का ही दसू रा नाम है।'
'तम्ु हारे सक
ु ु मार शरीर और नवनीत मदृ ि
ु स्वभाव के
ऄनरूु प यह िोक नहीं है।' भगवान् सयू व ने स्वत: आसे िलित
लकया था, ऄत: कहा - 'तमु को िीरालब्ध लप्रय िगेगा। वहााँ तमु
लसन्ध-ु सतु ा का स्नेह प्राप्त कर सकोगे।'
'ऄम्बा यहााँ भी नहीं हैं?' बािक ने पछ
ू ना चाहा था; लकन्तु
ईसे ऄवकाश नहीं लमिा। ईसे ऄन्यत्र भेजने से पवू व के वि
वामसपयलसि भगवान् सयू व ने कहा था - 'धरापर तमु मेरे कुि में
अओगे तब मैं ही तम्ु हें तम्ु हारे सखा के समीप पहुचाँ ाने की
129
प्रेरणा-माध्यम बनाँगू ा। लनलखि बलु द्धवलृ ि का मैं प्रेरक ह,ाँ यह शलि
साथवक हो जायेगी तम्ु हें प्रेररत करके ।'
'अहा!' बािक ईपिलसत हो ईठा ऄनन्त ऄपार दग्ु धलसन्धु
देख कर। ईिाि तरंगायमान िीरोदलध के ऄन्तराि से लस्नग्ध
ज्योलत जैसे प्रकट हो रही थी।
वहााँ ऄपार लवस्तीणव सौध था; लकन्तु ईसे दग्ु ध तरंगों ने ही
लनलमवत लकया था। ईसमें तरंगें ही भलू म, स्तम्भ, छत अलद सब थी
और ईस सौध में सज्जा थी। कहना कलठन था लक ज्योलतमवय
मिु ा-िलडयााँ िटक रही थीं या नवनीत के ईज्ज्वि लबन्दु सजे
थे।
कमितन्तु श्वेत सहह्ल िण ईठाये भगवान् शेष लस्थर थे।
ईनके मस्तक की मलणयों के प्रकाश से दग्ु धरालश ऄमयलधक
ईज्ज्वि हो रही थी।
ईस दग्ु ध सौध में, ईन ईज्जवि शेष की सदु ीघव कुण्डिीभतू
देह पर एक घनश्याम, पीताम्बरधारी, रमनमक ु ु टी, चतभु जवु मन्द-
मन्द मस्ु कराते चरण िै िाये अधे िेटे थे।
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'ऄम्ब!' ईन परमपरुु ष के प्रिुपि पद्म पादारलवन्दों को ऄक
ं
में लिये जो सौन्दयव, सौष्ठव, सौकुमायव की ऄलधदेवता लसन्धसु तु ा
लवराजमान थीं, ईन्हें देखते ही बािक ने पक ु ारा और भजु ाएाँ
िै िाकर दौडा ईनकी ओर।
'वमस!' ईन श्री ने भी परमपरुु ष के चरण ऄक
ं से नीचे रखे
और ऐसे दौडीं दोनों कर िै िाये जैसे के वि अतरु जननी दौड
सकती है।
'तमु ने मझु ऄजातपत्रु ा को पत्रु वती बताया।' ईसे ऄक
ं में
िेकर लसन्धतु नया की वाणी गद्गद हो ईठी। ईनका विावरण
भीगने िगा वामसपय की धारा से। ईन्होंने ही ईसका मस्तक
शेषशायी के श्रीचरणों से स्पशव कराया।
'बाबा तमु यहााँ दधू में सोते हो?' बािक को यहााँ तलनक भी
सक ं ोच नहीं िगा। ईसे िगता था लक ईसका नटखट कन्हाइ ही
यहााँ आतना बडा बनकर िेट गया है। ईन ऄनन्तशायी का श्रीऄगं
ऄनेक स्थानों पर दग्ु ध एवं नवनीत लवन्दु पडने से चन्दन-चलचवत
िग रहा था। बािक सहज भाव से शेष की कंु डिी पर अगे बढ़
गया और ईदर देश पर पडी नवनीत की बाँदू को ऄपने नन्हें कर से
िै िाता बोिा।
131
'यह लकलञ्चत् रजोलमलश्रत समवधाम है।' ऄनन्तशायी
समझाने िगे स्नेहपवू वक - 'सलृ ष्ट के सब लशशओु ं को ईमपन्न होने
के साथ दधू चालहये। ईनकी माताओ ं के स्तनों में दधू ईनका स्नेह
बनता है। यह सागर ईस वामसपय स्नेह की समलष्ट और लशशु बडे
होते हैं, तब ईन्हें शोभा, सम्पलि, सयु श देकर पािन करने वािी
तम्ु हारी ये ऄम्बा।'
'करते सब ये अलदपरुु ष हैं।' भगवती श्री ने कहा - 'आनका
ऄनक
ु म्पापणू व दृलष्टपात पाये लबना मैं कुछ कर नहीं पाती। वैसे ये
सहज लनलष्क्रय ही दीखते हैं।'
परुु ष तो भोिा ही रहता है। िेलकन ईसका भोिापन भी भ्रम
है। वह के वि िष्टा है। ईसकी प्रसन्नता के लिए परमेश्वरी प्रकृलत
का सम्पणू व सम्भार है।
'ऄनन्त ब्रह्माण्डों के पािन में तमु को श्रम नहीं होता?'
बािक ने श्री की ओर देखा।
132
'ये परमपरुु ष और मैं भी के वि आस ब्रह्माण्ड के पािक-पद
पर हैं।' रमा ने स्नेहपवू वक कहा - 'तमु परम पािक के समीप भी
पहुचाँ सकते हो। हम तो ईनके ऄश ं हैं।'
बािक को कुछ लवशेष ऄनभु व नहीं हुअ। वह
िीरालब्धशायी के समीप से गभोदशायी महालवष्णु के समीप पहुचं
गया है, यह भी ईसने ऄनभु व नहीं लकया। ईसने ध्यान ही नहीं
लदया लक ऄब तक लजनके समीप है वे ऄष्टभजु हैं।
ऄवश्य ही वहााँ सयू वमण्डि से भी ऄनेक गलु णत ऄलधक
प्रकाश है; लकन्तु वैसा ईग्र नहीं। बहुत सौम्य, शीति भी नहीं
श्वेतदीप के समान और ईग्र भी नहीं।
'ऄम्ब!' बािक ने ईन भमू ापरुु ष के चरणों के समीप असीना
लसन्धतु नया की ओर देखा - 'तमु आन परमपरुु ष के समीप ही बैठी
रहती हो?'
'मैंने कभी तम्ु हारी ईपेिा की है?' भगवती श्री ने स्नेहपवू वक
देखा - 'मैं तो आनसे परांमख ु ों की भी ईपेिा नहीं करती। िेलकन
मेरी प्रीलत का प्रसाद पीडा तो नहीं होना चालहये।'
133
'ऄम्ब, तमु लकसी को पीडा दे कै से सकती हो।' बािक को
ऄपनी दयामयी ऄम्बा पर लवश्वास है - 'तमु तो के वि स्नेहमयी
हो।'
'क्या करूाँ, बािक मचिते हैं तो मझु से देखा नहीं जाता। मैं
दौड जाती हाँ ईन तक। आसी से आन्होंने मेरा नाम चंचिा रख लदया
है। परमपरुु ष की ओर तलनक कटािपवू वक देखा ईन लसन्धतु नया ने
- 'िेलकन वे ऄज्ञ मेरे प्रसाद का दरुु पयोग करते हैं। ऐलन्ियक भोग
में िगकर रोग, ऄशालन्त, ऄध:पतन को अमन्त्रण देते और भव
में भटकते हैं।'
'आसी से मैं आनका प्रसाद ऄथावत् सम्पलि ऄपने लप्रय जनों तक
कम ही पहुचाँ ने देता ह।ाँ तमु तो जानते हो लक आनका वाहन ईिक ू
है।' आस बार परम परुु ष सहास्य बोिे - 'आनकी कुछ खटपट है
भगवती वीणाधाररणी से। ऄतः ये जाती हैं तो ऄहक ं ार दे अती हैं
और वे लदव्या दरू चिी जाती हैं।'
'ऄम्ब! अप दौड दौडकर आतना श्रान्त होती हैं।' बािक में
ऄपनी ऄम्बा से सहानभु लू त जागी - 'अप यहीं ऄच्छी हैं।'
134
'मैं कहााँ देवी सरस्वती से द्रेष करती ह।ाँ मैं तो ईनके अलश्रत
की भी पालिका ह।ाँ ' भगवती श्री ने परमपरुु ष के कटाि का
प्रलतवाद लकया - 'मेरी सचमचु प्रीलत वे पाते हैं जो आन परुु षोिम के
चरणालश्रत हैं। मैं स्वयं आनके श्रीचरणों को छोडकर कहीं नहीं
जाती। आन्होंने मेरे लिए एक िोक ही बना लदया है।'
'ऄम्ब! वह तम्ु हारा अनन्द िोक है?' बािक ने पछ
ू ा।
'तम्ु हारे लिए ऄगम्य नहीं है।' भगवती श्री का यह कहना
पयावप्त था। बािक भमू ापरुु ष के समीप से रमा-बैकुण्ठ पहुचाँ गया।
सौभाग्य की बात लक रमा-बैकुण्ठ में लदन का समय था। रालत्र
होती तो भगवती रमा के साथ के वि गन्धवव कन्याएाँ दीखती। आस
समय वे गन्धवों के साथ परमपरुु ष की ऄचाव में िगी थी।
'ऄम्ब! यहााँ क्या करती हो तमु ?' बािक लबना सक
ं ोच
समीप पहुचाँ गया।
'बडी तीव्र आच्छा थी ऄपने आन अराध्य की ऄचाव करने की।
आन्होंने मेरे लिए यह िोक ही बना लदया। मैं यहााँ ऄहलनवलश आनकी
ऄचाव करने को स्वतन्त्र हो गयी। यहााँ और कोइ कायव मेरे पास
135
नहीं।' भगवती िक्ष्मी ने कहा - 'लकन्तु मझु े ऄचाव से न तलृ प्त होती
है न सन्तोष। तमु ऄच्छे अ गये। तमु तो मायातीत िोक के हो,
तमु कुछ बतिाओगे?'
'ऄम्ब, यह िोक तो अपका ईपासना मलन्दर है।' बािक को
िगा लक मलन्दर में ऄलधक देर रहना ऄच्छा नहीं। ऄचवकों को
वहााँ रहना चालहये। 'हम सबों को भी कन्हाइ को सजाने में कभी
सन्तोष नहीं होता।'
भलि में-प्रीलत में, सेवा में सन्तलु ष्ट तो तब हो जब आनकी
सीमा होती हो। िेलकन यहााँ ऄम्बा ऄचाव में िगी रहती हैं तो
बािक को यहााँ से लवदा होना चालहये या मौन बैठना चालहये।
136
सौम्य र्ेष-
ऄनन्त भगवान, आन्हीं को शेष कहते हैं। ऄवश्य ये सक
ं षवण
के , दाउदादा के ऄश ं हैं; लकन्तु यही तो अकषवण की सिा हैं,
ऄत: ये संकषवण हैं।
कमितन्तु श्वेत, वैसे ही चमकते और पारदशी न होनेपर भी
पारदशी-जैसे िगते सहह्ल िण शेष। ऄनन्त अकषवण की जो
सिा हैं, धरा ईनके ही एक लसर पर, एक धारा पर तो धरी है। शेष
को साकार पाने का प्रयमन मानव करे तो ईसकी मख ू तव ा होगी।
समिु के ऄलधदेवता वरुण को या ऄपने गहृ -देवता को ही देख
पाता है वह? भगवान शेष अकषवण शलि के ऄलधदेवता हैं, यह
सीधी बात भी मनष्ु य समझता नहीं।
सभु ि तो पालथवव शरीरी सामान्य लशशु नहीं था। वह पाताि
पहुचाँ ा आच्छा करते ही। भावदेह ही तो भाविोक पहुचाँ ता है।
लजनके एक लसर पर सरसों के दाने के समान धरा धरी हैं,
ईनके लसर का लवस्तार अप सोच िें। वैसे सहह्ल िण और ईन
िणों में ज्योलतमवय मलणयााँ, प्रमयेक लसर में मलणयों के समान ही
जिती दो-दो अाँखें और िप-िपाती मख ु से लनकिी दो दो
137
लजह्ऱाएाँ। िेलकन ऄमयन्त शान्त, लस्थर भगवान् शेष। ईनके शरीर में
कम्प का नाम नहीं।
नाग कुमाररयााँ ईन ऄनन्त के ईज्जवि सलु चक्कन शरीर में
ऄगं राग िगाने में तन्मय थीं। कुछ ऊलष समीप स्तलु त कर रहे थे।
स्वयं भगवान् शेष गायन कर रहे थे। हररगणु गान ही ईनका
परमलप्रय व्यसन है।
'दादा!' सभु ि प्रसन्न हो गया। ईसे कुछ ऐसा िगा लक यह
नाग देह तो अवरण है। आसमें स्पष्ट गौरवणव, नीिवसन, एक कणव
में कुण्डि पलहने, कन्धे पर ऄष्ट धातु का हि धरे ईसके ऄपने
दाउ दादा बैठे हैं। वह पक ु ारकर भी दौड नहीं सका। ईसने देखा
लक जैसे दादा के ऄक ं में ईसका कन्हाइ ही िेटा है।
कन्हाइ तो चतभु जवु नहीं है। यह तो भमू ापरुु ष जैसे कोइ हैं;
लकन्तु ऄष्टभजु नहीं हैं। ये पीताम्बर पहने, ऄधिेटे भिे कन्हाइ
जैसे हैं; लकन्तु चतभु जवु हैं।
'तमु समीप नहीं अओगे?' भगवान् शेष ने स्नेहपवू वक पक ु ार
लिया - 'आतनी दरू क्यों रुक गये? देख ही रहे हो लक मैं लहि नहीं
सकता।'
138
'दादा! तमु यहााँ क्या करते हो?' वह समीप पहुचाँ कर ईन
नीिवसन सक ं षवण का हाथ पकडकर बोिा - 'ऐसे लबना लहिे
उबते नहीं?'
सहह्लिण शेष का संगीत चिता रहा। नाग कुमाररयों की
ओर ईसने देखा नहीं और स्तलु त करने वािे ऊलष-मलु नयों की ओर
तो ईसकी पीठ हो गयी थी। के वि संकषवण के ऄक ं में िेटे
सक
ु ु मार नीिसन्ु दर को वह बार-बार देख िेता था।
'तमु लवष्णि
ु ोक ही तो देखने लनकिे हो।' ईन नीिसन्ु दर ने
आस बार कहा - 'मझु े पलहचान िो और ऄपने आन दादा को भी।
पािक को धारण-पोषण दोनों करना पडता है। िीरालब्ध में मैं
पोषणकताव हाँ और यहााँ हम दोनों धारक हैं। धारक को लनष्कम्प
तो रहना ही पडता है। मैं दादा के ऄक ं में लस्थर न रहाँ तो ये ईग्र हो
ईठते हैं। ईनकी िूमकारें ज्वािामख ु ी बनकर िूटने िगती हैं।
आनके रोष से रुि प्रकट हो जाते हैं और लत्रशि ू ईठाये प्रिय करने
दौड पडते हैं।'
139
'तमु चतभु जवु हो गये; लकन्तु तम्ु हारा नटखटपन गया नहीं।'
सभु ि हाँसने िगा - 'दादा लकतने तो सौम्य हैं और तमु आनको दोष
दे रहे हो।'
'भि! ये समीप रहते हैं तब में आनको देखने में ऄपने-अपको
भिू ा रहता ह।ाँ ' संकषवण ने ही कहा - 'आनको देखने से तलृ प्त ही नहीं
होती। वैसे सपव की क्या सौम्यता। ईग्र एवं क्रूर स्वभाव है मेरा।'
'दादा, तमु भी बहकाने िगे?' सभु ि ने ईपािम्भ लदया - 'तमु
कब क्रोध करते हो?'
'भिे मेरा स्वभाव क्रोधी हो' शेष ने स्वीकार लकया - 'तमु
जैसे सखा सम्मख ु हों तो मझु े कभी क्रोध नहीं अवेगा।'
'ये ज्ञानघन ही तम्ु हारे गरुु हैं।' सक
ु ु मार ईन चतभु जवु
श्यामसन्ु दर ने कहा - 'समस्त जीवों के यही गरुु हैं और गरुु
दयामय होने के साथ शास्ता भी होते हैं।'
'िेलकन तम्ु हारे साथ मेरा यह सम्बन्ध नहीं है।' संकषवण ने
प्रलतवाद लकया - 'हम सखाओ ं में कोइ गरुु -लशष्य या बहुत बडा-
140
छोटा नहीं हुअ करता। के वि लकंलचत बडे-छोटे का ऄन्तर। मैं
तम्ु हारा बडा भाइ।'
'हााँ, तू तो दादा है।' सभु ि तमु कहना भी भि
ू गया; 'लकन्तु
दादा! तू मझु े लसखिावेगा नहीं? मैं लकसी दसू रे को गरुु बनाने
भटकाँू गा?'
'तम्ु हें भटकना कहााँ है?' भगवान संकषवण बोिे - 'तमु
स्वेच्छा से भव में जा रहे हो। वहााँ भी समय अने पर मैं तम्ु हें
सम्हाि िाँगू ा।'
'ऄब तो तमु लनलश्चन्त हो गये?' नीिसन्ु दर ने आस बार कहा।
'िेलकन मैं ऄभी हाँ कहााँ?' सभु ि ने ऄब आधर-ईधर देखा।
नीिवसन सक ं षवण जैसे शेष का अवरण ओढ़े हों। वे सहह्लिण
शेष - भिे वे सौम्य हैं, शान्त हैं, लकन्तु आतने लवशाि सजीव सपव
के समीप खडे रहना ऄटपटा िगा भि को। ईसने छूकर देखा शेष
के ईस श्वेत शरीर को और सोचा - 'आतना शीति होता है सपव
और ऐसा लगिलगिा, आसीलिए सम्भवतः आन पीतवसन को यह
शय्या लप्रय है।'
141
'तमु पाताि में हो।' भगवान शेष ने ही कहा - 'पथ्ृ वी का
ऄन्तराि सप्तावरणाममक है। यह ऄलन्तम अवरण। आसे भ-ू के न्ि
कह सकते हो। आसी से मैं आसके अकषवण का ऄलधष्ठाता बना,
आसका धारक ह।ाँ '
'पाताि में भलू म के मध्य ऄन्तराि में!' सभु ि कुछ सोचते
हुए स्वयं बोि गया - 'मषू क के समान लबि बनाते मझु े बाहर
जाना पडेगा?'
'तमु लकसी लववर-द्रार से तो यहााँ अये नहीं।' शेष ने ही
समझाया - 'भगवती रमा या श्रीनारायण ने भी तम्ु हें नहीं भेजा।
तमु वहााँ ऄब भी जा सकते हो। तम्ु हारे आस लदव्य देह को देश या
काि तो बाधक बनता नहीं। िेलकन तमु यहााँ अ गये हो तो भ-ू
लववरों को भी देखते जाओ। भगवान वामन तम्ु हें देखकर प्रसन्न
होंगे। मय और बलि से लमिकर तम्ु हें प्रसन्नता होगी। जहााँ तम्ु हें
ऄच्छा न िगे, तम्ु हें कोइ नहीं रोके गा।'
'आन भ-ू लववरों में ही नागिोक है। ऄमतृ कुण्ड है वहााँ!'
ऄनन्तशायी ने सलस्मत कहा।
142
'मझु े नागों का जठू ा ऄमतृ नहीं चालहये।' सभु ि ने मख
ु
बनाया - 'ऄमतृ का वास्तलवक किश ऄमरावती में है, जानता
ह।ाँ '
'भगवान वामन ही वहााँ ईपेन्ि हैं।' शेष ने कहा - 'तमु ऄमतृ
पीना चाहोगे तो तम्ु हारे लिए वह ऄिभ्य नहीं रहेगा। िेलकन
.....।'
'ऄमतृ पीकर मझु े यहीं कहीं ऄटके नहीं रहना।' सभु ि ने
स्पष्ट कह लदया - 'सरु ों का वह ईलच्छष्ट न भी हो, तब भी तो शरीर
में ऄटकाता ही है। मेरा कन्हाइ मेरी प्रतीिा करे गा।'
'तम्ु हारा लनणवय सदृु ढ़ रहे।' शेष ने सप्रु सन्न अशीवावद दे
लदया।
143
दानवेन्द्र मय-
'ऄमतृ की अवश्यकता अपको नहीं है, हम यह जानते हैं।'
सभु ि भगवान शेष के समीप से पाताि पहुचाँ ा तो ईसे ऐसा िगा
लक यहााँ ईसके स्वागत की तैयारी हुइ है। नागराज वासलु क ऄनेक
नाग-प्रमख
ु ों के साथ सामने ही लमिे - 'हम तो ईपकृत होंगे यलद
अप हमारा यह ईपहार स्वीकार करें गे।'
ऄनेक लसरोंवािे नागों से भरा वह पाताि िोक। आतने
लवशाि ईनके वे मोटे िम्बे देह लक ईनमें एक भी पथ्ृ वी पर अ
जाय तो परू े महानगर को मख ु खोिते ही लनगि जाय। िेलकन
सभु ि ऄभी सहह्ल शीषव शेष के समीप से अया है। ईनके सम्मख ु
तो ये वासलु क भी ऄमयन्त साधारण सपव से िगते हैं।
'अप देखते ही हैं लक मैं ऄभी ऄनन्तशायी के समीप से अ
रहा ह।ाँ ' सभु ि बािक सही; लकन्तु लवनम्र है - 'मैंने सनु ा है लक
समिु -मन्थन में अप मन्दराचि में लिपटे मन्थनरज्जु बने थे।
सबसे ऄलधक कष्ट अपने सहा। ऄमतृ अपका ईलचत भाग था।
सरु ों ने अपको ऄमतृ देकर कोइ ईपकार नहीं लकया।
144
'अप मझु े िमा करें ।' दो िण रुककर वह लिर बोिा -
'अपका ऄनग्रु ह ही मेरे लिए बहुत है। ऄमतृ पीकर ममयवधरा पर
जाना लवडम्बना होगी।'
'अपका शीि है लक अपने नहीं कहा लक यहााँ का ऄमतृ
हमारा ईलच्छष्ट है। हमारे हाथ तो हैं नहीं लक हम ईसे पथृ क पीते।
सीधे मखु डािकर चाट िेना हमारा स्वभाव है।' वासलु क ने
स्वीकार लकया - 'हमारे लवष-लमश्रण से यह मादक बन गया है।'
सच यह है लक सभु ि को ऄनभु व ही नहीं लक मादक क्या
होता है। कोइ जानबझू कर ऄपनी बलु द्ध को खोना चाहेगा - भिे
कुछ िणोंके लिए ही हो, यह वह सोच ही नहीं सकता।
'अप सब यहााँ भलू म के ऄन्तराि में रहते हैं।' नागों की
मलणयों और ईनके ऐश्वयव में ईसे कोइ अकषवण नहीं। ईसे वासलु क
पर दया अ रही है - 'ऄमतृ -मन्थन में मन्दर के घषवण के घाव भिे
ऄमतृ पान से लमट गये; लकन्तु ईनके लचह्न ऄब भी अपके शरीर
पर हैं।'
'ये तो मेरे सौभाग्य-सचू क हैं।' ऄब वासलु क ने ऄपनी पाँछ ू
घमु ाकर लदखायी - 'मेरे लसर और आस पाँछ ू को ऄपने हाथों में स्वयं
145
श्रीहरर पकडे रहे ऄलधकाश ं मन्थन के समय। सरु ों और ऄसरु ों ने
तो के वि हाथ िगाया। ये सब ऄपपप्राण लसद्ध हुए। वे भमू ापरुु ष
मन्थन न करते तो सधु ा लनकिनी थी। मैं ऄमतृ न भी पाता, ईन
सववश्वर के कर-स्पशव से ही स्वस्थ हो गया था।'
'अप ऄब ऄनमु लत दें।' सभु ि ने ऄपने नन्हें करों से वासलु क
का शरीर सहिा लदया।
पथ्ृ वी के भीतर ये महानाग - ये प्राण के , बि के ऄलधदेवता
न हों तो धरा में धारक शलि कहां से अवे?
रसाति में लहरण्यपरु लमिा; लकन्तु ईस स्वणवपरु ी के लनवासी
लनवात-कवच दानवों ने सभु ि की ओर ध्यान ही नहीं लदया।
लनलश्छि कवच चढ़ाये वे ऄपनी भोगपरु ी में मदोन्मि घमू ते दीखे।
बािक सभु ि को ईनमें कोइ रुलच नहीं थी।
महाति में भी वह रुका नहीं। ईसके पहुचाँ ते ही वहााँ के नागों
ने लसर ईठाकर, िण िै िाकर िूमकार छोडी।
'अप महाति के हमारे सजालतयों पर क्रोध मत करना!'
पाताि से चिते समय वासलु क ने प्राथवना की थीं - 'ईनके परू े
146
समदु ाय का नाम ही क्रोधवश है। पथ्ृ वी पर ऄपार लवष ईमपन्न
होता रहता है। वह ऄहलनवलश भतू ि को महालग्न में पररपक्व होकर
कुछ ही उपर जा पाता है और वहााँ लवष-धातु तथा लवषैिी
वनस्पलतयों में ईपिब्ध होता है। शेष महाति सीधे दानवेन्ि भेज
देते हैं। सलृ ष्टकताव ने ईसे नागों का अहार बनाया है; लकन्तु ईसके
सेवन से वे क्रोधोन्मिप्राय रहते हैं।'
सभु ि को शेष के सम्मखु तो आस िोक के ऄनेक लसर नाग
कें चएु जैसे िगे। ये सब पाताि के वासलु क तथा ईनके बन्धओ
ु ं से
पयावप्त छोटे थे। बािक को कौन बतिाता लक तिक जैसे ऄमयन्त
लवषैिे आनमें प्रायः सब हैं और तिक ही आनका नायक है। ये
अकार में भिे वासलु क प्रभलृ त से छोटे हों, आनका लवष ऄमयन्त
दारुण है।
कोइ कह देता लक कालिय नाग भी आन्हीं में है तो सभु ि
ऄवश्य ईस शाँतकशीषाव को ढूाँढ़ता। कन्हाइ ईसके िणों पर
लथरकता लिरा था। कन्हाइ का यह सखा नागों से डरना क्या जाने;
लकन्तु आनमें ईसे रुलच नहीं थी। आन्हें ईलद्रग्न करने के लिए क्यों रुके
वह यहााँ?
147
तिाति में ईसे दानवेन्ि मय लमि गये। वह चलकत रह गया।
ईस जैसे नन्हें बािक को ये दानव लवश्वकमाव आस प्रकार भलू म में
पडकर क्यों प्रलणपात करते हैं?
'बाबा! ईठो तमु ।' सभु ि ऄपने छोटे करों से ईन वज्र ककव श
काय, सदु ीघव शरीर को ईठा तो सकता नहीं था। ईसने ईनके
घघाँु रािे के शों से मलण्डत मस्तक को छू लदया।
कज्जि कृष्ण वणव भी आतना भव्य, आतना सन्ु दर होता है,
कोइ सोच नहीं सकता। लवशाि िोचनमय धीरे से ईठे । बािक के
पदों का मस्तक से स्पशव लकया ईन्होंने और हाथ जोडकर सम्मख ु
खडे हो गये। ईनके नेत्रों से ऄश्रु झर रहे थे। शरीर कलम्पत था।
रोम-रोम ईठा हुअ। वाणी बोिने में ऄसमथव हो रही थी।
'अप यह क्या कर रहे हैं?' सभु ि ने ईन महालशपपी के
ऄञ्जलि बााँधे दोनों कर पकड लिये।
'यह महामायावी दानव अज पलवत्र हो गया।' मय ने लकसी
प्रकार कहा - 'मय का जीवन श्रीकृष्ण का दान है। यह खाण्डव के
दावानि से बच भी जाता तो पाथव के बाण ऄवश्य लवद्ध कर देते
148
यलद तम्ु हारे मयरू मक
ु ु टी ने आसकी शरण की अतव पक
ु ार सनु न िी
होती।'
'आसमें क्या हो गया! कन्हाइ ने कौन-सा बडा काम कर लदया।
यह तो ईसे करना ही चालहये था।' सभु ि को मय बहुत शािीन
िग रहे थे - 'अप ऄब तक यह नन्हीं बात भि ू े नहीं।'
'मैं दानव ह।ाँ ईपकार स्मरण रखना दानव का स्वभाव नहीं
होता; लकन्तु वे घनश्याम तो ऄपना कर छोडना नहीं जानते।
ईन्होंने ऄपनाया, तभी तो ऄपने लप्रयजन के दशवन का सौभाग्य
लदया।' मय भाविब्ु ध थे - 'अप तो मेरे अराध्य लपनाकपालण के
भी लप्रय हैं। ऄपने चरणों के ऄचवन का सौभाग्य दें आस दानव को।'
चाहे लजतना सकं ोच हो, सभु ि समझ गया लक दानवेन्ि का
अग्रह स्वीकार करना ही पडेगा। िेलकन ईनके सदन में जाकर वह
चौंका। सदन ऐसा नहीं था जैसा दानव लवश्वकमाव का होने की कोइ
कपपना करे । कठोर-सलु स्थर किा का भी कहीं नाम नहीं और
वैभव का चाकलचक्य भी नहीं।
'अप यहााँ तपस्या करते हैं?' जब मय लवलधपवू वक ईसका
पजू न कर चक
ु े , तब ईसने पछ
ू ा। आसलिए पछू ा; क्योंलक मय ने
149
श्रलु त के सस्वर पाठ सलहत ईसकी ऄचाव की थी। आसलिए पछ ू ा,
क्योंलक वह दानवेन्ि के सदन की ऄपेिा कोइ मलन्दर ऄलधक
िगता था। आसलिए पछ ू ा, क्योंलक वहााँ ईसे श्रद्धा, सालमवकता
साकार िगती थी।
वहााँ किा थी, सजावट थी, मलण-रमन भी थे; लकन्तु सब
होने पर भी बहुत सादगी िगती थी। बहुत सौम्य सज्जा थी।
िगता था लक एक-एक ऄणु यहााँ ऄमयन्त श्रद्धा से सजाया गया
है।
'दानव तप भी करे तो सलृ ष्ट के लिए ददु वै ही िावेगा।' मय
खि ु कर हाँसे - 'लकन्तु भगवान भतू नाथ ने ऄपने आस अलश्रत को
ऄपनाया तो आसकी भोगेच्छा मर गयी। मैंने पत्रु ों के मोह में पडकर
लत्रपरु -लनमावण का पाप लकया - लवनाश के साधन दे लदये दानवों
को और मेरे करुणामय अराध्य ने आतने पर भी मझु े वीरभि को
भेजकर बचा लदया।1 मैं ईनका हाटके श्वर ज्योलतलिंग िेकर चिा
अया यहााँ। यह मेरी ऄचवना का स्थान है। यह ईन महेश्वर ने मझु
लदया है। आसे मैं भोग भलू म बनाने का प्रमाद तो नहीं कर सकता।'
1
लत्रपरु -दहन चररत ‘लशव चररत’ में गया है।
150
'यलद अप ऄलधकारी समझें मझु े' सक ं ोचपवू वक सभु ि ने कहा
- 'भगवान् हाटके श्वर के दशवन कर िाँू मैं।'
अराध्य लवग्रह ऄचवक का ऄपना होता है। ईस रूप में
अराध्य ईसके सववथा ऄपने हैं। वहााँ दसू रे लकसी का - अराध्य
के ऄलभन्न पररकरों का भी प्रवेश ऄचवक की ऄनमु लत के लबना
ऄनलु चत है।
'अप ऄचवन नहीं करें गे?' मय ने भी संकोचपवू वक ही पछ
ू ा-
'दानव की अराध्यमलू तव होने पर भी ज्योलतलिंग है वह।'
'यहााँ लवपवपत्र और पष्ु प....' सभु ि ने पछ ू ा। ईपयि
ु ईिम
सामग्री न प्राप्त हो तो पजू न में ईसकी रुलच नहीं होती।
'अप भि ू ही गये लक यह दानव मायावी है और' मय
खिु कर पलहिी बार हसें - 'लवश्वकमाव का सस्ं पधी भी है यह। अप
नीिोमपिों से ऄचाव करें गे या रमनकमिों से?'
'रमन तो कठोर और लनगवन्ध होते हैं।' सभु ि को स्वणव, रमन,
मलण कभी भव्य या मपू यवान नहीं िगे। 'सगु लन्धत, सरु ं ग, सक
ु ु मार
151
समु न ही ऄचाव के ईपयिु ईपकरण होते हैं; लकन्तु बाबा को
लवपवपत्र, धतरू ा और अक के िूि लप्रय हैं।'
'अप पधारें !' मय ने मागव-दशवन लकया।
'अप मन्त्रपाठ कर दीलजये।' सभु ि ने भलू म में मस्तक रखकर
भगवान हाटके श्वर को प्रणाम लकया और समीप सजे असन पर
बैठ गया - 'पजू ा की लवलध भी अप ही बताआये। यहााँ के अप
प्रधान ऄचवक हैं।'
'अप दानव के यजमान बन रहे हैं।' मय ने लवनोद लकया -
'दलिणा यह नहीं छोडेगा।'
'कन्हाइ दे देगा।' सभु ि के समीप ऄपना क्या धरा है और
जब कन्हाइ को देना है वह क्यों सोचे लक दानव लवश्वकमाव क्या
मााँगेंगे।
'नमः र्िंकराय च मयस्कराय च।
नमः र्म्भवाय च मयोभवाय च।
नम: सर्वाय च सर्वतराय च॥'
152
मय की गम्भीर परावाणी गजंू ने िगी। वे महाशैव श्रद्धालवभोर
पजू न कराने में तन्मय हो गये। सम्भवतः पलहिी बार वे लकसी के
अचायव बने थे।
गंगाजि, दग्ु ध अलद का सलवलध ऄलभषेक और जब समय
का प्रश्न नहीं, सामग्री का ऄभाव नहीं तो पजू न पञ्चोपचार या
षोडशोपचार क्यों हो? महाराजोपचार से पजू न चिने िगा।
मय और सभु ि दोनों में से लकसी को पता नहीं िगा लक कब
ऄचावलवग्रह के स्थान पर सािात् धजू वलट गंगाधर अकर असीन
हो गये और पजू न ग्रहण करने िगे।
नीराजन के ऄनन्तर स्तवन करते मय नमृ य करने िगे और
सभु ि ने तािी बजाना प्रारम्भ कर लदया, यह भी दोनों को स्मरण
नहीं लक ईनके स्तवन, नमृ य में कब डमरू का लडम-लडम
सलम्मलित हो गया।
'वरं ब्रलू ह!' दोनों जब ऄन्त में प्रलणपात करने िगे, तब एक
साथ दोनों के मस्तकों पर कर स्पशव हुअ ओर ऄमतृ स्वर गाँजू ा।
153
'श्रीचरणों में ऄनरु ाग।' झटपट दोनों बैठे और ऄञ्जलि
बााँधकर एक साथ बोिे।
'एवमस्त!ु ' वह ज्योलतमलू तव ईस ऄचाव-लवग्रह में ही ऄदृश्य हो
गयी।
'अचायव! अपकी दलिणा?' कुछ समय िगा सभु ि को
स्वस्थ होने में। सावधान होने पर ईसने हाँसते-हाँसते मय की ओर
देखा।
'अप महा महेश्वर के स्नेह लशशु हैं।' मय ने सभु ि के पदों पर
मस्तक रख लदया - 'महेश्वर ने अपकी ओर से जो दलिणा दे दी,
ऄनन्तकाि के लिए यह दानव ईससे पररतप्तृ हो गया।'
'ऄब अप ऄनमु लत दें।' सभु ि ने चिने का ईपक्रम लकया।
'एक ऄनरु ोध है।' मय ने ऄञ्जलि बााँधी - 'अप सतु ि में
भगवान वामन के दशवन तो करें गे ही और मेरे अराध्य ने यहीं
अपकी ऄचाव स्वीकार कर िी है। ऄतः लवति अप छोड
दीलजये।'
154
'कोइ लवशेष बाधा है?' सभु ि ने सहज पछ
ू लिया।
'अपके लिए कहीं कोइ बाधा सम्भव नहीं; लकन्त'ु मय
सक ं ोचपवू वक कह गये - 'भगवान हाटके श्वर का ऄचाव-लवग्रह यहााँ
है और लवति ईनका ऄन्त:परु है। देवी के साथ वे वहााँ एकान्त
क्रीडा करते हैं। मैं भी वहााँ कभी नहीं जाता।'
'ऄम्बा संकोच में पडें, मैं ऐसा कुछ नहीं करूाँगा।' सभु ि ने
ऄपनी यात्रा में से लवति जाने का कायवक्रम छोड लदया। यह
ऄच्छा ही हुअ। पथ्ृ वी गभव की ऄलग्न से ऄति-लवति दोनों तप्त
रहते हैं। ईमा-महेश्वर तो ऄलग्नमलू तव लवति में लनवास करते हैं। साथ
में भतू -प्रेत जैसे ऄलगया बेताि, सभु ि वहााँ जाकर प्रसन्न नहीं
होता।
155
दैत्यराज बसल-
ऄमयन्त प्रसन्न हुअ सभु ि सतु ि पहुचाँ कर। यह तो वह स्वगव
पहुचाँ ा तब पता िगा लक ऄमरपरु ी का ऐश्वयव सतु ि के सम्मख ु
बहुत िीका है; लकन्तु ऐश्वयव और सौन्दयव सभु ि को प्रभालवत नहीं
करता। वह ऄभी ब्रह्मिोक तथा लवष्णि ु ोकों का वैभव देखकर
अया है। ईसे प्रसन्नता हुइ सतु ि के स्वामी के द्रार पर गदापालण
भगवान वामन को देखकर।
'तमु यहााँ खडे हो? तम्ु हें पता है लक मैं अ रहा ह?ाँ तमु
ऄके िे कै से अ गये? यह गदा कहााँ से िे अये!' सभु ि दौडकर
वामन के पास पहुचाँ गया। ईनका हाथ पकडकर लहिा लदया
ईसने। ईसे यही िगा लक ईसका कन्हाइ ही वहााँ अ खडा हुअ
है।
वही नवघन सन्ु दर शरीर, वैसा ही पीतपट; लकन्तु सभु ि को
ऄपनी भि ू शीघ्र ज्ञात हो गयी। वह वामन का हाथ छोडकर दो
पद पीछे हटकर ईन्हें देखने िगा - 'तमु तो कन्हाइ नहीं हो। आतना
मोटा जनेउ पलहने हो और मझु से आतना छोटा कन्हाइ नहीं है। मैं
सभु ि हाँ - भिसेन। तमु कौन हो?'
156
'मैं तमु को जानता ह।ाँ ' मन्द-मन्द मस्ु कराते मेघ गम्भीर स्वर में
भगवान वामन बोिे - 'मैं देवमाता ऄलदलत का सबसे छोटा पत्रु ह;ाँ
लकन्तु बािक नहीं ह।ाँ मेरा शरीर वामन है।'
'वामन - वामन लवष्ण!ु बाबा, मझु े िमा करो! मैं तो
समझा......।' सभु ि ने हाथ जोडे।
'भिू से सही; लकन्तु भ्रम से भी ऄपना सखा समझकर तमु ने
मझु े सम्मालनत ही लकया है।' वामन सप्रु सन्न थे - 'तमु से ऄपराध
नहीं हुअ। िेलकन तमु यहााँ अ गये हो तो दैमयेश्वर की ऄचाव
स्वीकार कर िो!'
'महाभागवत प्रह्राद का पौत्र लवरोचनाममज दैमयबलि
प्रलणपात करता है।' एक ओर से यह लवनम्र स्वर अया तो सभु ि ने
ईधर देखा। स्वणव गौर लवशाि वप,ु रमनाभरण जो परुु ष भलू म में
दोनों हाथ अगे िै िाकर पड गये थे, ईनका शरीर ऄमयन्त
सगु लठत था; लकन्तु देखने में वे देवोपम िगते थे। ईनके पीछे जो
ऄनचु र अये थे, वे भिे दैमय कहे जायाँ; लकन्तु वे दैमय दीखते
नहीं थे।
157
'अप ईठो!' सभु ि ने ईनका मस्तक स्पशव करके कहा - 'मैं
तो बािक ह।ाँ मेरी यह ऄभ्यथवना..... '
'अप ऄपने आस चरणालश्रत को ठगो मत।' सववत्र भगवद्दशवन
के ऄभ्यासी बन चक
ु े बलि ने कहा - 'एक बार यज्ञशािा में
बािक बनकर पधारकर अपने मझु े वलञ्चत करने का प्रयमन तो
कर देखा। अप ऄपनी करुणा से स्वयं वलञ्चत हुए।'
सभु ि ने वामन की ओर देखा। बलि क्या कह रहे हैं, यह परू ी
बात वह भिे न समझ सका हो; लकन्तु समझ गया लक आन वामन
की बात ही वे कह रहे हैं।
'तमु दैमयेश्वर के साथ पधारो। आन्हें ऄचाव का सौभाग्य प्राप्त
होने दो।' भगवान वामन ने कहा - 'मैं तम्ु हारे साथ चि रहा ह।ाँ
सक
ं ोच मत करो।'
'मेरा जन्म-जन्म का पण्ु योदय हुअ अज' - बलि भि ू गये
लक वे दैमयेश्वर हैं और दैमय सेवकों से लघरे द्रार पर खडे हैं। वे तो
दोनों हाथ ईठा कर कीतवन करने िगे। वामन ने ऄपने ऄनभु ाव से
ही ईन्हें शान्त लकया।
158
भगवान वामन दैमयराज के अग्रह पर भी कभी भीतर नहीं
जाते। बलि को ईनकी पजू ा द्रार पर अकर करनी पडती है। अज
बािक रुप में ऐसे ऄलतलथ पधारे लक ईनके साथ वामन प्रभु भी
लसहं ासन पर बैठेंगे और ईनके पाद-प्रिािन का ऄवसर पनु ः प्राप्त
होगा।
बलि ने वामन और सभु ि को एक ही रमनलसंहासन पर
बैठाया। दैमयेश्वर पट्ट-मलहषी लवन्ध्याविी ने दोनों के चरण धोये।
सलवलध ऄचाव हुइ। ऄवश्य आस ऄचाव में वामन के संकेत पर सभु ि
ऄग्रपज्ू य बना लिया गया था। परु ाण-परुु ष होने पर भी शरीर से
वामन बािक ही िगते थे, ऄतः ईनकी समीपता ने सभु ि को
बहुत कुछ लन:संकोच कर लदया था।
'तमु आस समय जहााँ हो, यह सतु ि धरा का ऄन्तराि है;
लकन्तु धरा के ति में जो ऄसह्य ऄलग्न-सागर है, लजसमें सब
धातएु ाँ िव बनीं खौि रही हैं, ईससे यह आतना ऄन्तरंग है लक वहााँ
की उष्मा यहााँ सख ु द जीवन-दालयनी बनी रहती है।' वामन ने स्वयं
बतिाया।
159
'यह स्थि ू िोक तो िगता नहीं।' सभु ि ने देखा लक वहााँ
समीप ऄमयन्त मनोहारी ईद्यान िहरा रहे हैं और सस्ु वर पलियों
के स्वर भी हैं।
'हम ऄसरु दैमय, दानव, रािस और यि - आन चार कुिों के
हैं। हम देवताओ ं के समान ही महलषव कश्यप की सन्तान हैं।' बलि
ने ऄपना कुि पररचय लदया - 'देवता हमारे ऄनजु हैं। हम सबकी
माताएाँ पथृ क हैं। हमारी और देवताओ ं की देह-रचना तथा
जन्मजात शलियों में कोइ ऄलधक तारतम्य नहीं है। देवता ऄलधक
समवगणु ऄपनाकर सक ु ु मार हो गये और दैमय-दानवालद ने
कमवशीि रहकर काया को कठोर बना लिया।'
'देवताओ ं के समान ही दैमय-दानव, यि-रािस भी कामरूप,
जन्म-लसद्ध होते हैं।' भगवान वामन ने कहा - 'स्वगव भोग-िोक है
और ये सतु ि अलद कोइ हीन िोक हैं, ऐसा नहीं है। ये भी
पण्ु यिोक ही हैं; लकन्तु देविोक से ये प्रकृष्ठ हैं।'
'देविोक ईिम नहीं हैं?' सभु ि ने पछ
ू ा।
'देवताओ ं का दपव है लक ऄमरावती ईिम है। ऄन्यथा हम
ऄसरु ों ने ऄनेक बार ईसे बिपवू वक ऄलधकृत लकया है। देवता
160
भागे-भागे लिरते रहे हैं।' बलि ने सगवव कहा - 'हमारे आन िोकों में
एक पर भी कभी देवताओ ं का ऄलधकार नहीं रहा।'
'स्वगव की ऄलधक लनकटता है मनष्ु य-िोक से। तमु चाहो तो
आसे ईसकी श्रेष्ठता कह सकते हो; लकन्तु यह लनकटता ईसे
ईपेिणीय भी बनाती है।' भगवान वामन गम्भीर हो गये।
'मनष्ु य के पाप या पण्ु य जब आतने ऄलधक हों लक लकसी
पालथवव देह में ईनका भोग सम्भव न हो तो ईसे पथ्ृ वी पर जन्म देने
से पवू व ईसके पाप या पण्ु यों को एक सीमा तक कम करना
अवश्यक हो जाता है। पाप भोग के लिए नरक है और पण्ु य भोग
के लिए स्वगव। पाप एक सीमा में अये तो नरक से छुटकारा और
पण्ु य भोग द्रारा पररलमत हुए तो स्वगव से लनष्कासन।'
'आन ऄधोिोकों में धरा का प्राणी नहीं अता'? सभु ि का
प्रश्न स्वाभालवक था।
'लत्रभवु न में लजतने िोक हैं, सब भोग िोक हैं। के वि धरा
का मनष्ु य ही वहां जाता है। धरा पर भी मनष्ु य योलन ही कमवयोलन
है और ईसमें भी धन्य हैं वे जो ऄजनाभवषव (भारत) में मनष्ु य
जन्म पाते हैं।' बलि ने आस बार ईपिासपवू वक कहा - 'देवता और
161
हम दैमय भी भारत में रहने को ईमसक ु रहते हैं। ऄवसर लमिते ही
वहााँ लटकने िगते हैं या जन्म िेने िगते हैं।'
'तब ये ऄधोिोक भी ,ऄमरावती के ही समान हुए।' सभु ि ने
कहा नहीं, के वि सोचा।
'ऄधोिोकों में वे पण्ु याममा जन्म िेते हैं लजनके पण्ु य आतने
ऄलधक हों लक कपप पयवन्त ईन्हें जन्म न िेना हो।' भगवान वामन
ने कहा - 'के वि कुछ लवशेष महानभु ाव मन्वन्तर पयवन्त यहााँ रहते
हैं।'
'मैं ऐसा ही भाग्यहीन ह।ाँ ' बलि ने खेदपवू वक कहा - 'धरा पर
पहुचाँ गया था और मेरे ये मोिदाता प्रभु प्रसन्न भी हुए; लकन्तु
स्वगव के मोह ने मेरी बलु द्ध भ्रष्ट कर दी थी। आन परमोदार ने मेरे सौ
ऄश्वमेध यज्ञ के िि के रूप में सावलणव मन्वन्तर का आन्िमव मेरे
लिए सरु लित कर लदया।'
'स्वगव तब सचमचु ईपेिणीय है। वहााँ से लनष्कासन की
ऄवलध ही ऄलनलश्चत है।' सभु ि बोि ईठा - 'ये ऄधोिोक कम-से-
कम एक कपप का अश्वासन तो है।'
162
'कपपपयवन्त ब्रह्मिोक में तथा तपोिोक, जनिोक और
महिोक में भी पण्ु याममा रहते हैं।' वामन भगवान ने स्पष्ट लकया -
'जो शद्धु समवगणु ी होते हैं वे ईन िोकों में और जो कमावसि
रजोगणु ी धमावममा, लकन्तु ईग्र प्रकृलत होते हैं, वे आन ऄधोिोकों में
पहुचं ते हैं।'
'मैंने के वि ब्रह्मिोक देखा है।' सभु ि को िगा लक भगवान
वामन जैसा ईिम और समवयस्क न सही, िगभग समकाय
लमिा है तो परू ी जानकारी ईसे प्राप्त कर िेना चालहये।
'तमु ईन िोकों को देख िो। ईनको देखने के पश्चात्
ऄमरावती पहुचाँ ोगे तो वहााँ के भोग तम्ु हें प्रिब्ु ध नहीं करें गे।'
वामन ने सम्मलत दी - 'तपोिोक, जनिोक और महिोक ये तीनों
तपलस्वयों के ही हैं। आनमें तम्ु हें कपपजीवी तापस, ज्ञानी, योगी
लमिेंगे। तमु ईनसे लमिकर प्रसन्न होगे।'
'मैं जटा नहीं बढ़ाउंगा और न तप करूाँगा।' सभु ि का
बािकपन मचिा - 'मझु े ईनमें लकसी को गरुु नहीं बनाना। मैं तो
ममयवधरा पर लनवास करूाँगा।'
163
'लजसे स्वयं सक
ं षवण भगवान ने मन्त्र देने का वचन लदया है,
ईसे लशष्य बनने का धष्टृ प्रयमन कोइ नहीं करे गा।' वामन ने
अश्वासन लदया - 'तम्ु हें तप या ध्यान करने की अवश्यकता नहीं,
लकन्तु हररचचाव तम्ु हें लप्रय िगेगी। वहााँ भगवमकथागत प्राण
पलवत्राममा कम नहीं हैं।'
'तब मैं वहााँ जाउाँगा।' सभु ि ईठ खडा हुअ। ईसके ईठते ही
भगवान् वामन और सपररकर बलि भी ईठकर खडे हो गये।
'तमु ऄधोिोकों को तो देख ही रहें हो।' भगवान वामन ने
ऄलन्तम सचू ना दी - 'आनमें से लवति भगवान हाटके श्वर की
लवहार-स्थिी है और ऄति मयपत्रु महामायावी बि की। उपर
के िोकों को देखते िौटो तो ऄमरावती भी देख ही िेना; लकन्तु
दसू रे िोकपािों की परु रयााँ स्वगव से कम सश ु ोभन नहीं हैं।
िोकपािों की समस्या तमु यलद सनु िोगे तो तम्ु हारे सखा का
ध्यान भी कदालचत चिा जाय ईनकी ओर।'
'िोकपािों की परु रयााँ?' सभु ि ने पछ
ू ा।
164
'कुबेर, वरुण, यम तीनों की परू ा देख िेना पयावप्त होगा।'
वामन भगवान ने कहा - 'वैसे तो ऄलग्न, वाय,ु लनऊलत की भी
परु रयााँ हैं और गधं वव, ऄप्सराओ ं के ईपनगर हैं ऄमरावती में।'
165
महजशनः तपः-
ऄसह्य ईष्णता धरा के ईस ऄन्तराि में। लपघिे िावे का
ईबिता समिु ; लकन्तु लदव्य देह सभु ि को ईसके क्या भय।
सब ऄधोिोक भी देविोकों के समान भाविोक ही हैं।
सभु ि तो सयू विोक भी हो अया था। लवति ईसने छोड लदया था
और ऄति ईसे ऄटपटा िगा। ईस ऄलग्न-समिु में ईसे ऄपप
अकषवण भी नहीं दीखा।
सभु ि वहााँ रुक भी जाता तो क्या लमिना था ईसे? मय के
महामायावी पत्रु बि के समीप मायाएाँ सही, िेलकन सभु ि की तो
माया सीखने में कोइ रुलच नहीं। ईसे माया ही सीखना होता तो
मय मना करते?
ऄति की ऄकपपनीय उष्मा। ईस ऄलग्न में मयपत्रु बि
और ईसके ऄनचु रों का अवास है। ईनका अहार है हाटकरस
ऄथावत् लपघिा स्वणव। आस अहार पर रहने वािे कै से होंगे - धरा
का प्राणी कपपना भी नहीं कर सकता।
166
वहााँ लह्लयााँ भी हैं; लकन्तु ईनके के वि तीन वगव हैं - 1.
कालमनी-सदा कामक ु ा। 2. स्वैररणी-ईनका ऄपना मन लजस परुु ष
को जब स्वीकार करे , ईस परुु षको प्राप्त करके रहेंगी। 3. पश्च
ंु िी -
कोइ परुु ष ईन्हें चाहे जब प्राप्त कर सकता है। आनके ऄलतररि ईस
िोक में कोइ गलृ हणी या पमनी नहीं। वहााँ माता, बलहन, बेटी की
कपपना ही नहीं।
दानवेन्ि मय के मायावी पत्रु बि ने यह िव ऄलग्न का िोक
ऄपना लनवास बहुत सोचकर बनाया। देवता दानवों के शत्रु और
सववत्र ईनका भय; लकन्तु आस ऄलग्न समिु में अकर वे करें गे क्या?
दानव बि की कोइ महत्त्वाकांिा नहीं। ईसे लविास -
लनरुपिव लविास चालहये। यह ऄलग्नसमिु बसा लिया। ईसे ऄपने
समान रुलच के सेवक चालहये। ईसने ऄपनी जम्हाइ से शतशः
लह्लयााँ ईमपन्न कर दी। आन लह्लयों के ईपरोि तीन वगव। कहीं से
कोइ ऄपहरण नहीं, ऄतः ह्ली के कारण सघं षव का प्रश्न नहीं।
ऄब जो दैमय-दानव एक बार आस िोक में अ जाता है, भि ू
ही जाता है लक सलृ ष्ट में दसू रा भी कहीं कोइ स्थान है। यहााँ का िव
सवु णव पीकर और यहााँ की लह्लयों के सम्पकव में अकर ईनका जादू
न चिे, सम्भव नहीं। उपर से बि की मायाओ ं का महाजाि।
167
यहां पहुचाँ ा प्रमयेक परुु ष समझने िगता है - 'मैं सववसमथ ह।ाँ
मझु से ऄलधक भोग सिम दसू रा कोइ नहीं। मझु में दस सहह्ल
हालथयों का बि है।'
अप कह सकते हैं लक यह पागिपन है। िेलकन पागि-
मदोन्मि हुए लबना कोइ प्राणी - दानव सही, ईस ऄलग्नसमिु में
रहना ही क्यों चाहता? दानव बि ने कालमनी अलद लह्लयों के तीन
वगव तथा ऄपनी माया का लवस्तार ही आसलिए लकया था लक वहााँ
अये दैमय-दानव ईसके व्यामोह में वहााँ से जाना न चाहें। ईसका
िोक बसा रहे। वह वहााँ पमनी बनने की लनष्ठा रखनेवािी दानव
नाररयााँ िाकर सन्तान-परम्परा चिाने के पि में नहीं था।
'सन्तान होती है तो पररवार बनते हैं। ईनके स्वाथव पथृ क् होते
हैं। आससे सघं षव ईमपन्न होता है।' अप बि के मत से ऄसहमत हो
सकते हैं - लकन्तु ईसे एकमात्र ऄपने प्रलत सबको वहााँ लनष्ठावान
रखना था। ऄतः ईसकी व्यवस्था लनरंकुश शासक के ऄनरू ु प ही
है।
सभु ि ने जनिोक में एक महापरुु ष से पछ
ू ा था - 'सलृ ष्टकताव ने
एक ऄध:िोक ही क्यों ऐसा बना लदया? बि और ईसके ऄनचु र
कपपजीवी हैं।'
168
'पथ्ृ वी पर जीवन बना रहे, आसके लिए अवश्यक है लक
भगू भव में पयावप्त उष्मा हो।' महाममा ने समझाया - 'ईस उष्मा में
बि और ईसका समाज बना रहता है तो कहीं लकसी ऄन्य िोक
का कुछ नहीं लबगडता। लवश्व-स्रष्टा को तो सब भावों के बीज भी
सरु लित रखने पडते हैं। जब आस जनिोक में वासना का बीज ही
नहीं तो कहीं ईसी का प्राधान्य भी होना चालहये।'
सभु ि सीधे तपोिोक चिा गया था। ऄति में वह कुछ िण
को पहुचाँ ा और वहााँ से आतना लखन्न हुअ लक बीच के िोकों को
िौटते हुए देखना ईसे ठीक िगा।
तपोिोक भी सभु ि को बहुत लप्रय नहीं िगा। ईसमें न
अवास हैं, न ईद्यान। के वि लवशाि वि ृ हैं और प्रचरु जि है।
पश-ु पलियों का वहााँ प्रवेश ही नहीं। परू ा िोक नीरवप्राय।
कदालचत ही कहीं गलत होती है।
ध्यान, समालध, तप - सब शान्त, मौन और ऄपनी साधना में
संतष्टु । लकसी का ध्यान लकसी दसू रे की ओर नहीं जाता।
169
सत्त्वगणु में भी गलत नहीं है। तपोिोक पररशद्ध ु सत्त्व का घनी
भाव। धरा पर हम अज ऄसंख्य ऐसे व्यलि देखते हैं जो ऄपने
दैलनक जीवन में परम सतं ष्टु हैं; लकन्तु यह सन्तोष रजोगणु का होने
से ऄलस्थर है। तपोिोक का सन्तोष लनरलतशय है।
साधन में जो सखु , शालन्त, सन्तोष है यह के वि साधक
समझ सकते हैं। लनबावध, लनलववघ्न साधन चिता रहे, साधक के
लिए आससे बडा सौभाग्य नहीं। ईसे दसू रा कुछ नहीं चालहये।
तपोिोक ऐसे सब साधकों का िोक नहीं है। वह ईनका
िोक है जो तपोलनष्ठ रहे धरा पर। व्रत, ईपवास में लनष्ठा यहााँ
पहुचाँ ाती है।
कोइ उध्ववबाहु एक पाद खडा है, कोइ पञ्चालग्न में लस्थत है।
लकसी ने अहार ही नहीं, जि भी मयाग लदया है। ऄनेक जि में
डूबे रहते हैं। कुछ ऐसे जो विृ ों से ईतरते ही नहीं। वहााँ लकतने
समय का प्रश्न व्यथव है। कपपान्त में भी तपोिोक, जनिोक और
महिोक का नाश नहीं होता। ये िोक तो महाप्रिय में तब िीन
होते हैं, जब भगवान ब्रह्मा ऄपनी दो पराधव की अयु परू ी करके
परमपद प्राप्त करते हैं।
170
सभु ि की तपस्या और ध्यान में रुलच नहीं। वह तपोिोक से
शीघ्र जनिोक अ गया और जनिोक अया तो बहुत समय तक
भि
ू ा रहा लक ईसे और भी कहीं जाना है।
जनिोक तपोिोक से सववथा लभन्न। ढूाँढ़ने पर भी कोइ वहााँ
ध्यानस्थ न लमिे। कहीं कथा हो रही है और कहीं संकीतवन
महोमसव है। कोइ एकाकी ही ऄपने संगीत में स्वयं लनमग्न है।
लनगवणु या सगणु का अग्रह जनिोक में नहीं। िेलकन कथा
हो या संकीतवन, गायन हो या वाताव, के वि भगवान को वाणी
और मन समलपवत। ईन सवावममा के सगणु रूपकी चचाव या लनगवणु
तत्त्व का लनरूपण।
सभु ि लवभोर हो गया। कन्हाइ का गणु गान, व्रजेन्िनन्दन के
नाम-गणु -िीिा का कीतवन - वह स्वयं तािी बजाता कहीं नाच
ईठता और कहीं शान्त सनु ता।
लनगवणु चचाव भी सि ु भ थी और भगवान के सभी रूपों के
रलसक थे; लकन्तु सभु ि ने कम ही ईधर ध्यान लदया। वैसे वह
भगवान नारायण, श्रीगंगाधर, महाशलि, श्रीरघनु ाथ, भगवान
गणपलत, सयू व नारायण के सयु श-समसंग से ऄरुलच नहीं रखता था।
171
गया वहााँ भी; लकन्तु घमू -लिरकर श्रीकृष्ण-कथा स्थि ईसका
के न्ि बन गया।
'भि! महिोक के लसद्ध तम्ु हारा सामीप्य चाहते हैं।' ऄचानक
सनकालद कुमारों में से सनन्दनजी ने सलू चत लकया - 'वैसे तमु को
ऄपने मध्य पाकर हमें बहुत हषव होता है।'
सभु ि बािक था। स्वभावत: लनमय पााँच-छ: वषव के बने रहने
वािे आन कुमारों में ईसका अकषवण था। वह आन्हें ऄग्रजों का
सम्मान देता था। ये परमलषवगण भी ईसे स्नेह दे रहे थे। जब ये
कुमार साथ चिने िगे तो वह महिोक अ गया।
कुमार सम्भवत: ईसे पहुचाँ ाने ही अये थे। जनिोक का तो
वह था नहीं लक लद्रपराधव पयवन्त वहााँ बना रहता। महिोक के
लसद्धों का समकार स्वीकार करके चारों कुमार ब्रह्मिोक चिे गये
सभु ि को छोडकर।
'अप सब यहााँ रहेंगे?' सभु ि को महिोक में पहुचाँ कर
ममयवधरा का ध्यान अया। ईसे िगा लक जब यहााँ से धरा पर ईतरा
जा सकता है तो ये सब लसद्ध ऄजनाभ वषव में जन्म क्यों नहीं िे
िेते।
172
'तम्ु हारे समान स्वतन्त्र लकसी िोक में कोइ नहीं।' एक वद्ध
ृ ने
बतिाया - 'हम सब लवश्वलनयन्ता के लवधान-परतन्त्र हैं। हमारी
अयु लद्रपराधव पयवन्त है; लकन्तु प्रमयेक प्रिय में हमें यह ऄपना
िोक मयागकर जनिोक में प्रियकाि व्यतीत करना पडता है।'
'क्यों?' सभु ि ने पछ
ू लिया।
'प्रिय में जब नीचे के िोग भस्म होने िगते हैं, यहााँ आतनी
ईष्णता हो जाती है लक यह िोक लनवास योग्य नहीं रहता।' ईन
वद्ध
ृ ने सखेद कहा - 'प्रिय तो पहुचाँ ी ही रहती है। ब्रह्माजी के लदन
का ऄन्त हुअ और प्रिय अयी। ईन स्रष्टा की प्रमयेक सायं-
सन्ध्या को हम भागने को लववश हैं। रालत्र-प्रिय रालत्र जनिोक में
हमें व्यतीत करनी पडती है।'
'हमारे अकार प्रायः वही हैं जो पथ्ृ वी पर मनष्ु य देह मयागते
समय था। सब वद्ध ृ प्राय, ईज्ज्वि के श ऄलधक, मलु ण्डत मस्तक
या जटाधारी देखकर सभु ि ने पछ ू ा था लक 'यहााँ कोइ बािक क्यों
नहीं है? यवु ा आतने कम क्यों हैं?'
173
'हम मानव जीवन में माया के प्रपञ्च में प्रिब्ु ध हो गये।'
सखेद एक ने सनु ाया - 'तत्त्वज्ञान प्राप्त था हमें। ऄनेक स्मालध लसद्ध
थे हममें। ऄनेक ने ईपासना से अराध्य का प्रमयि पाया था;
लकन्तु लकसी प्रयोजन लवशेष से जान-बझू कर लसलद्ध का ईपयोग
लकया और यहााँ अना पडा।
'कब तक अप यहााँ रहेंगे?' सभु ि को यह लववशता बरु ी
िगी।
'ऄब तो लद्रपराधव के ऄन्त में ब्रह्माजी के साथ हमें छुटकारा
लमिेगा।' ईस लसद्ध ने कहा - 'धरा के साधकों के संरिण,
सहायता, मागवदशवन का दालयमव हमें तब तक लनभाना है। लसलद्ध ने
हमें धरा के साधकों की सहानभु लू त के बन्धन में बााँध लदया।'
'सहानभु लू त, सहायता तो बरु ी बात नहीं है।' सभु ि ने चलकत
होकर कहा।
'सहानभु लू त-सहायता का ऄहकं ार बरु ी बात है।' वे लसद्ध कह
गये - 'लसलद्ध का प्रयोग ही आस ऄहक ं ार से होता है लक हम भी
कुछ कर सकते हैं। ऄन्यथा सववज्ञ, सववस्मथव करुणावरुणािय
174
सवेश के सम्मख
ु ऄपनी शलि के प्रयोग का प्रयमन ऄपराध तो है
ही।'
सभु ि को यह बात बहुत ऄटपटी िगी। िेलकन वह कह गया
- 'आतना मैं जानता हाँ लक कन्हाइ खेि में कोइ ऄटपटा लखिौना
बनाने िगे तो ईस समय ईसे रुचता नहीं लक कोइ ईसकी भि ू
सधु ारे । वह रूठने िगता है। ऄतः मैं ईसके ऐसे पचडे में नहीं
पडता। ईसे कुछ जानना या कराना हो तो स्वयं कहना चालहये।'
यह लसद्धिोक लजसे महिोक कहते हैं, सभु ि को रोक नहीं
सकता था। वहााँ कोइ बािक तो था ही नहीं। ऄमरावती और धरा
दीखती थी वहााँ से। ऄतः सभु ि को यात्रा करनी थी।
175
अमरावती अभासगनी-
'अपने कौन से पण्ु य लकये हैं?' पहुचाँ ते ही द्रारपाि ने यह
प्रश्न लकया तो सभु ि झाँझु िा ईठा।
'मझु े पता नहीं।' ईसने रूखे स्वर में कहा - 'यह पता रखना
मेरा काम नहीं है।'
जीव का काम नहीं है ऄपने पाप-पण्ु य का लववरण रखना;
लकन्तु देविोक के ऄलधकारी तो इष्याविु हैं। वे नवागन्तक ु को
ईकसाते हैं लक वह स्वयं ऄपने पण्ु यों का वणवन करे । ऄपने मख
ु से
ऄपने समकमों का वणवन करने से वे िीण होते हैं। ऄहक ं ार बढ़ता
है। आससे स्वगव के सेवकों को ईस प्राणी का कम समय तक, कम
समकार करना पडता है। ईसे शीघ्र लनकाि लदया जा सकता है।
'अप कहााँ से पधारे ?' द्रारपाि को अश्चयव था लक स्वगव में
आतना ऄपपायु बािक कै से अ गया। यहााँ तो लकशोरावस्था का
भोग देह धारण करके पण्ु याममा अते हैं। बािवपु िेकर अने
वािा यहााँ क्या भोगेगा? ऄब तक तो कोइ आतना ऄपपायु यहााँ
अया नहीं। ऄत: ईसने पछ ू ा - 'अप लकससे लमिेंगे? क्या पररचय
दाँू अपका।'
176
'कलठनाइ यह है लक तेरे दाढ़ी नहीं है, ऄन्यथा पता िगता
लक मैं ईसे लकतना लहिा सकता ह।ाँ ' सभु ि खीझ गया आस
पछू ाताछी से - 'मझु े लकसी से लमिना नहीं। यह परु ी देखने अया
ह।ाँ तू द्रार से हटेगा या....'
'नहीं, नहीं!' द्रारपाि घबडाकर एक ओर हटा - 'अप मझु े
शाप मत दीलजये। अपको मैं रोकाँू गा नहीं; लकन्तु यह परु ी क्या
ऄब पयवटन स्थिी बना दी सलृ ष्टकताव ने?'
'यह सलृ ष्टकताव से पछ
ू िेना।' सभु ि समझता है लक जैसे वह
आच्छा करते ही लकसी िोक में जा सकता है, वैसे ही यह स्वगव का
देवता द्रारपाि भी जा सकता होगा।
'भगवान सनमकुमारों में तो ये हैं नहीं।' द्रारपाि सोचता खडा
रह गया। ईसके यहााँ एकाध बार वे ब्रह्मपत्रु पधारे हैं। ईन्हें जानता
है। िेलकन यह बािक? आतने सहज ढगं से ब्रह्माजी से पछ ू िेने
की बात कहने वािा कौन? िेलकन द्रारपाि को यही बहुत िगा
लक ईसे शाप नहीं लमिा। ईसे द्रार पर के वि पछ ू ताछ करनी होती
है। लकसी को रोकने का तो ईसे ऄलधकार है नहीं। जो यहााँ तक
पहुचाँ सके गा, वह स्वगव का ऄनलधकारी हो नहीं सकता।
177
'यहााँ यह सब क्या हो रहा है?' सभु ि ने सीधे सधु माव सभा में
पहुचं कर शक्र से ही पछू ा। आन्ि की ईस सभा के ऐश्वयव का तो ईस
पर क्या प्रभाव पडना था; लकन्तु ऄप्सराओ ं का नमृ य, गन्धवों का
गान-वाद्य ईसे बहुत ऄटपटा िगा - 'तमु सब पण्ु याममा कहे जाते
हो और यह पीं-पीं, टुन-टुन िगा रखी है। गायन ही करना है तो
कन्हाइ के गणु क्यों नहीं गाते?'
'अप?' आन्ि ने ऄब तक ध्यान ही नहीं लदया था। ऄब
हडबडा कर लसंहासन से ईठे । जो ईन्हें आस प्रकार डााँट सकता है,
वह लदगम्बर बािक भिे दीखे, सामान्य नहीं हो सकता। जब
शक्र के सहह्ल नेत्र भी ईसे पलहचान नहीं पाते, पता नहीं कौन
लकतना प्रभाव िेकर अ धमका है। हकिाते बोिे - 'अप
लसहांसन स्वीकार करें ! मझु े सेवा का सौभाग्य दें और यलद
सलृ ष्टकताव ने यह पद....।'
बडा ऄलस्थर है आन्ि पद। पथ्ृ वी पर सौ ऄश्वमेध यज्ञ करके तो
प्राप्त होता है; लकन्तु पता ही नहीं िगता लक कब यहााँ से लकसे
पदच्यतु कर लदया जा सके गा। ऄसरु बिवान होते ही सरु ों को
मार भगाते हैं। कोइ तपस्वी छीन िे सकता है आन्दमव और कोइ
178
ऊलष-मलु न प्रसन्न हो जाय लकसी पर तो आसे ऐसे वरदान में दे
सकता है जैसे लभिा में िें क लदया हो।
'मझु े ऄपनी परु ी लदखिा दो।' सभु ि ने शक्र की प्राथवना
स्वीकार नहीं की। पजू ा करनी हो तो कन्हाइ की करना। तम्ु हारा
यह स्वगव मझु तो सडा-सडा िगता है। क्या बात है? यहााँ सडााँध
क्यों है?'
'भगवन!् िगता है लक अप लकसी लदव्यिोक से पधारे हैं।'
ऄब हाथ जोडा परु न्दरने - 'वहााँ प्रिय से पवू व पतन का क्रम नहीं
होगा; लकन्तु यहााँ तो ब्रह्माजी के एक लदन में चौदह आन्ि मर जाते
हैं। मैं प्रथम आन्ि हाँ - स्वायम्भवु मन्वन्तर का आन्ि। ऄभी-ऄभी आस
िोक में अया ह।ाँ कोइ ऄपराध हुअ हो तो िमा करें ।'
'मझु े यहााँ िलयष्णतु ा की गन्ध अती है।' सभु ि ने सहज
कहा।
'प्रलतपि यहााँ से प्राणी लगरते ही रहते हैं।' आन्ि ने स्वीकार
लकया - 'पण्ु यशेष होने पर लकसी को एक पि भी यहााँ रहने नहीं
लदया जाता। िेलकन अप हमारा नन्दनकानन देखकर प्रसन्न होंगे।'
179
'यह पाररजात है। सम्पणू व कामनाओ ं को पणू व करने वािा
कपपतरू!' आन्ि ने बडे ईमसाह से ऄपने सरु ोद्यान में पहुचाँ कर
कपपवि ृ का वणवन लकया - 'अप यहााँ अ गये हैं, आससे कुछ भी
मााँग सकते हैं।'
'मख
ू व है त!ू ' सभु ि स्वगव में पहुचाँ ते ही खीझ गया था और वह
खीझ लमटी नहीं थी - 'मैं लभिक ु हाँ जो आस वि ृ से मागाँगू ा? मेरा
कन्हाइ कृपण हो गया है?'
आन्ि ने हाथ जोडकर मस्तक झक ु ा लिया; लकन्तु मन में
प्रसन्न हो गये। यह बािक ईन्हें पदच्यतु कर देगा या स्वगव का
कोइ बडा पद िे िेगा, यह भय लमट गया।
'ये आतने अतलं कत क्यों दीखते हैं।' देवोद्यान में बडी सख्ं या
देवताओ ं की थी। ऄप्सराएं भी थी। सब अनन्द-लवनोद में िगे थे;
लकन्तु आन्ि के वहााँ पहुचाँ ते ही एक ओर लसमटकर सयं त खडे हो
गये थे। सभु ि ने यह देखा तो पछ ू लिया।
'मैं शतक्रतु हाँ - यहााँ का ऄधीश्वर!' आन्ि ने ऄब सगवव कहा -
'दसू रे सब सरु ों को मेरा सम्मान करना पडता है और शासन मानना
पडता है।'
180
'ह,ाँ तो सरु ों में भी छोटे-बडे हैं। आनमें भी स्पधाव होगी।' सभु ि
ने लखन्न स्वर में कहा - 'यह लवषमता क्यों है?'
'आनके पण्ु यों के तारतम्य के कारण।' संलिप्त ईिर लदया सरु े श
ने।
'ये कपपवि ृ से ऄलधक पण्ु य या ईन्नत पद क्यों नहीं मााँग
िेते?' बािक सभु ि को ईन संकोच से एक ओर लसमटे सरु ों पर
दया अयी - 'ये आस वि ृ से मलु ि, भलि, ज्ञान तो मााँग ही सकते
हैं। आतने बडे होकर भी आनमें आतनी समझ क्यों नहीं है?'
'कपपतरु यह कुछ नहीं दे सकता!' आन्ि को स्वीकार करना
पडा - 'न मोि, न धमव। के वि ऄथव और काम के सम्बन्ध की
कामनाएाँ पणू व कर सकता है। ऐलन्ियक भोग दे सकता है।'
'एक दररि झख ं ाड तमु ने िगा रखा है और मझु से कह रहे थे
लक मैं मागं ?ू ' सभु ि ने लझडकी दी आन्ि को - 'मैं आससे कन्हाइ की
प्रीलत मााँगू तो?'
181
'अप मझु पर और आस देवोद्यान पर दया कीलजये।' आन्ि ने
घबडाकर पैर पकड लिये - 'िीरोदलध से लनकिा वि ृ दसू रा नहीं
है कहीं। आसके लबना स्वगव श्रीहीन हो जायगा। अपने ऐसी कोइ
मााँग की तो यह लनश्चय ऄपनी ऄसमथवता की ग्िालन से सख ू
जायगा।'
'तमु समझते हो लक तम्ु हारी यह परु ी बहुत श्रीसम्पन्न है?'
सभु ि ने माँहु बनाया - 'जहााँ िण-िण स्खिन से ग्रस्त है, पतन से
त्रस्त है पण्ु याममा प्राणी, ऄधमोिम की स्पधाव है, वासनाओ ं की
सडााँध व्याप्त है, वह परु ी यलद सश
ु ोभन है तो ऄभालगनीपरु ी और
कौन-सी होगी?'
देवेन्ि को आस समय मौन रहने में ही ऄपनी कुशि िगी। वे
लजस स्वगव पर, लजस सरु पादप पर, लजस आन्िमव पर ऄपार गवव
करते हैं, ईस सबको जो आतने घडपिे से भाग्यहीन बतिा रहा है,
वह भिे दीखने में बािक हो, ईसको रुष्ट करके ऄपने कपयाण
की अशा नहीं की जा सकती।
'तमु ने सौ ऄश्वमेध यज्ञ करके कोइ बडा तीर नहीं मार लिया।
यह सडा स्वगव लमिा तमु को और वह भी सलृ ष्टकताव ने ऄपने एक
लदन में चौदह को बााँटना लनलश्चत कर लदया।' ऄब गम्भीर बन गया
182
सभु ि - 'मेरी मानो और भजन करो। ऄपनी सभा का यह नमृ य
गीत बन्द कर दो। श्याम का सयु श गाओ-सनु ो!'
'अपको कहीं लकसी ने नहीं बतिाया लक स्वगव के वि भोग
भलू म है?' आन्ि ने लवनयपवू वक कहा - 'हम यहााँ कुछ भी करें , वह
ऄपना िि देने में ऄसमथव रहेगा'
'देवता मख ू व होते हैं।' सभु ि बािक है, कुछ भी बोि पडता
है। अप आसकी बातों कों गम्भीरता से िें, यह ईलचत नहीं। यह तो
कह गया - 'कन्हाइ और ईसका नाम, सयु श सब लचन्मय,
अनन्दघन। ईसका िि क्या? वह तो स्वयं िि है। ऄपनाओ
और अनन्द में डूबे रहो; लकन्तु तमु पण्ु य करके ईसके िि से
स्वगव क्या अ गये, तम्ु हें सववत्र िि ही चालहये। तब दसू रा काम
करो। आस लनष्िि िोक में क्यों पडे हो? जहााँ कमव का िि होता
है, वहााँ चिो।'
'हम आसमें स्वतन्त्र नहीं हैं।' आन्ि ने लसर झक
ु ाये ही बतिाया -
'पण्ु य समाप्त होने तक हमें यहीं रहना पडेगा और पण्ु य समाप्त होने
पर लगरा लदये जायेंगे।'
183
'ऄभालगनी है ऄमरावती।' सभु ि को ऄरूलच हो ईठी ईस
स्थान से। जहााँ के वि ऄलजवत पण्ु य-सम्पलि को भोग से िीण ही
करने का ऄवसर है - ईपाजवन का कोइ ऄवसर भी नहीं, वह भी
कोइ रहने या लटकने योग्य स्थान है।
सभु ि को स्वगव में कुछ िण भी रुकने को कहना कलठन था।
वह पता नहीं कब क्या कहे या करे । ऄतः आन्ि ने सलवनय लवदा
लकया।
184
उदार यम-
ऄमरावती के ऄलधपलत ने लवदा तो लकया सभु ि को; लकन्तु
सरु पलत ने ऄपनी स्वाभालवक कुलटिता का मयाग नहीं लकया था।
वे आसे नीलत कहते हैं और अप जानते हैं लक ईच्च पद पर पहुचाँ ने
वािा प्रमयेक व्यलि नीलत को लकतना ऄलनवायव मानता है। यद्यलप
नीलत का सामान्य ऄथव कूटनीलत है और वह व्यलि को सरि,
सहज तो रहने नहीं देती, शान्त-लनलश्चन्त भी नहीं रहने लदया
करती। ईसका काम ही सशंक रखना है।
सरु े न्ि ने स्वगव के दलिण द्रार से सभु ि को लवदा लकया।
ईनका ऄलभप्राय ईसे यम के समीप पहुचाँ ाना था। सचमचु सभु ि
सयं लमनी परु ी ही पहुचाँ ा; लकन्तु श्याम के स्वजन कहीं पहुचाँ ें,
सलृ ष्टकताव ने ईनके लिए सक ं ट की लस्थलत तो बनायी ही नहीं है।
स्वगव के स्वामी प्रमाद कर सकते थे। वे, क्या हुअ लक सौ
ऄश्वमेध करके शक्र हुए थे, सामान्य जीव ही थे; लकन्तु सयं लमनी
के स्वामी तो साधारण जीव नहीं होते। प्रचेता के समान वे भी
कारक परुु ष होते हैं। वे द्रादश भागवताचायों में हैं। वे यलद प्रमादी
होते तो कन्हाइ ईनकी स्वसा का पालण स्वीकार करता?
185
अप ईन्हें यमराज कहते हो; लकन्तु हैं वे धमवराज। ऄपने ईिर
द्रार पर सभु ि का स्वागत करने स्वयं ईपलस्थत लमिे। ईन्होंने
पररचय पछ ू ने के स्थान पर ऄघ्यव ऄलपवत लकया और सादर िे
जाकर ऄपने लसहं ासन पर बैठाकर पजू न करने िगे।
जब कोइ सलवनय श्रद्धासलहत समकार करता है, तब ईसे
स्वीकार करना ही पडता है। सभु ि शान्त बैठा रहा। पजू न पणू व हो
जाने पर ईसने पछ
ू ा - 'आस शान्त भव्यपरु ी का नाम?'
'यह भयानक यमपरु ी संयलमनी है।' यमराज ने हाथ जोडकर
लनवेदन लकया - 'और लजसे अपने अज यह ऄचवन का सौभाग्य
लदया है, यह आसका सववथा ऄनलधकारी मलहषवाहन ऄकरुण यम
है।'
'यह सयं लमनी है?' सभु ि ने चलकत होकर चारों ओर देखा -
'आतनी भव्य और शान्त सयं लमनी? आतने लवनम्र अप और अपके
ये सहज सरि ऄनचु र।'
'आस परु ी की एक लवशेषता है।' यम ने बतिाया - 'आसकी
चारों लदशाओ ं में चार द्रार हैं। यह भावपरु ी प्रमयेक द्रार से अने
वािे को लभन्न-लभन्न रूपों में दीखती है। ईसी के ऄनरू ु प मैं और
186
मेरे ऄनचु र भी दीखते हैं। ईिर द्रार तो हमारा स्वागत द्रार है। आसी
से देवलषव यदा-कदा दया करके पधारते हैं। आसी से एक लदन यहााँ
श्रीसक
ं षवण के साथ स्वयं परुु षोिम को पधारना है। यहााँ हमें धन्य
करने अने वािे महापरुु ष आसी द्रार से पधारते हैं।'
'दण्डपात्र पापी भी तो अते हैं यहााँ?' सभु ि को ईनकी
लस्थलत देखनेका कुतहू ि जागा।
'वे हमारे दलिण द्रार से अते हैं।' यम ने बतिाया - 'िेलकन
अप ईधर से अने की आच्छा करें गे तो यह परु ी स्वयं अपके लिए
ऄदृश्य हो जायगी। सलृ ष्टकताव ने व्यवस्था ही ऐसी कर दी है लक
यहााँ ईलचत ऄलधकारी को ऄपने ऄनरू ु प द्रार से ही अना पडता
है।'
'अपके पवू व और पलश्चम द्रार से कौन अते हैं?' जब ऄपनी
आच्छानसु ार लकसी द्रार से यहााँ अना सम्भव ही नहीं तो पछ
ू कर
ही जानना एकमात्र ईपाय रहा।
'पवू व द्रार से पण्ु याममा या साधक अते हैं। ईन्हें स्वगव ऄथवा
ऄन्य ईिम िोकों में भेजने की व्यवस्था यहााँ है।' यमराज ने बहुत
संलिप्त पररचय लदया - 'पलश्चम द्रार अगतों के लिए नहीं है। यहााँ
187
की यातना से पररशद्ध
ु प्राणी ईसी द्रार से धरा पर जन्म िेने जाते
हैं।'
'सब जीवों को यहााँ अना पडता है?'
'के वि ममयविोक के मनष्ु यों को।' धमवराज ने कहा - 'जो
कमवयोलन का प्राणी है, ईसी के कमों का लनणवय अवश्यक है।
ईनमें भी सब नहीं अते। जो योगी या पण्ु याममा देवयान से जाकर
परमपद पाने वािे हैं, वे ऄथवा मि ु परुु ष यहााँ नहीं अते। श्रीहरर
के शरणागत, ईनके अलश्रतों का तो मेरे यहााँ कोइ लववरण ही नहीं
रहता। ईनके स्वामी ही ईन्हें स्वधाम िे जाते ऄथवा ईनकी
व्यवस्था करते हैं। मझु े ईन िोगों के सम्बन्ध में सोचने का भी
ऄलधकार नहीं।'
'अपके यहााँ कहीं नरक भी तो हैं।' सभु ि ने कहा - 'अप
कृपा करके मझु े ईन्हें देखने देंगे?'
'मझु से कोइ ऄपराध हो गया?' यमराज घबडाकर खडे हुए
और सभु ि के पैरों पर लसर धर लदया ईन्होंने - 'अप मझु े िमा नहीं
करें गे?'
188
'िेलकन मैंने तो अपके ऄपराध की बात कही नहीं।' सभु ि
चौंक गया।
'अपने ऄभी कमविोक देखा भी नहीं है।' यमराज ने कहा -
'अप वहााँ से सब मयावदाएाँ भगं करके भी अये होते वो भी हम
अपका आसी द्रार से स्वागत करते। अपके सखा का मैं ऄमयन्त
छुि सेवक - अप नरकों की ओर से दरू से भी लनकि जाय तो वे
नष्ट हो जायेंगे। पण्ु याममा प्राणी से कोइ प्रमाद होता है तब ईसकी
पररशलु द्ध नरक-दशवन का दण्ड बनती है।'
'आसका ऄथव है लक मैं अपके यहााँ कुछ देख नहीं सकता।'
सभु ि ने लसर झक
ु ाकर सोचा। ईसे ऄब पछ ू कर ही जो पता िगे,
वही जान सके गा। ईसने पछू ा - 'अप प्रालणयों को लकतना दण्ड
देते हैं?'
'अप जानते हैं लक अपके सखा को ईदारता का ऄन्त नहीं
है। दण्ड देने की बात तो वे तब सोचते हैं जब कोइ ईनके स्वजन
का ऄपराध करे ।' यम ने कहा - 'ईनके लवधान में दया है, दण्ड
नहीं है।'
189
'मैं तो अपके लवधान की बात पछू ता ह।ाँ ' सभु ि को ऄपने
सखा का स्वभाव कहााँ ऄज्ञात है।
'मेरा लवधान कै सा? सलृ ष्ट में, सभी ब्रह्माण्डों में के वि ईनका
लवधान ही चिता है।' यमराज ने बतिाया - 'यह संयलमनी का
स्वामी तो ईनके लवधान को सलक्रय रखने वािा एक ऄमयन्त
सामान्य सेवक है।'
'अप लकसी को दण्ड नहीं देते?' सभु ि को ऄद्भुत िगी यम
की बात।
'पररशोधन के प्रयमन का नाम ही दण्ड पड गया है।' ऄब
धमवराज ने परू ी बात समझायी - 'कमवयोलन में जाकर प्राणी एक
िण में आतने पाप या पण्ु य कर िेता है लक ईसका पररणाम ईसे
यगु ों तक प्राप्त होता रहे। ऄतः जब वह देह मयागकर यहााँ अता
है, ईसके पण्ु य या पाप आतने ऄलधक हुए लक लकसी पालथवव शरीर
में जाने योग्य वह नहीं है तब ईसका प्रिािन करना अवश्यक हो
जाता है। अप जानते हैं लक ऄगं राग को भी ऄन्ततः दरू करना
पडता है। पण्ु य ऄलधक हुए तो ईसे भोग देह देकर पवू व द्रार से स्वगव
या ईपयि ु िोक भेज लदया जाता है। पाप ऄलधक हुए तो आस मि
को दरू करने के लिए ईसे यातना देह लमिता है। ऐसे ऄनेक मि
190
होते हैं जो के वि धोने या रगडने से नहीं दरू होते। सतं ाप
अवश्यक होता है। आसमें कष्ट होता है प्राणी को; लकन्तु ईसे
स्वच्छ तो करना ही है। शोधन को सह सके , आसलिए यातना देह
देकर ईसे कम-से-कम कष्ट हो ऐसा लवधान है। वह जैसे ही पालथवव
लकसी देह को भी पाने योग्य हो जाता है, एक िण भी ईसे यहााँ
रोका नहीं जाता।'
'ऄन्तयावमी रृषीके श कमवयोलन के प्राणी को ऄपथ पर जाने
से बार-बार रोकते हैं।' तलनक रुककर यमराज सखेद बोिे -
'िेलकन वह ईनकी चेतावनी पर ध्यान नहीं देता। ऄपने को मलिन
करने में सख
ु मानता है और तब ईसे पररशद्ध ु तो करना पडता है।'
'अपके यहााँ सब प्रालणयों का कमव-लववरण रहता है?' सभु ि
ने पछ
ू ा।
'सबका कमव-लववरण ही कहााँ होता है। के वि मनष्ु य ही
कमवयोलन का प्राणी है। ईसमें भी जो परमपद की आच्छा करते हैं,
ईनको सवेश सम्हाि िेते हैं। ईनकी प्रगलत और भोग का लवधान
वे ही करते हैं।' यमराज ने बतिाया - 'यहााँ के वि वे अते हैं,
लजन्हें कमवचक्र में ऄभी पडे ही रहना है। लजन भाग्यहीनों ने ऄभी
191
आससे पररत्राण की आच्छा ही नहीं की, के वि ईनका कमव-लववरण
हमारे लचत्रगप्तु जी रखते हैं।'
'अप ईस लववरण के ऄनसु ार दण्ड-लवधान करते हैं?' सभु ि
ने लचत्रगप्तु से पछ
ू ा, जो समीप ही हाथ जोडे खडे थे।
'मेरा काम तो के वि लववरण रखना है।' लचत्रगप्तु ने ऐसे कहा
जैसे वे ऄपने को लनरपराध बतिा रहे हों। ईन्हें भय िग रहा था।
यह जो बािक अया है, वह ईनके सब लववरण िाड डािे तो
आसे कोइ रोक पावेगा? यहीं यह लचत्रगप्तु के ही कान पकडे तो?
'पररशोधन के लिए अवश्यक होता है यह जानना लक मि
लकतना और लकस प्रकार का है।' यमराज ने कहा - 'दण्ड का तो
प्रश्न ही नहीं है; लकन्तु यह तो देखना ही पडता है लक लकसी प्राणी
को तलनक भी ऄलधक पीडा न प्राप्त हो। के वि ईतना शोधन
लजतना ईसे लिर कमविोक भेजने को पयावप्त हो।'
'अप ऄमयन्त ईदार हैं।' सभु ि सन्तष्टु हो गया - 'िेलकन
अप और ये लचत्रगप्तु जी भी आतने समय से मेरे सम्मख ु हैं। अपके
दसू रे द्रारों से अगत प्रतीिा करते होंगे। मैंने व्यथव अपका समय
नष्ट लकया।'
192
'अपके सखा जैसे एक ही समय ऄसख्ं य रूपों से क्रीडाएाँ
करते रहते हैं, कृपा करके ईन्होंने आस सेवक को भी वैसी लकलञ्चत
िमता दे रखी है।' यमराज ने कहा - 'लचत्रगप्तु जी के लववरण स्वत:
आनके खातों में चढ़ते रहते और मेरे यम, यमधमव अलद चार रूप
हैं। चारों द्रारों में एक साथ मैं वहााँ के कायों का लनवावह करता
रहता ह।ाँ '
'मैं यहााँ से ऄब ममयवधरा पर जाउाँ तो अप मझु े सहायता
देंगे?' सभु ि ने ऄकस्मात पछ ू ा। पता नहीं क्यों ईसके मन में यह
बात ईठी।
'अपको हम सें लकसी की सहायता की ऄपेिा ही कहााँ है।'
यमराज ने कहा - 'िेलकन अप वरुण और कुबेर को कृताथव कर
दें। गन्धवव िोक में जा सकते हैं यलद ऄपने सखा का सयु श सनु ना
हो। ममयविोक का मख्ु य मागव तो लपति ृ ोक से है, यलद वहााँ पालथवव
देह स्वीकार करना हो।'
यमराज ने कहा नहीं; लकन्तु सभु ि को स्मरण अ गया लक
देवलषव ने कहा है लक आस देह से धरा पर जाने पर वहााँ ईसे के वि
ऄलधकारी देख सकें गे।
193
गन्धवश लोक-
ऄभी सभु ि सयं लमनी के ईिर द्रार से लनकिा ही था।
ऄकस्मात् ईसके सामने एक ऄद्भुत नगर प्रकट हो गया। अपने
कभी सनु ा है?
गन्धवश नगरोपम्या स्वप्न माया मनोरथा।
स्वप्न, आन्िजाि के दृश्य और मनोरथ - कपपनाओ ं की
ईपयि
ु ईपमा है गन्धवव नगर।
अकाश में हिके बादि हों तो ईनमें ऄनेक बार हाथी,
घोडे, सेना, वि
ृ ालद बनते-लमटते दीखते हैं। आसे कहते हैं गन्धवव
नगर।
सभु ि के सम्मख ु जो नगर ऄकस्मात् प्रकट हुअ था, वह
गगन में मेघों में प्रतीत होने वािे नगर से आस ऄथव में लभन्न था लक
ईसमें सभी रंग थे और ईसके सम्पकव में पहुचाँ ा जा सकता था। वैसे
वह भी िण-िण रूप रंग बदि रहा था और आतना सक ु ोमि
िगता था, जैसे सघन मेघों से ही बना हो।
194
'तम्ु बरू अपका स्वागत करता है!' सभु ि ईस नगर के द्रार
तक भी नहीं पहुचाँ ा था लक समु धरु सगं ीत गजू ने िगा। द्रार से
बाहर अकर गन्धववराज ने ईसे ऄघ्यव ऄलपवत लकया।
'अपसे मैं पररलचत ह।ाँ ' सभु ि को भी िगा लक वह अगत
गन्धववराज को देख चक
ु ा है।
'दया करके देवलषव ऄनेक बार मझु े ऄपने साथ पररभ्रमण में
िे जाते हैं।' तम्ु बरू ने कहा - 'ईनके ऄमोघ संग का प्रभाव है लक
मझु े भी श्रीहरर के सयु श ही लप्रय िगते हैं।'
'वस्ततु : हम सब सरु -सेवक हैं और हमारा यह नगर,
ऄमरावती का ही एक ईपनगर है। सो भी कपपना-नगर।'
गन्धववराज के साथ भीतर जाने पर जब पजू ा हो चक ु ी, एक लकन्नर
ने पररचय लदया - 'हम किा-जीलवयों की रुलच बहुत कोमि होती
है। हमें एक ही ढंग और वस्तु दसू रों की ऄपेिा शीघ्र ईबा देती है।
ऄत: हमारे नगर का कोइ ठोस ऄलस्तमव और लस्थर रूप नहीं है।
यहााँ प्रमयेक की रुलच के ऄनरू
ु प पि-पि पररवतवन होता रहता
है।'
195
'अपका अकार?' सभु ि ईस ऄश्वप्राय-मख ु लकन्नर को
ध्यान से देख रहा था। बहुत सस्ु वर वाणी थी ईसकी और मख ु के
ऄलतररि शेष शरीर बहुत सगु लठत, कोमि, सन्ु दर था। मख ु भी
था तो मनष्ु य का ही; लकन्तु िम्बा और ऄश्व से लमिता-जि ु ता।
िेलकन गन्धवव तो बहुत सन्ु दर थे।
'हम सरु -गायक हैं।' लकन्नर ने कहा - 'हमारा मखु ईग्र-मदृ ि
ु
दोनों स्वरों को व्यि करने योग्य है; लकन्तु लकन्नररयााँ और गन्धवव
कन्याएाँ के वि कोमि स्वर ही ईच्चररत कर पाती हैं।'
'हम गन्धवव वस्ततु ः वाद्य लवशेषज्ञ हैं।' तम्ु बरू ने सभु ि को
ऄपनी ओर देखते देखा तो बोिे - 'वैसे वादक को सगं ीत का
ममवज्ञ तो होना ही पडता है और गायन भी ऄवसर अने पर हम
करते हैं - कर सकते हैं; लकन्तु हम ऄपने आन गायक लमत्रों के परू क
हैं।'
'हमको ऄमयपप ऄवकाश है ऄपनी आस परु ी में रहने का।'
लकन्नर ने कहा - 'सरु े न्ि तथा दसू रे सरु ों की सगं ीत-सभा िगी ही
रहती है और ऄप्सराओ ं का नमृ य हम लकन्नरों के गान तथा
गन्धवों के वाद्य के लबना तो सरस बन नहीं सकता। आसीलिए
हमको ब्रह्मिोक तक अह्ऱान करता रहता है।'
196
'सरु ों की सगं ीत-गोष्ठी' सभु ि को ऄमरावती की आन्िसभा का
स्मरण अ गया - 'भगवती शारदा का प्रसाद के वि वासना-
लवमि वगव का लवनोद बनने के लिए है?'
'अपकी वाणी के यथाथव को हम ऄस्वीकार नहीं करते।'
लकन्नर ने लकलञ्चत िज्जानभु व व्यि लकया - 'लवडम्बना यही है
लक किाजीवी प्रोमसाहन एवं प्रश्रय चाहता है। स्वयं ऄपनी
सम्हाि और संग्रह में हम िग जायाँ तो किा की साधना, सेवा
बनती नहीं और ऐसा प्रश्रय प्रायः ईसी वगव से लमिता है, लजसे
अप लविासी कहते हो।'
'हम में जो भी सिि साधक हैं, लजन पर भगवती वीणापालण
ने सचमचु कृपा की है, वे लविासी वातावरण से लवतष्ृ ण होते हैं।'
तम्ु बरू ने कहा - 'काव्य, सगं ीत, नमृ य, वाद्य तथा तिणालद सब
किाओ ं के सम्बन्ध में परम समय यही है लक ईनकी साथवकता ही
श्रीहरर की सेवा में है। यह भी लक ईन पणू व परुु षोिम का प्रसाद बने
लबना कहीं पणू तव ा नहीं अया करती।'
'अपका यह िोक' सभु ि ऄलधक किा-चचाव में रस िे
सके , ऐसी मनोवलृ ि ईसकी नहीं। बािक गम्भीर चचाव क्या जाने
197
और सभु ि को तो वाद्य, नमृ य, संगीत में भी रस नहीं। आसे ऄपने
कन्हाइ के नमृ य और वश ं ी ध्वनी से श्रेष्ठ सगं ीत-नमृ य कोइ दे
सके गा?
'हमारा िोक यलद सलु स्थर, कोइ एक रूप लस्थर होता तो हम
अपको नगर-भ्रमण करा देते लकन्तु आसे अप जैसा देखना चाहते
हैं। यह तो यहीं वैसा बनता जा रहा है।' तम्ु बरू ने ऄब ऄञ्जलि
बााँधकर प्राथना की - 'लजसके समीप जो होता है, ईसी से वह
श्रीहरर और ईनके जनों की सेवा करता है। हमारी सम्पलि तो
गायन, वाद्य, नमृ य है। अप अ गये हैं तो हमें सेवा का सौभाग्य दें।
हमारी किा भी साथवक हो, कृताथव हो।'
'ऐसा नहीं है लक हमारी किा लविास-किषु ही हो।' लकन्नर
ने भी हाथ जोडा - 'श्रीहरर की अराधना का आसे श्रेष्ठ साधन
महलषवयों ने स्वीकार लकया है। हम अपके सखा के सयु श को ही
साकार करने का प्रयमन करें गे।'
'मैं कन्हाइ का कीलतव-मान सनु ने ही यहााँ अया।' सभु ि प्रसन्न
हो गया। संयलमनी से यह संकपप िेकर न चिा होता तो यह
गन्धववपरु ी ईसके सम्मख
ु प्रकट ही क्यों होती।
198
वहााँ कोइ अयोजन नहीं करना था। ईस सक ं पप परु ी में तो
सोचा और साकार हुअ। ऄमयन्त लवशाि सभा-भवन ससु ज्ज
दीखा जहााँ वे बैठे थे और लदशाएाँ सरु लभ से झमू ईठी थी।
सभु ि भी एक बार लखि ईठा। ईसे िगा लक ऄपने गोिोक
के पश्चात् यहीं ईसे सौन्दयव एक साथ आतना देखने को लमिा है।
क्या हुअ लक वह ऄवणवनीय लदव्यमव नहीं और न वह सहज भाव
- यहााँ सब में संकोच का सलम्मश्रण है; लकन्तु जो सहह्ल-सहह्ल
लकन्नररयााँ, गन्धवव-कन्याएं अ गयी थीं नमृ य के लिए ससु ज्ज -
सौकुमायव, िलित िावण्य की वे सािात् प्रलतमाएाँ।
गन्धवव तरुणों ने लवलवध वाद्य लमिा लिये िणाथव में और
लकन्नरों की स्वर िहरी के साथ वे सषु मा की मलू तवयााँ िहराने
िगी।
व्रजराज दुलारे भूल न जाना।
आना, आना, हमारे घर आना।
भटक न जाना।।
छहर छहर मोर मुकुट।
लहर लहर वनमाल।
199
गोपाल प्यारे,
भुजभर रृदय लगाना।
हमें भूल न जाना॥
भले फूटे दसधभाण्ड,
क्षीरोदसच प्रवह-माण्ड
नवनी भोग लगाना;
कहीं भटक न जाना।।
व्रजराज दुलारे!
कन्हाई प्यारे!
मोर मुकट वारे!
हमें भूल न जाना!
सभु ि डूब गया - भि ू गया लक वह कहााँ बैठा है। भि
ू गया
लक सरु -सन्ु दररयों का भी लतरस्कार कर सकें ऐसी सहह्लश:
लकन्नररयााँ, गन्धवव-कन्याएं सम्मख
ु लथरक रही हैं स्वर की िहरी
पर। गन्धवों के वाद्यों और लकन्नरों के सगं ीत के साथ राग-
रालगलनयों के ऄलधदेवता साकार हो गये हैं।
200
सभु ि का लदव्य देह रोमालञ्चत हुअ, स्वेद स्नान हुअ और
कलम्पत होने िगा। ऐसा कम्प जैसे प्रबि शीतज्वर में भी
कदालचत ही होता है।
किाकार ही नहीं जो ऄपनी किा को जब रूप देने िगता
है, तब सावधान रह सके । वहााँ सब स्वर तन्मय थे। लकसी को
ऄपने ही शरीर का स्मरण नहीं था तो यह कै से पता िगता लक
सभु ि कब मलू च्छव त हो गया है।
'कन्हाइ! कनाँ!ू ' मछ
ू ाव में भी जैसे रृदय हाहाकार करके पक
ु ार
रहा हो।
'भि
ू न जाना!' क्या है, क्या है यह? आतना अग्रह, आतना
प्राणों में प्रवेश करता ऄनरु ोध, तो ऄपना कन्हाइ भि
ू भी जा
सकता है?
स्वर, सगं ीत, नमृ य-किा क्या जो भाव को रृदय का सच्चा
भाव न बना दे। सभु ि का रृदय मथ ईठा - जैसे िट जायगा -
'कन्हाइ भिू ा भी जा सकता है?'
201
िेलकन कन्हाइ - व्रजेन्िनन्दन ऄपनों को भि
ू ा नहीं करता।
गन्धवव-कन्याओ ं को पता नहीं िगा, लकन्नररयों को भी पता नहीं
िगा लक कब ईनके नमृ य करते पद रुके और वे मलू छव त होकर लगर
पडीं।
वाद्य लिये गन्धववगण मलू छव त पडे थे। ईनके कर जैसे थे वैसे
ही रह गये थे और लकन्नरों के मखु अिाप िेते खि ु े रह गये थे।
भवु न-मोलहनी मरु िी बजती है तो कहीं कोइ सावधान रह
पाता है? िेलकन ईस ऄमतृ नाद ने सभु ि को सावधान कर लदया।
ईसकी मछ ू ाव भगं हुइ और वह तािी बजाकर हाँस पडा - 'भिा
ऄपना कन्हाइ भी कहीं भि ू ा करता है।'
'किाकार भावकु होते हैं। ये सब के वि लटन-् लपन् ही नहीं
करते, झटपट थककर सो भी जाते हैं।' ईसने मलू छव ता गन्धवव-
कन्याओ ं और लकन्नररयों को भी देखा - 'ये छुइ-मइु -सी िडलकयााँ
- बहुत ईछिी-कूदी, ऄब आन्हें सोना चालहये।'
सभु ि चपु चाप धीरे से लखसक चिा। मछ
ू ाव टूटने पर सब
स्वत: समझ िेंगे लक ऄलतलथ भाग गया।
202
वायु लोक-
ऄनारोलपताकार प्रवाहमान वायु का कोइ िोक नहीं हो
सकता; लकन्तु वायु िोकपाि हैं। ईनकी लदशा है। पलश्चम-ईिर के
मध्यकोण को अप वायव्य कोण के नामसे जानते हैं। आसका ऄथव
ही है लक वायु देवता हैं और साकार देवता हैं। आसलिए वायु का
िोक है।
जैसे दीखनेवािे चन्ि और सयू व के वि पालथवव लपण्ड हैं,
पथ्ृ वी लपण्ड है, िेलकन आनके ऄलधदेवता हैं। अप भलू म पर रहते
हों; लकन्तु साकार भदू वे ी को जानते हो? ऐसे ही चन्िदेव या
सयू वनारायण भी अपसे ऄपररलचत हैं। ऄपररलचत ही हैं वायदु वे
भी। अप तो के वि स्थि ू ईस वायु को जानते हो लजसकी
तन्मात्रा स्पशव है, लजसका गणु स्पशव है, लजसके द्रारा अप
कोमि-कलठन, शीत-ईष्ण का ज्ञान प्राप्त करते हो।
यहााँ आस प्रवाहमान वायतु त्त्व की चचाव नहीं। चचाव आस वायु
के ऄलधदेवता की और ईनके िोक की। सभु ि ऄचानक चि
पडा था गन्धवविोक से और ऄलनच्छापवू वक संयोगवश ही वायु
िोक पहुचाँ गया।
203
आन्ि की कृपा और माता द्रारा श्रीहरर की अराधना ने लदलत-
पत्रु होने पर भी लजन्हें देवमव दे लदया वे ईनचास वायु सशरीरी
लमिे सभु िको।
वायु िोक और ईसके शरीर जैसे दीखकर भी न दीखते हों।
वे पारदशी हैं ऄथवा सलु चक्कण, कोमि हैं या के वि कोमि
िगते हैं - कुछ लनश्चयपवू वक ईनके सम्बन्ध में कहा नहीं जा
सकता।
ऄपने ढंग से ईस वायु िोक में सभु ि का स्वागत हुअ। ईसे
िगा लक ऄमयन्त सख ु द स्पशव ईसे प्राप्त हो रहा है। ऐसा तो नहीं
जैसा तब प्राप्त होता है जब कन्हाइ कण्ठ में भजु ाएाँ डािकर लिपट
जाता है। ईसकी तो समता नहीं? वह तो प्राणों में बसा है। िेलकन
आतना सख ु द स्पशव लजसकी सलृ ष्ट में समता नहीं। कोइ वस्तु छूती
नहीं िगती थी; लकन्तु स्पशव का सीमाहीन सख ु लमि रहा था।
'अप सब लकतने हैं?' सभु ि ही था लक वहााँ बोि सका।
दसू रा कोइ होता तो ईस सख
ु स्पशव मे डूब जाता।
'तमु ने हमको एक ही समझा होगा।' प्राण वायु ने ही सबका
नेतमृ व लकया।
204
'अप सब आतने दीखकर भी एक दीखते हो।' सभु ि ने ऄपने
अश्चयव का कारण स्पष्ट लकया।
'हम एक ही माता के ईदर से एक साथ ईमपन्न एक शरीर के
ही आतने भाग हैं।' प्राण ने कहा - 'आन्ि ने हमारे आतने भाग कर लदये
माता के ईदर में ही; लकन्तु हमको कृपा करके भाइ बना लिया।'
'आसी से कहीं कोइ समझ नहीं पाता लक अपमें-से कौन कहााँ
सलक्रय है।' सभु ि ने सहज कहा।
'प्राण, ऄपान, ईदान, व्यान और समान का भेद मानव-शरीर
के लवशेषज्ञ समझ गये हैं।' प्राण ने ही कहा - 'योगीगण नाग, कुमव,
कृकि, देवदि और धनञ्जय की लस्थलत शरीर में और आनका
कायव भी जानते हैं।'
'अाँधी, झञ्जा और सामान्य वायु का ऄन्तर भी समझना
सरि है।' सभु ि ने कहा।
'अप हमारे और भी कइ भेद सरिता से समझ सकते हैं।'
प्राणवायु ने बतिाया - 'सागर में िहरें ईठती हैं, ग्रहों में गलत है
205
और पदाथों में पररवतवन होता रहता है। आस सबका कारण भी
हमको ही रहना पडता है।'
'मैं चिता हाँ आसके कारण भी?' सभु ि ने हाँसकर पछ
ू ा।
'जहााँ भी गलत है' वह ऄणु की हो या प्राणी की, गलत का
वहन तो हमारा कायव है।' प्राण ने समझाया - 'सलृ ष्टकताव ने यह
सेवा हमें दे रखी है। लवलभन्न रूपों में हम आसे सम्पन्न करते हैं।'
'साथ ही ऄदृश्य रहते हैं और सबमें प्रलवष्ट भी रहते हैं।' सभु ि
ने सोचकर कहा - 'अप सब सदा सलक्रय रहते थकते नहीं?'
'हम सब सदा सलक्रय नहीं रहते। हम में से कुछ की सलक्रयता
के वि प्रिय के लनलमि जागती है।'
'यहााँ वे सोते रहते हैं?' सभु ि को कुतहू ि हुअ।
'हमारा यह िोक तो के न्ि है। प्रमयेक शलि का के न्ि
लशलथि-शान्त ही दीखता है।' वायु को भी समझाने के लिए शब्द
नहीं लमि रहे थे - 'िेलकन हमारा यह भ्रम लक हम स्वयं ऄनन्त
शलि, सवव समथव हैं, ईस लदन लमट गया जब सवेश्वर यि रूप में
206
प्रकट हुए। ईनके सम्मख
ु हम सब लमिकर भी एक तणृ को ईडा
नहीं सके थे। शलि तो ईनका प्रसाद है।'
'कन्हाइ ने अप िोगों के साथ भी नटखटपना लदखाया
िगता है।' सभु ि हाँसा - 'वह है ही ऐसा।'
'वे ऄलतशय ईदार तथा कृपामय हैं।' वायु ने लवनम्रतापवू वक
कहा - 'ईन गववहारी ने ईलचत समय पर हमें समझा लदया लक वही
शलि-स्वरूप हैं। हमको भिे शक्र ने देवमव दे लदया; लकन्तु हैं तो
हम आन्ि के लकंकर ही। हमारा ऄलभमान ईलचत नहीं था।'
'अपका िोक......।' सभु ि वायु िोक के िगभग द्रार पर ही
है - 'यह ईसने ऄनभु व लकया। वहााँ के लिए देखने का प्रयोग नहीं
लकया जा सकता, िेलकन बािक सभु ि सोचता था लक वह आस
िोक को भी देखेगा।
'शलि का के न्ि ऄप्रवेश्य होता है। वहााँ कोइ भी ऄन्य व्यलि
या तत्त्व प्रवेश करे तो िोभ ईमपन्न होता है।' वायदु वे ने कहा -
'अप हमें िमा करें । अप भी नहीं चाहेंगे लक सम्पणू व सलृ ष्ट में
व्यलतक्रम ईमपन्न हो जाय।'
207
'मैं लकसी व्यवस्था में व्याघात नहीं बनना चाहगाँ ा।' सभु ि
समझ गया लक वायु के िोक को भी दृश्य नहीं बनाया जा सकता।
ऄतः आन ईनचास वायु देवताओ ं से ही पछ ू कर ईनके सम्बन्ध की
जानकारी पानी पडेगी - 'अप सब सम्पणू व वस्तओ ु ं में व्याप्त रहते
हैं।'
'अप ऐसा कह सकते हैं।' प्राण वायु ने ही कहा - 'हमारी
दृलष्ट से तो कोइ वस्तु है ही नहीं। हमारा ही घनीभाव सलृ ष्ट है।'2
'हमारा यह िोक गलत का के न्ि है।' सभु ि को सोचते देखकर
वायु - प्राण वायु ने ही कहा - 'आस के न्ि में हममें-से कुछ शान्त
लस्थर रहते हैं। वे भी सलक्रय हो जाये तो सलृ ष्ट में गलत आतनी ईग्र-
प्रचण्ड हो ईठती है लक प्रिय हो जाती है। कुछ हममें-से सदा
सलक्रय रहते हैं और कुछ लवशेष ऄवसरों पर शक्र के सक ं े त से
सलक्रय होते हैं।'
2
आसीलिए सब पदाथो का वाष्पीकरण सम्भव है। भारतीय दशवन
के ऄनसु ार वायु से ऄलग्न, ऄलग्न से जि और जि से पथ्ृ वी
ईमपन्न हुइ। ऄतः ठोस पदाथों को तरि और तरि को वाष्प बना
लदया जा सकता है।
208
'सलृ ष्ट में ऄकस्मात् ईपिव शक्र क्यों कराता है?' सभु ि को
आन्ि ऄच्छा नहीं िगा था। यहााँ का लववरण सनु कर लिर
झाँझु िाहट जागी - 'यह आसीलिए सरु पलत है?'
'शासक को कभी कठोर भी होना पडता है।' प्राण वायु को
िगा लक लकसी प्रकार आस बािक को सन्तष्टु करना चालहये।
आसका िोभ यलद शक्र के लिए कोइ ऄपशकुन बने, वायगु ण को
भी बरु े लदन देखने पड सकते हैं। ऄतः ईन्होंने प्रसंग पररवलतवत
लकया - 'अपने सनु ा होगा लक समस्त लसलद्धयााँ प्राणायाम का
प्रसाद हैं। प्राणायाम का ऄथव ही है हमारी गलत का लनयन्त्रण।'
'मझु े नालसकोमपीडन ऄच्छा नहीं िगता।' सभु ि हाँस पडा -
'कन्हाइ लकसी जटाधारी के साथ कभी पररहास करना चाहता है
तो तम्ु हारी ये लसलद्धयााँ दे देता है। बेचारा कभी लचलडयों की भााँलत
ईडता है और कभी छोटा या बडा बनता है। कभी भारी या हपका
होता है। यह कान पकडकर ईठने-बैठने के समान व्यायाम - अज
पता िगा लक अप िोग ही आन जटा-जटू वािे िोगों को
बहकाकर आन्हें ईिझा देते हो।'
209
यह ऄच्छी रही। वायु देवता ने तो लसलद्ध का वरदान देना
चाहा था। ईिटे ईन्हें लचन्ता हुइ लक कहीं शाप न प्राप्त हो जाय।
झटपट बोिे - 'हमारा कोइ ऄपराध नहीं है। हम तो लकसी को भी
लसलद्ध न दें; लकन्तु स्वयं प्राणी प्रिब्ु ध होकर श्रम करता है, तब
ईसका ऄभीष्ट ईसे न देना क्या ईलचत होगा?'
'ऄलनच्छुक को अप लसलद्ध नहीं देते?' सभु ि के स्वर में
लझडकी थी। वह स्वयं कहााँ कोइ लसलद्ध चाहता है लक ईसके
सम्मख
ु यह प्रस्तावना प्रारम्भ की गयी।
'हम ऄपनी शलि के ऄनसु ार सेवा को प्रस्ततु हैं, के वि
आतनी सचू ना देना था मझु े।' प्राण वायु को ऄपनी भि
ू समझ में
अ गयी थी - 'वैसे ऄलनच्छुक साधक की सेवा में भगवती माया
जब लसलद्धयााँ भेजना चाहती हैं, हम ऄस्वीकार नहीं कर सकते।
हममें आतनी िमता ही नहीं है।'
'यह छोटी बलहन भी कन्हाइ के समान ही नटखट है।' सभु ि
हाँस पडा। 'आसे भी कुछ खटपट करते रहने को चालहये। यह भी
शान्त नहीं बैठ सकती।'
210
'वमस! तमु लकसे शान्त बैठा रहे हो?' सहसा एक ओर से
शब्द अया। 'सलृ ष्ट में जीवन कहते ही गलत को हैं और यह कभी
लनणवय नहीं हो पावेगा लक वायु से मेरा भेद कहााँ है। वैसे मैं गलत के
स्थान पर ईष्णता को जीवन कहता ह।ं '
सभु ि ने देखा लक लद्रमधू ाव, सप्तलजह्ऱा ऄलग्नदेव ऄपने बकरे से
ईतर रहे हैं तो ईसने ईन्हें हाथ जोडकर प्रणाम लकया।
'आन वायु देवताओ ं ने बता लदया होगा लक शलि का के न्ि
ऄप्रवेश्य होता है।' ऄलग्नदेव ने अशीवावद देकर कहा - 'आसलिए
मैं तम्ु हें ऄपने िोक की लस्थलत समझा देने यहीं अ गया।'
211
असनन लोक-
'ऄलग्न और वायु ऄलभन्न हैं।' ऄलग्नदेव ही कह रहे थे - 'वायु
से हमारी ईमपलि हुइ, के वि आस ऄथव में ही नहीं और आस ऄथव में
भी नहीं3 लक हम लनमय सहचर हैं। आस ऄथव में भी लक हम एक-
दसू रे का रूप, कायव भी सम्पादन करते हैं। गलत का ही दसू रा रूप
उष्मा है।'
'जैसे हम ईनचास हैं, ऄलग्न भी ईनचास हैं।' प्राण वायु ने
बतिाया - 'िेलकन हम जैसे सब सगे भाइ हैं, वैसे नहीं। आन
ऄलग्नदेव का पररवार तो पत्रु -पौत्र सलहत परू ा होता है।'
'ऄलग्नदेव स्वयं धमव के पत्रु हैं। ईनके तीन पत्रु हुए - पावक,
पवमान और शलु च। आन तीनों के पन्िह-पन्िह पत्रु हुए। आस प्रकार
यह पररवार ईनचास का हो गया।
'के वि वैलदक यज्ञ में हमारे परू े पररवार को स्मरण करके
अहुलत दी जाती है। ऄन्यथा तो ईनका स्मरण कोइ करता नहीं।
प्रिय में ही सब ऄलग्न सलक्रय होते हैं।' ऄलग्नदेव ने समझाया -
3
अकाशवाय,ु वायोरलगन् :, ऄग्नेराष: अपात् पलृ थवी ।- सांख्य
212
'ससं ार का काम हमारे लत्रलवध रूपों से चि जाता है। तमु भौम
(काष्ठालद से जिने वािे), लदव्य (लवद्यतु ) और जाठर (पाचन
लक्रया करनेवािे) हमारे रूपों से पररलचत हो।'
सभु ि बािक था। कमवकाण्ड के लवद्रान ही गाहवस्पमय,
अवहनीय, सभ्यालग्न और दलिणालग्न का भेद जानते हैं। वैसे
वैलदक लवद्रान तो अवसथ्य तथा औषस ऄलग्न से भी पररचय
रखते हैं।
साधारणत: हम-अप साधारण ऄलग्न जानते हैं जो हमारे -
अपके काम अते हैं। ऄब तो लदव्य ऄलग्न - लवद्यतु के रूप में
हमारे ऄलधक ईपयोगी हो गये हैं। समिु में वाडवालग्न और
ज्वािामख ु ी कहीं िूटता है तो पथ्ृ वी के पेट में रहनेवािे ऄलग्न
प्रकट होते हैं। ऐसे ही अहार के पाचान की लक्रया लजस ईष्णता से
होती है, ईसे जठरालग्न कहा जाता है।
के वि वन्य जालतयााँ और बहुत लनपणु वन-लवभाग के
कमवचारी ही सामान्य ऄलग्न और दावालग्न का भेद पलहचान पाते
हैं। लवज्ञान तो ऄभी आस लवषय में कुछ जानता नहीं।4
4
लकसी के द्रारा िगायी या िगी ऄलग्न वन में एक ओर से बढ़ती
है। िेलकन दावालग्न का स्वभाव दोनों लकनारों से घेरा बनाते बढ़ना
213
ऄभी लकसी ने वगीकरण का प्रयमन नहीं लकया। कोइ करे तो
ऄनेक ऄलग्नयों के भेद लमि जायाँगे। अयवु ेद स्वणव और पारद को
ऄलग्न ही मानता है। एलसड (तेजाब) ऄलग्न ही है, यह अप जानते
हैं और बारूद को ऄलग्न मानने में कोइ अपलि करे गा?
'वमस! संग-दोष बहुत बिवान होता है।' वायदु वे ने कुछ
व्यंग के साथ कहा - 'सववभिी होने का शाप तो ऄलग्नदेव को प्राप्त
हुअ; लकन्तु आनके संग के कारण मैं भी स्वग्राही हो गया।'
'यह ऄलनवायव लनयम मत मान िेना।' ऄलग्न ने प्रलतवाद लकया
- 'मेरा िोक वायु िोक से सववथा लवपरीत लदशा में है। पवू व-दलिण
का कोण मेरा। आतनी दरू वायु िोक, और मेरी ऄपनी पमनी स्वाहा
परम पलवत्र है। वह के वि सरु ों की अहुलतयों का वहन करती है।
ईसके पालतव्रत ने ईसे सगं -दोष से ऄसपं ष्टृ रखा। समथव परुु ष सगं
को ऄपने समान बना िेते हैं। ईससे स्वयं दलू षत नहीं हुअ करते।'
'अपका िोक?' सभु ि ने पछ
ू ा।
और मध्य के िेत्र को छोटा करते जाना है। वनवासी दावालग्न
पलहचानकर लघर जाने से पलहिे भाग पडते हैं।
214
'वह तमु सक ु ु मार के देखने योग्य नहीं है।' कहकर भी
ऄलग्नदेव सावधान हो गये - 'मैं जानता हाँ लक तमु सयू वमण्डि हो
अये हो। मेरा िोक ईतना ही दाहक; लकन्तु वहााँ हम सब
ज्वािामलू तव हैं। एक ही रंग तो वहााँ नहीं है; परन्तु है सब ईष्ण और
जानते ही हो लक ऄलग्न मन में हो तो क्रोध बनता है और पदाथव
बने तो लवष बनेगा यलद स्वणव न बन सका।'
'भगवन!् लवष और स्वणव में कोइ समन्वय है?' सभु ि को
कुतहू ि हुअ।
'तमु लभषक् बनोगे?' ऄलग्नदेव ने सहज पछ
ू ा - 'पारद ऄलग्न है
और लवष भी है। वह शोलधत होकर ऄमरमव दे देता है। स्वणव बना
देता है धातओु ं को। तमु को रस-लसलद्ध के लिए श्रम नहीं करना
पडेगा।'
'मझु े कोइ लसलद्ध नहीं चालहये।' सभु ि ने ऄस्वीकार कर लदया
- 'िेलकन मन में अया अपका रूप क्रोध - ईसका भी पारद के
समान पररपाक होता होगा?'
215
'वैराग्य वही तो बनता है।' ऄलग्नदेव का स्वर लशलथि हो
गया - 'यहााँ वरदान देने की लस्थलत में मैं नहीं ह।ाँ ओज-तेज,
लववेक-वैराग्य, ज्ञान-भलि के एकमात्र अश्रय श्रीकृष्ण। ईनके
स्वजनों का क्रोध भी कपयाण करता है। ऄलग्न के वि तम्ु हारी
कृपा की कामना करता है।'
'मेरे आन ऄलभन्न लमत्र का मि ू लनवास भगवान् प्रियंकर के
ततृ ीय नेत्र में है।' वायु देव ने ऄलग्न की प्रशंसा की - 'लवराट परुु ष
के ये ततृ ीय नेत्र हैं और वाक् आलन्िय आनसे ऄलधलष्ठत है। तमु आनके
वरदान की ऄवमानना मत करो।'
'मैं कहााँ ऄवमानना करता ह।ाँ ' सभु ि ने दोनों हाथ जोडकर
मस्तक झक ु ाया - 'अप दोनों वरदान दें लक मेरी गलत, वाणी,
शलि, सब कन्हाइ को छोडकर कहीं भटके नहीं। लकसी ऄन्य को
सन्तष्टु करने का साधन न बनें।'
'एवमस्त!ु ' दोनों देवताओ ं ने एक साथ कह लदया - 'हम
ऄपनी सामथ्यव के ऄनसु ार सदा आस सम्बन्ध में सावधान रहेंगे।'
'वमस! ऄभी तमु संसार में जा रहे हो।' ऄलग्नदेव ने स्नेहलशि
स्वर में कहा - 'तमु ने रसलसलद्ध ऄस्वीकार कर दी, आससे समझ
216
गया लक तमु वहााँ कपपान्त ऄमर होकर रहना नहीं चाहते; लकन्तु
ऄलग्न की तन्मात्रा रूप है और आसकी आलन्िय नेत्र है। तमु को
सौन्दयव तो ऄभीष्ठ होगा?'
'कन्हाइ का रूप तो मझु े सदा अकृष्ठ करता है।' सभु ि ने
प्रसन्न होकर कहा - 'ईससे सन्ु दर कोइ है? सलृ ष्ट में अपने लकसी
को आतना रूप दे लदया.....।'
'ईन सौन्दयव-लसन्धु के सीकर से सलृ ष्ट सन्ु दर बनती है।'
ऄलग्नदेव ने हाथ जोडा - 'मेरा तामपयव था लक संसार में तमु
एकाकी तो नहीं रहोगे। तम्ु हें सन्ु दर िडलकयों की..........।'
'मैं एकाकी क्यों रहगाँ ा? कन्हाइ को मेरे साथ रहे लबना कि
पडेगा?' सभु ि सप्रु सन्न कह रहा था - 'िेलकन ईसे लववाह करने
का चाव चढा ही रहता है। सलृ ष्ट की सब सन्ु दर िडलकयााँ मझु े
लमिें तो मैं सबका कन्हाइ से लववाह कर दगाँू ा। के वि एक
कलठनाइ मझु े िगती है।'
'वह क्या?' वायु देव को िगा लक सम्भव है सेवा का कोइ
ऄवसर लमि जाय। ऐसे ऄवसर में वे ऄपने ऄलभन्न लमत्र ऄलग्न
को भी सलम्मलित करने को प्रस्ततु नहीं थे।
217
'सब िडलकयााँ झट रूठती हैं और रोने िगती हैं।' सभु ि ने
कहा - 'आनके सगं से कहीं कन्हाइ रूठनेवािा बन गया तो?
ईसका रुदन तो सहा ही नहीं जा सकता।'
'तम्ु हारे सखा के योग्य िडलकयााँ सलृ ष्ट में कहााँ से होंगी।'
ऄलग्नदेव ने कह लदया - 'वे तो के वि तम्ु हारे ऄपने िोक में हैं।
सलृ ष्ट में तो ईनके प्रलतलबम्ब भी लवकृत हो जाते हैं।'
वायु और ऄलग्न दोनों देवता हैं। देवताओ ं को भिा क्यों
ऄनभु व होगा लक पथ्ृ वी पर मनष्ु यों को स्वेद भी अता है और
जब स्वेद अवेगा तो तलनक से प्रमाद या सगं -दोष से सदु ीघव के शों
को स्वेदज जाँू ऄपना लवहार-वन ऄवश्य बना िेंगी। सभु ि को
कोइ कह देता लक िडलकयों के िम्बे के शों में जएु ाँ भी हो सकती
हैं तो कम-से-कम पथ्ृ वी पर तो वह ऄपने सखा के लववाह की
बात भि ू ही जाता। ईसके कन्हाइ की कोमि, घघंू रािी, घनी
ऄिकें - पर लकसी देवता ने सभु ि के मन में के शोंमें जाँू की बात
नहीं कही, यह ऄच्छा ही हुअ। वह पथ्ृ वी पर भी जब अया,
ईसके मन में यह लवतष्ृ णा नहीं थी।
218
'दो कोण लदशाएाँ और भी तो हैं?' सभु ि ने देख लिया लक
वायु और ऄलग्न के िोकों को ऄप्रवेश्य कह लदया गया है तो पता
नहीं शेष दोनों कोणों की क्या लस्थलत हो। वह यहीं पछ
ू कर जान
िेना चाहता था।
'लदशाएं तो दस हैं और ईन में से ऄलधक तमु देख चक ु े हो।'
वायदु वे लववरण देने िगे - 'पवू व लदशा के लदक्पाि देवराज आन्ि हैं।
तमु ईनके स्वगव हो अये हो।'
'स्वगव कोइ ऄच्छा स्थान नहीं है।' सभु ि के मन में ऄब तक
लवतष्ृ णा बनी है - 'ईससे ईिम तो धमवराज की परु ी संयलमनी है।'
'वह दलिण में है। यमराज दलिण के लदक्पाि हैं। पवू व और
मध्य आन ऄलग्नदेव का िोक है।' वायदु वे कहते गये - 'दलिण-
पलश्चम के मध्य के कोण का नाम नैऊमय है। लनऊलत देवता नरकों
के सरं िक हैं।'
'धमवराज ने मेरे लिए ईसे ऄदृश्य बतिा लदया।' सभु ि ने
कहा।
219
'ठीक ही कहा ईन्होंने।' वायदु वे सभु ि को आस लवषय में
ईदासीन ही रखना चाहते थे। ऄत: लववरण देते गये - 'पलश्चम-ईिर
के वायव्य कोण में मेरी परु ी के द्रार पर अप ईपलस्थत ही हैं। ईिर
के लदकपाि कुबेर और पलश्चम के वरुणदेव। िेलकन वरुण की परु ी
लवभावरी समिु के भीतर है।'
'तमु ईिर-पवू व के मध्य कोण इशान के ऄलधदेवता भगवान
लशव से पररलचत हो।' ऄलग्नदेव ने आस पररचय को परू ा कर लदया -
'कुबेर की ऄिकापरु ी लशव के कै िाश के समीप ही है। उध्वव के
ऄलधष्ठाता सलृ ष्टकताव ब्रह्मा और ऄध: के भगवान् शेष।'
'मैं सलृ ष्टकताव और भगवान शेष के भी समीप हो अया ह।ाँ '
सभु ि ने स्वत: कह लदया - 'िेलकन अप दोनों ने पालथवव जगत में
कहााँ से ईतरना सगु म है, यह कुछ नहीं बतिाया।'
'नैऊमय कोण में ही लपति ृ ोक है ऄन्तररि में।' वायदु वे ने
कहा - 'वैसे चन्ििोक का ऄन्तराि है वह। ऄयवमा ईसके
ऄलधष्ठाता हैं। परन्तु अपको वह बहुत नीरस िगेगा। ईससे बहुत
ईिम है प्रचेता (वरुण) की परु ी।'
220
वरुर् की व्यथा-
ऄगाध ऄनन्त ईच्छलित ईदलध ऄपनी गहराइ में ऐसा शान्त
था, जैसे वहााँ कभी कोइ हिचि होती ही न हो। समिु के मध्य
की वह लवभावरी परु ी; लकन्तु आस वणवन के अधार पर कोइ
पनडुब्बी पानी में ईसे पाने का प्रयमन करे गी तो मख ू तव ा करे गी।
दसू रे लदक्पािों की परु रयों के समान प्रचेता की परु ी भी सक्ष्ू म
जगत में ही है। वरुण कोइ पालथवव प्राणी नहीं हैं। वे जिालधदेवता
हैं।
सभु ि के पहुचाँ ते ही ऄनेक रंगों की छोटी चपि मछलियों ने
ईसका शरीर मख ु से स्पशव लकया। वे िाि, नीिी, सनु हिी या
रजत-श्वेत चमकीिी मछलियााँ जैसे जिपरी हों। ईनके स्पशव से
एक गदु गदु ी ईठती थी।
'वमस! हमारे जि-जन्तओु ं की यह स्वागत पद्धलत है। िेलकन
आनमें सब दन्तहीन हैं। भय का कारण नहीं है।' ऄचानक श्वेत
सगु लठत प्रिम्ब शरीर, ऄमयपप के श, पाशहस्त जिालधदेवता
स्वयं द्रार के समीप अ गये। ईनके वह्ल जैसे िहरों से ही लनलमवत
हों।
221
सभु ि ऄब तक चलकत ईस परु ी को देख रहा था। ईसका
सम्पणू व लनमावण शख
ं , मि
ु ाशलु ि और घोंघों से हुअ था। मि
ु ा की
झािरें ऐसी िगती थीं जैसे जिलबन्दु लस्थर हो गये हों।
वरुण के अगमन के साथ छोटी मछलियााँ भाग गयीं। सभु ि
ने प्रणाम लकया। जि के देवता ने एक सेवक की ओर संकेत
लकया - 'यह तमु को परु ी लदखिा देगा। जो जानना चाहोगे, बतिा
देगा। हम तम्ु हारी प्रतीिा करें गे।'
वरुण का वह चर - सभु ि ने ऐसा कोइ प्राणी ऄब तक नहीं
देखा था। वह दैमय था; लकन्तु सींग वािा जिचर दैमय। अकृलत
में बडे घोंघे के भीतर होने वािे प्राणी के समान; लकन्तु बहुत
लवशाि। था तो पादचारी, परन्तु मछलियों के समान तैर सकता
था।
'हम ईपदेवता कामरूप होते हैं। मैं तम्ु हारे समान अकार
ऄभी बना िे सकता ह।ाँ ' ईस लवलचत्र प्राणी ने कहा - 'लकन्तु हमारे
सागर के सब जीव सौम्य ही नहीं हैं। वे सब सानक ु ू ि रहेंगे यलद मैं
ऄपने आसी अकार में रहें।'
222
'मझु े तम्ु हारे अकार का प्रयोजन भी क्या है।' सभु ि ने ईसे
ईसी रूप में साथ रहने की स्वीकृलत दे दी।
'अप यहीं से एक दृलष्ट ईदलध देख िें।' ईसने पता नहीं
ऄपनी लकसी लसलद्ध का प्रयोग लकया या कुछ और - सभु ि को
िगा लक समिु का बहुत बडा भाग पारदशी जैसा हो गया है।
सचमचु सागर में योजन-लवशाि प्राणी थे। महाममस्य लतलम,
लतलमंगि, महासपव ही नहीं, ईसे जिघोटक, जिगज और ईनसे
भी भयानक प्राणी दीखे। ऄष्टपद तो बहुत छोटा िगता था।
ऄसंख्य प्रकार के ममस्य और ईनमें से भी ऄनेकों के शरीर में
जोंक के समान लचपटे भारी सपावकार प्राणी।
बहुत सन्ु दर जिजीव भी थे और वे भी ऄसख्ं य थे। समिु
सचमचु रमनाकर है। ईसमें के वि माँगू े के पववत और मि ु ा के
ऄम्बार ही नहीं हैं, दसू रे रमन, धातएु ाँ भी आतनी हैं लक पथ्ृ वी पर
ईनकी कपपना नहीं। समिु ी जीवों के मरने पर ईनका जो खोि
बचता है - शख ं , शलु ि, घोंघा जैसे कुछ नाम ही हम ईनके जानते
हैं। िेलकन ईनके भेद और संख्या का लठकाना नहीं।
223
समिु गभव के ऄद्भुत ईद्यान को देखकर सभु ि प्रसन्न हो
गया। ईसे वरुण के चर ने बतिाया - 'हमारा यह ईद्यान कठोर-
स्पशव और सागर-गभव में सयू व की लकरणें न पहुचाँ ने से आसमें के वि
श्वेत रंग है। वस्ततु : यह भी जिजीवों के शरीरों का खोि ही है।
वैसे आसमें कोमि स्पशव भी बहुत हैं।'
'ऄनेक धाराए-ं सी देखता ह।ाँ ' सभु ि ने लजज्ञासा की - 'कुछ
धाराएं तो प्रालणहीन प्रतीत होती हैं।'
'सागर में आतनी सररताएाँ हैं लक पथ्ृ वी पर सम्भव नहीं।' वरुण-
चर ने बतिाया - 'आन्हें धारा कहा जाता है। आनमें ऄनेक ऄमयन्त
ईिप्त हैं। अपने सनु ा ही है लक ईदलध के ऄन्तराि में बडवालग्न है।
ये ऄपनी चौडाइ में सररताओ ं से कइ गनु ी ऄलधक हैं।'
'यें गायें!' ऄचानक समिु ति में घमू ती कुछ गायों को
देखकर सभु ि प्रसन्न हुअ - 'ये जि में घमू ती हैं?'
'सलृ ष्टकताव ने आनका लनमावण है।' चर ने बतिाया - 'ये पथ्ृ वी
पर और जि में समान रूप से चि सकती हैं। आतनी लदव्य हैं लक
आनके िोभ ने महलषव कश्यप और देवमाता को भी शाप लदिवा
224
लदया। िेलकन ये सन्तान नहीं देती। आनका दधू ऄमतृ है और ये
ऄमर हैं।'5
गायों को सभु ि ने प्रणाम लकया। वे दरू न होती तो ईन्हें
सहिाता; गो-दशवन के पश्चात समिु देखने में ईसकी रुलच नहीं रह
गयी। वह प्रचेता के पास िौट अया।
'मेरा स्थान ऄमरावती में ही था। मैं वषाव का भी लनयन्त्रक
था; लकन्तु आन्ि ने मझु े लनकाि लदया। के वि पथ्ृ वी तथा सागर के
जि का ऄलधकार रहा मेरे पास।' सभु ि का समकार करके वरुण
ईससे ऄपनी व्यथा बतिाने िगे - 'मझु े ऄसरु कहा जाने िगा।
आसमें मेरा क्या ऄपराध है लक मझु े जिीय ऄसरु ही ऄनचु र लमिे
और राजसयू यज्ञ करके दैमय, दानव प्रभलृ त को पराजय करने में
तो सरु कायव ही लकया था।'
'आन्ि इषाविु है।' सभु ि को सरु पलत से कोइ सहानभु लू त नहीं -
'वह लविासी है, ऄतः ऄपपप्राण भी होगा।'
5
आनका वणवन ‘श्रीद्राररकाधीश’ में परू ा अया है।
225
'िोकपािों में आन्ि ही सलृ ष्टकताव के एक लदन में चौदह
बदिते हैं।' वरुण ने बतिाया - 'शेष हम सबको कपपान्त अयु
लमिी है। ऄसरु भी के वि ऄमरावती को अक्रान्त करते हैं। ईन्हें
पता होता है लक दसू रे िोकपािों को लकतना दालयमव वहन करना
पडता है। िेलकन मझु े ऄमरावती से लनवावसन का दःु ख नहीं है
और न देवेन्ि की दष्टु ता की व्यथा है। मेरी व्यथा तो मनष्ु य बढ़ा
रहे हैं और बढ़ाते ही जायाँगे। प्रिय से पवू व मझु े भी पररत्राण का
कोइ पथ नहीं सझू ता।'
'मरणधमाव मनष्ु य अप जिालधदेव को व्यलथत बनाता है?'
सभु ि ने अश्चयवपवू वक पछ
ू ा। ईसे वरुण से सहानभु लू त हो अयी।
ऄभी तो सलृ ष्ट का प्रारम्भ है। मनष्ु य और पशओ
ु ं का भी दोष
नहीं है, यलद ईनके मि-मत्रू से िररत िवण सररताओ ं के माध्यम
से समिु में पहुचाँ ता है।' वरुण ने कहा - 'भगवान सयू व जि का
वाष्पीकरण करके वषाव करते ही रहेंगे। सागरीय जि ईिरोिर
िवणोदलध बनता जायगा। िेलकन मनष्ु य को आस िवण की
अवश्यकता पडेगी। वह पनु ः िे जायेगा समिु से प्राप्त िवण।'
'तब तो सन्ति
ु न बना रहेगा।' सभु ि ने समझा लक वरुण की
लचन्ता ऄकारण है।
226
'वमस! तमु ऄभी धरा के मरणधमाव आस मनष्ु य को जानते
नहीं हो। आसे सलृ ष्टकताव ने बलु द्ध दे दी है और आसको बलु द्ध को
बलहमवख ु ता के ििण मैं ऄभी से देख रहा ह।ाँ ' वरुण के स्वर में रोष
नहीं, बहुत व्यथा थी - 'यह ऄभी से ममस्य भिी होने िगा है।
अगे जाकर आसके वाहन दौडेंगे मेरे वि पर और मि-मत्रू ही
नहीं, लवष से भर देगा यह ईदलध का जि। यह ऐसे कृलत्रम पदाथव
बनावेगा और ईन्हें जि में ईमसगव करे गा लक ईन्हें सडाकर
अममसात् करना सागर के लिए भी सम्भव नहीं होगा। जि के
वाष्पीकरण में भी बाधा पडेगी और यह जब समिु के जि के
ईपयोग पर ईतरे गा, सागरीय िव्यों को लनकािने के दैमयाकार
साधन ऄपनावेगा - वरुण को दररि बना देगा।'
'मझु े ऄपने कंगाि होने का कोइ दःु ख नहीं।' वरुणदेव बहुत
दख
ु ी थे - 'तमु जानते ही हो लक सररताएाँ मेरी पलमनयााँ हैं। कोइ
ईनका सम्पणू व जि मि-मत्रू तथा लवष से दलू षत करदे - यह भी
सह िेता मैं यलद आससे सलृ ष्टकताव की सवोिम कृलत मानव सख ु ी
होता। वह तो आस सबसे ऄपने लिए ऄसंख्य रोगों, कष्टों और
ऄपममृ यु का सजवन करे गा।'
227
'अप पजू ा प्राप्त करते हैं मनष्ु यों से।' सभु ि ने कहा - 'ईनसे
अपकी सहानभु लू त ईलचत है।'
'ऄभी पजू ा प्राप्त कर रहा ह;ाँ लकन्तु वरुण को वतवमान नहीं,
ईनका भलवष्य ज्ञान ही बहुत व्यलथत कर रहा था - पजू ा तो मनष्ु य
परमाममा की भी मयाग देनेवािा है। ऄपने ऄधःपतन के लदनों में
वह हम देवताओ ं को कहााँ पछ ू ने चिा है।'
'तब वह ऄपना संहार स्वयं अमलन्त्रत करे गा।' सभु ि लचन्ता
करना नहीं जानता - 'कन्हाइ को कोइ क्रीडा सझू ती होगी।'
'मानव तो जि की सिा ही समाप्त करने के साधन
जटु ावेगा।' वरुण को अश्वासन नहीं लमि रहा था - 'वह
वि
ृ ोन्मिू न करके प्राणवायु की प्रालप्त के लिए जि पर लनभवर
करे गा और जिीय तमव का भी लवभाजन करने िगेगा।'
'मेरी ऄपनी पहुचाँ तम्ु हारे सखा तक नहीं है।' कुछ िण
रुककर स्वयं वरुण ने कहा - 'ऄलधक-से-ऄलधक मैं ईदलध में शेष-
शय्यापर शयन करते ऄपने जामाता से प्राथवना कर सकता ह।ाँ '
228
'अपको ईनसे लनराशा क्यों है?' सभु ि ने ऄब पछ
ू ा। भगवान
शेषशायी ईसे ऄमयन्त कृपामय ही प्रतीत हुए थे।
'मैं ईनकी कोइ सेवा नहीं कर पाता।' वरुण बोिे - 'मेरी पत्रु ी
ऄलतशय करुणामयी है। ईसे सब ऄपने ही पत्रु िगते हैं। वैसे वह
ऄजात-पत्रु ा - मैं तरस ही गया लक मझु े मातामह कहनेवािा कोइ
दौलहत्र होता!'
'अप ईन श्रीहरर से प्राथवना करें !' सभु ि के पास ही वरुण को
अश्वासन देने का दसू रा क्या ईपाय था? ईसने जिालधदेवता से
लवदा िी। ईसे ऄब ऄलन्तम िोकपाि के भी दशवन कर िेने थे।
229
कातर कुबेर-
'ऄच्छा, अप लनलधपलत कुबेर हैं।' सभु ि ऄन्ततः बािक है।
ऄिका अकर जब ईसने राजालधराज वैश्रवण को देखा, कुछ
पीठ झकु ाकर, लसर ईठाकर लवनोदपवू वक लचढ़ा देने के ढंग से बोि
पडा।
'हााँ वमस! यह कुरूप6, काना, कुबडा, कािा मोटा तलु न्दि
व्यलि कुबेर कहा जाता है।' वैश्रवण ने स्वयं ऄपनी कुरूपता का
वणवन करके ऄपने को लचढ़ाये जाने से बचा लिया - 'लजसका
एकमात्र शेष नेत्र पीिा, गोि, दो नेत्रों लजतना बडा है और
लजसके पैर लठगने, टेढ़ेप्राय हैं। आसी से यह नरवाहन है। दसू रे के
कन्धे पर चिने को लववश।'
'िेलकन अप आतनी भारी गदा रखते हैं।' सभु ि ने ऄब
लनलधपलत के शह्ल की ओर देखा।
'सलृ ष्टकताव क्रूर नहीं हैं। वे लकसी से एक या ऄलधक आलन्िय
छीनते हैं तो ईसके दसू रे ऄगं को सशि बना देते हैं।' वैश्रवण ने
बतिाया - 'मैं यिों का ऄलधपलत ह।ाँ यि रािसों के ही भाइ हैं
6
बेर का ऄथव है शरीर। कु+बेर - कुरूप शरीर।
230
और सदा भख ू करते रहने के कारण ही तो यि7 कहिाते हैं।
ू -भख
आनको अतलं कत न रखा जाय तो ये ईमपात ही करते रहें।'
'अप ऐसे ईपिलवयों को क्यों पािते हैं?' सीधी बात लक जो
स्वभाव से ईमपाती हैं, ईनको पास ही क्यों रखा जाय।
'आसलिए लक लनलधपलत ह।ाँ ' कुबेर गम्भीर हो गये - 'संसार में
सब मेरी सम्पलि को छीनने, चरु ा िेने को सदा ईमसक ु रहते हैं।
शान्त, सौम्य िोग तो ईसकी रिा कर नहीं सकते। सशि, ईग्र
रिक ही रिा-सिम होते हैं।'
'अपकी कोइ लनलध मैं कभी नहीं िाँगू ा।' सभु ि ने कुबेर को
अश्वासन लदया। वह ऄपनी ओर से ही नहीं, ऄपने सखाओ ं की
ओर से भी अश्वस्त करना चाहता था - 'मेरा कोइ सखा नहीं िेगा
और कन्हाइ तो के वि गञ्ु जा, कलणवकार या कदम्ब के कुसमु ों से
ससु ज्ज हो जाता है।'
'अप में से कोइ स्वीकार कर सकता तो साथवक हो जाती
सम्पणू व लनलधयााँ।' वैश्रवण का स्वर भर अया - 'अपके सखा के
सानकु ू ि होने से ही भगवती श्री की कृपा से कुबेर लनलधपलत है।'
7
यि का ऄथव है - खा िो!
231
'क्या हैं अपकी लनलधयााँ!' सभु ि ने भोिेपन से लिर
अश्वासन लदया - 'अप के वि नाम बता दो। मैं ईन्हें देखना भी
नहीं चाहता। लकसी का कोष देखना ऄच्छी बात नहीं।'
'लनलध के वि नौ हैं - 1. पद्म, 2. महापद्म, 3. शंख, 4. मकर,
5. कच्छप, 6- मक ु ु न्द, 7. कुन्द, 8. नीि, 9. वचाव।' कुबेर को
स्वयं िगा लक नाम लगना देना पयावप्त नहीं है। ऄतः ईन्होंने
व्याख्या कर दी।
1. स्वणव, रजत, ताम्रालद समस्त बहुमपू य खलनजों का पता
एवं प्रालप्त पद्म पर लनभवर है। यह एक प्रकार की शलि है जो शरीर
के भ्रमू ध्य चक्र में लस्थत है।
2. महापद्म भी शलि ही हैं; लकन्तु सहह्लार में रहती है। आससे
मि
ु ा, प्रवािालद सागर गभीय रमनों का पता िगता तथा प्रालप्त
होती है।
3. शंख सागर के दलिणावतव शंख को के वि प्रतीक सलू चत
करता है। वस्ततु : यह ऄमंगि-वाररणी शलि कण्ठचक्र में वास
करती है।
232
4. मकर - यह रृदय चक्र में रहनेवािी ऐसी शलि है, लजससे
लदव्यौषलधयााँ पलहचान िी जाती हैं।
5. कच्छप - यह नालभचक्र की शलि है। आसी के जागरण के
ििस्वरूप योगी रसलसलद्ध का रहस्य पाकर ऄमरमव पा िेता है।
6. मक
ु ु न्द का लनवास लद्रतीय चक्र में है। आसको पाकर ऄनेक
प्रकार की लसलद्धयााँ लमि जाती हैं।
7. कुन्द मि
ू ाधार लनवालसनी लनलध है। यही कुि कुण्डलिनी
कही जाती है। कलवत्त्व शलि आसके जागरण का प्रसाद है। आसके
द्रारा कलपिा गौ8, श्याम कणव ऄश्व, ऐरावत कुिोद्भव श्वेत गजालद
लमि सकते हैं।
8. नीि - गडे धन का पता देने वािी शलि है।
9. वचाव ऄथावत् वचवलस्वता - यह तमु में स्वभाव से है।
लजस गाय के खरु , थन, पाँछ
8
ू , नेत्र, लजह्ऱा, लसंग सब श्वेत हो।
शरीर में कहीं दसू रा रंग न हो, वह कलपिा कही जाती है।
233
'अप धनालधप भी तो हैं।' सभु ि ने पछ
ू ा।
'क्योंलक ससं ार का सम्पणू व धन लनलधयों के ही ऄन्तगवत अ
जाता है, मझु े िोग धनेश कहते हैं।' वैश्रवण ने लवनयपवू वक कहा -
'भगवान रुि के पडोस में बसने का यह प्रसाद लमिा मझु े लक वे
परु ारर आस कुबडे को सखा स्वीकार करते हैं। ईनके गणों का भय
ऄलधकांश िोिपु ों को मझु से दरू रखता है। वैसे भगवती
लसन्धसु तु ा ही सम्पणू व ऐश्वयव एवं सम्पलि की स्वालमनी हैं। ईन्होंने
आस जन को कृपा कर के यह धनाधीश पद दे लदया है।'
'यि ओर भतू प्रेत - सगं तो अपने बहुत सन्ु दर चनु ा है।'
सभु ि तािी बजाकर हसं ा। ईसने कहा नहीं लक 'अपके रूप के ही
ऄनरूु प यह सगं लत है।'
'बहुत सशक
ं रहना पडता है लनलधपलत को।' कुबेर ने कहा -
'सम्पलि को कोइ कभी छीन िे सकता है। सलृ ष्टकताव ने तपस्या,
मन्त्र तथा एकाग्रता - समालध में लसलद्धयााँ पाने की शलि तो रखी
ही, ऄत: योग में रहती ही है; लकन्तु ऄनेकों को जन्म से लसद्ध
बना देते हैं। यह सब ईतनी अशंका का कारण न होता यलद
234
औषलध में यह शलि न होती। औषलध की शलि का ऄन्वेषण
कोइ कभी कर िे सकता है।'
'अप सरं िण के लिए सदा सलचन्त रहते हैं।' सभु ि को दया
अयी। लजसे िेकर के वि लचन्ता लमिे, वह सम्पलि क्या काम
की।
'मेरे यिों को भतू -प्रेतों का सहयोग सरिता से लमि जाता
है।' कुबेर ने कहा - 'ऄनलधकारी के प्रयमन में ही वे बाधक नहीं
बनते, ऄनलधकारी के द्रारा ऄलधकृत सम्पलि को भी वे सरु लित
कर देते हैं। वह ईसके ईपभोग से वलञ्चत कर लदया जाता है और
के वि ईपाजवक तथा रिक रह जाता है। ऐसे लविप्राण प्राय:
मरणोपरान्त सपव या प्रेत बनकर यिों के सेवक हो जाते हैं।'
'अपको आससे क्या िाभ?' सभु ि ने सीधा प्रदन लकया।
'वमस! तमु बािक हो। तम्ु हें सम्पलि के सग्रं हीत होने और
ईसका स्वामी ऄनभु व करने के सख ु का पता नहीं है।' कुबेर ने
कुछ ऄहक ं ारपवू वक ही कहा - 'आसी स्वालममव के कारण वैश्रवण
ब्राह्मणों के यज्ञों में राजालधराज कहकर स्ततु होता है। सब सकाम
235
व्यलि ऄपनी कामना-पलू तव के लिये कुबेर की कृपा-याचना करते
हैं।'
'कन्हाइ भी ऄद्भुत है।' सभु ि को कुबेर के ऄहक ं ार ने रुष्ट कर
लदया - 'एक कुबडे को ईसने आतना ऄज्ञ बना लदया लक वह यह भी
नहीं समझता लक सलृ ष्ट में स्तलु त करने तथा शरण िेने योग्य के वि
श्रीव्रजेन्िनन्दन है। िेलकन ठहर, मैं बतिाता हाँ तझु े। तेरी ऄिका
के पास ही कै िास है। मैं ऄम्बा से कहता हाँ लक ईन्होंने यह क्या
पडोस में काना-कुबडा पािा है।'
'मैं अपकी शरण ह।ाँ ' गदा िें ककर वैश्रवण ऄपने वाहन बने
मनष्ु य (यि) के कन्धे से ईतरे और ईन्होंने सभु ि के चरण पकड
लिये - 'बडी कलठनाइ से भगवान लशव के समझाने पर वे
शैिसतु ा मझु से सन्तष्टु हुइ थीं। ईनकी ओर देखने से ही मेरा एक
नेत्र जाता रहा।9 ईनका रोष मझु े आस बार मार ही देगा।'
'तू लवश्रवा मलु न का पत्रु हो गया तो समझता है लक वैश्रवण
तेरा ही नाम है?' ऄपने चरणों में िढ़ु के तलु न्दि लनलधपलत को
सभु ि ने डााँटा - 'लनश्चयपवू वक जो एकमात्र श्रवणीय है वह
9
‘लशव-चररत’ में यह परू ी कथा गयी है।
236
श्यामसन्ु दर ही वैश्रवण - ईसके ऄलतररि ऄन्य कोइ राजालधराज
हो कै से सकता है। श्रलु त और श्रौत ब्राह्मण ईसके ऄलतररि लकसी
की स्तलु त करें ग?े कोइ काना लवप्रों का वन्दनीय बन सकता है?'
'अप जानते ही हैं लक भगवती लसन्धसु तु ा ईिक
ू वालहनी हैं।'
कुबेर हाथ जोडकर लगडलगडाये - 'ईनके आस अलश्रत पर अप
दया कीलजये। मैं ऄबसे अपकी व्याख्या को कभी नहीं भि ू ंगू ा।
वचन देता हाँ लक वैश्रवण की स्तलु त में लजनको अपके सखा का
स्मरण अवेगा, कुबेर ईनकी सेवा ऄपना सदा सौभाग्य मानता
रहेगा।'
'ऄच्छा, ऄम्बा को ईपािम्भ नहीं दगाँू ा।' सभु ि सन्तष्टु हो
गया।
'अपका आसी समय कै िास जाना अवश्यक है?' कुबेर
ऄमयन्त भय-कातर हो रहे थे। ईन्हें िगता था लक आन्होंने ईमा-
महेश्वर से कुछ चचाव भी कर दी तो ऄिका के लछन जाने में कोइ
सन्देह नहीं रहेगा। ईनका िोकपाि पद भिे बना रहे; लकन्तु
भगवान व्योमके श भी ईन्हें पडोस में रखने को प्रस्ततु नहीं होंगे।
237
'मैं तम्ु हारे भय को समझता ह।ाँ ' सभु ि ने कुबेर को लनलश्चन्त
कर लदया - 'के वि ऄम्बा के समीप जाकर ईन्हें कह देना लक
ईनका यह लशशु ससं ार में जा रहा है - आसका ईन्हें ही स्मरण
रखना है।'
'भगवान परु ारर से अपको कुछ नहीं कहना।' कुबेर ने पछ
ू ा।
'मझु े लकसी की मध्यस्थता लप्रय नहीं।' सभु ि चिते-चिते
कह गया - 'बाबा के पदों में यहीं से प्रणाम!'
238
असहाय अयशमा-
'ऄके िे रहते हैं अप यहााँ?' लपति
ृ ोक पहुचाँ कर सभु ि चौंक
गया। चन्ििोक के आस स्थान पर तो ऄयवमाजी के ऄलतररि कोइ
जान ही नहीं पडता। न सेवक, न सहचर। भिा ये ऄके िे क्या
करते होंगे?
चन्ििोक लपति ृ ोक है; लकन्तु अपके सम्बन्धी शरीर
मयागकर जाते हैं, तब यहीं अपको नहीं दीखते, चन्िमा पर
पहुचं कर अप ईनसे सम्बन्ध स्थालपत करने की अशा कै से कर
सकते हैं? वे आसमें समथव होते तो जाते-जाते ऄपने पत्रु , भाइ अलद
से लमिकर जाते। ईनके पास पाञ्चभौलतक देह तो है नहीं। ईनके
अलतवालहक शरीर का मानव-शरीर के सम्मख ु प्रकट हो जाना भी
ऄपवाद रूप से - जब ईन्हें लकन्हीं कारणों से लवशेष शलि,
सलु वधा लमि जाय तभी सम्भव है। यह भी ऄपपकालिक होती है।
'ऄके िा और ईपोलषत भी।' ऄयवमा ने हाँसकर ही कहा -
'लपतिृ ोक तो पान्थशािा ऄथवा प्रतीिािय है। ऄभी सलृ ष्टकताव
के प्रथम कपप का सतयगु ही अरम्भ हुअ है। ऄतः ऄभी तो
प्रतीिािय को भी पलथकों की प्रतीिा ही करनी है।'
239
'अप ईपोलषत क्यों हैं?' सभु ि को अश्चयव के साथ दया भी
अयी।
'पान्थशािा के प्रहरी का लनवावह तो वहााँ पधारे पलथकों की
सेवा से होता है। यहााँ लपतगृ ण अने िगेंगे तो ईनकी सेवा करके
ईनके स्वधा भाग का ऄपपांश ऄयवमा को भी लमिेगा।' ईस िोक
के एकाकी वे स्वामी ऄसन्तष्टु नहीं थे - 'ऄभी तो
ऄलग्नष्वािालदगण भी नहीं अये हैं। पथ्ृ वी से जब पलथक अने
िगेंगे, मेरी सहायता को ये गण सलृ ष्टकताव भेज देंगे। िेलकन ऄयवमा
को तपस्या का यह ऄवसर पनु ः नहीं लमिेगा। ऄत:
ऄपपकालिक व्रत मेरे अनन्द का ही लनलमि है।'
'अपका िोक पान्थशािा?' सभु ि को िगा लक ऄयवमा से
ईसे बहुत कुछ सीखना है।
'कमवयोलन के वि मनष्ु य योलन है। ईसे सलृ ष्टकताव ने बडी सीमा
तक कमव करने में स्वतन्त्र कर लदया है। ऄपने कमों के ऄनसु ार ही
ईसे अगे जन्म तथा पररलस्थलत प्राप्त होती है।' ऄयवमा की आस बात
में तो कोइ अपलि होनी नहीं है।
240
'जीव का जन्म भी ईसके कमव-सम्बन्ध से होता है। ऄब यह
तो अवश्यक नहीं लक कोइ मनष्ु य मरे , तब लजसे ईसका लपता या
माता होना हो, वह भी ईसी योलन में जन्मकर वह ऄवस्था प्राप्त
कर चक ु ा हो लक सन्तान ईमपन्न कर सके । सबके कमव तो पथृ क्-
पथृ क् हैं। ऄत: मरनेवािे मनष्ु य को जन्म िेने के लिये तब तक
प्रतीिा करनी चालहये, जब तक ईसके लपता-माता होने वािे जन्म
िेकर ईपयि ु ऄवस्था के न हो जायाँ। के वि माता-लपता का ही
तो सम्बन्ध नहीं बनता; भाइ, बलहन, ह्ली-पत्रु , शत्र-ु लमत्रालद सहह्लों
सम्बन्ध एक जन्म से जडु े हैं।' ऄयवमा ने कहा - 'जीव ऄनेकों का
कमवऊण चक ु ाने ऄथवा दसू रों को लदया ऊण पाने ईमपन्न होता
है।'
हम-अप सरिता से समझ सकते हैं लक जब रे िगालडयों को
ऄनेक मागों पर चिना है तो जक ं शन भी रहेंगे और वहााँ
प्रतीिािय के लबना काम नहीं चिेगा। प्रमयेक यात्री को जक ं शन
पर गाडी बदिने के लिए रुकना न पडे, ऄभीष्ट रेन तमकाि लमि
जाया करे , ऐसी व्यवस्था सब जक ं शनों पर सम्भव नहीं है। कमव के
िि से जब लवलवध योलनयों में जन्म होता है और कमिेत्र में
हमारा सैकडों िोगों से - प्रालणयों से भी सम्बन्ध है, तब शरीर-
मयाग के तमकाि पश्चात जन्म लमिने की बात बन नहीं सकती।
तब प्रतीिािय चालहये ही। वही लपति ृ ोक है।
241
'अप ईपेलषत हैं, तब यहााँ अने वािों को ही ऄपेलित
सलु वधाएाँ कै से लमिती होंगी?' सभु ि ठीक ही सोच रहा था लक
जब िोकपलत ही को कुछ ईपिब्ध नहीं तो यहााँ अने वािा क्या
पावेगा।
'यहााँ लकसी के कमव का ििोदय नहीं होता; लकन्तु
ऄन्तःकरण ईसके साथ रहता है। ऄत: तलृ प्त-ऄतलृ प्त का ऄनभु व
होता है।' ऄयवमा समझा रहे थे - 'ईसके ईिरालधकारी ईसके
लनलमि जो श्राद्ध करते हैं, ईससे ईसकी तलृ प्त होती है। ईस श्राद्धांश
में ही मेरा भाग रहता है क्योंलक स्वधा के कव्य को ईलचत
ऄलधकारी तक पहुचाँ ा देने की सेवा मझु े प्राप्त है।'
'दसू रों के द्रारा लकये कमव का िि दसू रे को लमिता है?'
सभु ि ने पछू ा।
'ऄनेक ऄवस्थाओ ं में लमिता है।' ऄयवमा ने सत्रू ही
समझाया - 'जो प्राणी यहााँ अता है, ऄपना ईपाजवन छोड अया
है। ईसी के धन का ईपयोग ईसके लनलमि लकया गया तो ईसे
ईसका िि क्यों नहीं प्राप्त होगा। ईसकी सम्पलि न भी हो तो भी
पत्रु , पमनी अलद का कमविि लपता पलत को लमिता ही है। श्रद्धा
242
एवं सक
ं पपपवू वक पण्ु यकमों का दान वैसे ही सम्भव है जैसे ऄलजवत
धन या पदाथव का। पण्ु य भी तो ऄजवन ही है।'
'यलद ईिरालधकारी श्राद्ध न करें ।' सभु ि ने यह समझकर पछ
ू ा
लक जब कताव दसू रे हैं, तब करना-न करना ईनकी आच्छा पर है।
'लकसी पान्थशािा में कोइ अ पडे, ईसके समीप कुछ हो
नहीं और ईपाजवन का ऄवसर भी न हो, ऐसी ही ऄवस्था आस
िोक की है। मैं भी ईसकी सहायता करने की लस्थलत में नहीं।'
ऄयवमा ने खेदपवू वक कहा - 'ईिरालधकारी लपण्ड न दें ऐसा होना
सम्भव तो है। कलियगु में ऐसा होगा। तब ितु -् लपपासा से पीलडत
लपतर यहााँ रहकर भी नकव में पडे के समान कष्ट पाते हैं।'
'ितु -् लपपासा?' सभु ि चौंका। आन िोकों में भी भख
ू -प्यास
िगती है, आसका ऄब तक आसने ऄनभु व ही नहीं लकया था।
'पथ्ृ वी का ऄन्त:करण यहााँ वैसा ही अता है।' ऄयवमा ने
बतिाया - 'पथ्ृ वी पर मनष्ु य को जो मानलसक ऄतलृ प्त होती है, वह
यहााँ साथ अती है। यहााँ ईसे तलृ प्त-ऄतलृ प्त का ऄनभु व होता है।
िेलकन पदाथव के माध्यम से ही तलृ प्त का ऄनभु व करने का
243
ऄभ्यासी होने के कारण श्राद्ध में पदाथोमसगव हुए लबना यहााँ वह
तलृ प्त का ऄनभु व नहीं कर पाता।'
'अपके समीप लपतगृ ण कब अने िगेंगे?' सभु ि को दया
कह रही थी लक ऄयवमा का ईपवास ईनके अने पर ही टूटना है तो
शीघ्र अवें वे।
'सतयगु में तो कोइ अता नहीं। पथ्ृ वी पर मनष्ु य आस यगु में
स्वभाव से तप-ध्यान में तन्मय है। ऄत: वह मि ु न भी हुअ तो
स्वगव या ऄन्य ईिम िोकों को सीधे जाता है।' ऄयवमा कह गये -
'जैसे अपके माता-लपता देह मयागकर परमधाम पधारे । ऄतः
सतयगु में श्रलु त का श्राद्धाश
ं सलक्रय ही नहीं होता। त्रेता में जब
मनष्ु य की प्रवलृ ि में रजोगणु भी अ जाता है, ईसे पथ्ृ वी पर
पनु जवन्म प्राप्त होने िगता है। तभी ईसे लपति
ृ ोक अकर प्रतीिा
भी करनी पडती है और श्राद्ध भी पथ्ृ वी पर सम्पन्न होने िगता है।
िेलकन हमारे लपति ृ ोक का लदन भी देवताओ ं के समान ही है।
ऄतः मनष्ु यों के एक वषव में हमारा एक लदन ही होता है। मझु े
ऄपपकाि ही ईपवास करना पडेगा।'
244
'मैं यहााँ से ममयवधरा पर जाना चाहता ह।ाँ ' सभु ि ने ऄब
ऄपनी बात कही - 'वहााँ जन्म िेने के पवू व मझु े लकतनी प्रतीिा
अपके यहााँ करनी है?'
'अप मझु े िलज्जत करते हैं।' ऄयवमा ने हाथ जोडा -
'अपका कोइ अलतथ्य मैं नहीं कर सका। ऄपनी ऄसमथवता पर
मझु वैसे ही िज्जा है। मेरे िोक में बािक कोइ नहीं अते। यह
तो अप आस लदव्य देह से अ गये। अपका कोइ संलचत प्रारब्ध
तो है नहीं लक ईसके ईदयकाि तक अपको प्रतीिा करनी पडे।'
'अपके यहााँ सब वद्ध
ृ ही अते हैं?' सभु ि को कुतहू ि हुअ।
'प्राय: कम ही यवु क या तरुण अते हैं। के वि मनष्ु य अते
हैं।' ऄयवमा ने बतिाया - 'यद्यलप धरा पर लशशु भी मरते हैं; लकन्तु
लजनको नवीन कमव का ऄवसर ही नहीं लमिता, वे तो मनष्ु य जन्म
पाकर भी भोगयोलन के प्राणी जैसे ही होते हैं, कमव भोग पाने
ईमपन्न हुए। ईनका ऄगिा जन्म पवू व से लनलश्चत रहता है।'
'अप मेरे धरा पर जन्म धारण की व्यवस्था....।' सभु ि ने
संकोच तथा अग्रह के साथ कहा; लकन्तु ईसकी बात परू ी नहीं
हुइ।
245
'मैं जैसे ऄसहाय हाँ अपका स्वागत करने में' ऄयवमा ने कहा
- 'लकसी को आस िोक में प्रलवष्ट करने और यहााँ से भेजने में भी
वैसे ही ऄसहाय ह।ाँ मैं तो श्राद्ध-लववलजवत ऄसहाय लपतरों को तलृ प्त
भी नहीं दे पाता। के वि अगत कव्य को ईलचत लपतर तक पहुचाँ ा
देने का कायव मैं करता ह।ाँ '
सभु ि सोचने िगा लक ऄब वह कहााँ जाय ऄथवा क्या करे ।
क्योंलक ममयवधरा की मलहमा सनु रखी है आसने। ऄपने कन्हाइ तक
आन लदव्यिोकों के माध्यम से पहुचाँ ना सम्भव नहीं दीखता। तब
धरापर जाना ही है।
'मेरे यहााँ से कमव-लनयन्ता ही प्राणी को पथ्ृ वी पर पहुचाँ ाते हैं।'
ऄयवमा ने कहा - 'िेलकन अपके कोइ पवू व कमव ही नहीं तो
अपका लनयन्त्रण वे भी कै से करें ग?े '
'अपका यह लदव्य देह तो ऐलच्छक है।' ऄन्तत: ऄयवमा
देवता हैं, िोकपाि हैं। ईन्होंने ऄपने को एकाग्र लकया और तब
हाँसकर बोिे - 'अपका पालथवव शरीर कहीं गया तो है नहीं। वह
प्रकृलत के सक्ष्ू म स्तर में सरु लित अपकी प्रतीिा कर रहा है। अप
आच्छा करते ही पनु ः ईसी शरीर को प्राप्त करके पथ्ृ वी पर जीवन
246
का प्रारम्भ क्यों नहीं करते? ऄन्य देह अपको ऄभी प्राप्त हो, ऐसा
तो कोइ लनयम मझु े दीखता नहीं है।'
'वही देह प्राप्त हो जायगा।' सभु ि ने सोपिास कहा और
आच्छा करते ही वह लपति ृ ोक से वैसे ही ऄदृश्य हो गया, जैसे
पलहिे पथ्ृ वी से हुअ था।
।। पूवश खण्ड पररपूर्श ।।
247