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धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ की समीक्षा

सद्गुरुजी
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धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ की समीक्षा
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डॉ धर्मवीर भारती का जन्म २५ दिसम्बर १९२६ को तथा मृत्यु ४ सितम्बर १९९७ को हुई थी। आधुनिक हिन्दी साहित्य के महान साहित्यकार धर्मवीर भारती जी को उनके साहित्यिक जीवन में अनेकों पुरस्कार मिले थे। सन १९७२ में उन्हें पद्मश्री सम्मान सम्मानित किया गया था। डॉ धर्मवीर भारती जी का उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ उनकी सदाबहार रचना मानी जाती है। उनका उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ सबसे पहले १९५९ में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास की अपार लोकप्रियता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि विगत ५६ सालों में इस उपन्यास के विभिन्न भाषाओँ में सौ से अधिक संस्करण छप चुके हैं। युवा वर्ग में ये उपन्यास आज तक बहुत लोकप्रिय है। धर्मवीर भारती जी अपने जीवनकल में कभी ये नहीं समझ पाये कि ये उपन्यास इतना लोकप्रिय क्यों हुआ ? आदर्शवाद के दौर में ये उपन्यास प्रकाशित हुआ था।
लोंगो में उस समय क़ुरबानी देने का जोश और जुनून था। कोई देश पर, कोई साहित्य व कला पर तो कोई अपनी प्रेमिका पर कुर्बान होना चाहता था। उस समय बलिदानी होने की कामना ही हर एक मन में थी। स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाला जोश और जूनून लोगों के दिलों में जो अभी तक कायम था, अब वो आत्मबलिदान करने का मकसद तलाश रहा था। युवा दिलों में आदर्शयुक्त प्रेम यानि ‘प्लेटोनिक लव’ बसा हुआ था। प्राचीन यूनानी दार्शनिक प्लेटो के दर्शन के अनुसार लड़का और लड़की के बीच प्रेम शारीरिक न होकर आत्मिक होना चाहिए। जहाँ एक ओर शारीरिक प्रेम बर्बादी का कारण बन जाता है तो वहीँ दूसरी तरफ आत्मिक प्रेम ईश्वर के नजदीक ले जाता है। महान यूनानी दार्शनिक प्लेटो का ये आध्यत्म के ऊपर आधारित फलसफा आजादी से पहले और आजादी के कई दशक बाद तक देश के युवाओं में बहुत लोकप्रिय था।
इसी फलसफे को लेकर डॉ धर्मवीर भारती जी ने अपने उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ की रचना की, जो लोगों को बहुत पसंद आया। डॉ धर्मवीर भारती जी ने अपनी युवावस्था में ये उपन्यास लिखा था, जिसमे एक प्लेटोनिक लव स्टोरी यानि आदर्शवादी प्रेम कहानी है। उन्यास का नायक चंदर और नायिका सुधा ऐसे ही प्रेमी हैं, अपने दिलों में पनपने वाले अव्यक्त किस्म के प्रेम को जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं और एक दूसरे को हमेशा सुखी देखना चाहते हैं। दोनों ही संसार को दैहिक संबंध के बिना अपने प्रेम का चरम रूप दिखाना चाहते हैं। सुधा एक मासूम, चंचल, शोख और भोली-भाली लड़की है। चन्दर बेहद प्रतिभाशाली युवक है। सुधा के पिता उसे बहुत चाहते हैं, वो शिक्षा और नौकरी पाने में चन्दर की पूरी मदद करते हैं और अपने लेखकीय और घरेलू कामों में चन्दर की भरपूर मदद भी लेते हैं। चन्दर सुधा से बहुत प्रेम करता है।
पर चन्दर ये बात अच्छी तरह से जानता है कि उसकी और सुधा की दो भिन्न जातियों के बीच विवाह सम्बन्ध कभी भी संभव नहीं है। सुधा के प्रेम में नाकाम होने पर चन्दर पम्मी की शरण में जाता है। पम्मी चंदर को सही राह पर लाने के लिए उससे प्रेम करने लगती है, परन्तु आत्मिक प्रेम और शारीरिक प्रेम को लेकर वो खुद द्वंद में फंसी हुई है। वो चाहती है कि कोई उसे चाहे तो दिल से चाहे, पास आए, लेकिन उसे छुए न और उसके स्व को कोई ठेस न पहुंचाए। उपन्यास के एक प्रसंग में पम्मी चंदर से कहती है-कितना अच्छा हो, अगर आदमी हमेशा संबंधों में एक दूरी रखे। सेक्स न आने दे। ये सितारे हैं, देखो कितने नजदीक हैं। करोड़ों बरस से साथ हैं, लेकिन कभी भी एक-दूसरे को छूते तक नहीं, तभी तो संग निभ जाता है। बस ऐसा हो कि आदमी अपने प्रेमास्पद को अपने निकट लाकर छोड़ दे, उसको बांधे न। कुछ ऐसा हो कि होंठों के पास खींचकर छोड़ दे।
नदी के किनारे रात के समय बांस के मचान में जारी रोमांटिक मुलाकात में पम्मी का आदर्श प्रेम और चंदर की पवित्रता भंग हो जाती है। उन दोनों का आदर्शवादी प्रेम सेक्सुअल टच में बदल जाता है। भारती जी उसके बारे में बस इतना ही कहे हैं-‘पम्मी उठी, वह भी उठा। बांस का मचान हिला। लहरों में हरकत हुई। करोड़ों साल से अलग और पवित्र सितारे हिले, आपस में टकराए और चूर-चूर होकर बिखर गए। पम्मी के आदर्शवादी प्यार की प्रतिक्रिया सेक्स की ही प्यास में पूरी होती है। चंदर को लिखे अपने अंतिम पत्र में पम्मी कहती भी है-‘मैं जानती थी कि हम दोनों के संबंधों में प्रारंभ से इतनी विचित्रताएं थीं कि हम दोनों का संबंध स्थायी नहीं रह सकता था, फिर भी जिन क्षणों में हम दोनों एक ही तूफान में फंस गए थे, वे क्षण मेरे लिए मूल्य निधि रहेंगे। ’सुधा के प्रेम में द्वंद और भटकाव झेल रहे चंदर को सहारा और प्यार देने वाली पम्मी अंत में उसे छोड़कर अपने पति के पास चली जाती है। चन्दर युवा है और उसे भी प्रेम की तलाश है।
पर वो बहुत भटकाव और अनिर्णय की स्थति में जीता है। पूरे उपन्यास में प्रेम को लेकर सभी पात्रों में अजीब सा द्वंद है। उपन्यास का नायक चन्दर सुधा की नजरों में देवता बनने के चक्कर में अंत में गुनाहों का देवता बन जाता है और नायिका सुधा शादी कहीं और हो जाने पर भी चन्दर का भक्त बने रहना चाहती है। गर्भपात के समय खून अधिक बहने से सुधा की मृत्यु हो जाती है। वो अंतिम समय तक चन्दर की भक्त बनी रहती है। अंत में सुधा के पिता को पछतावा होता है कि उन्होंने सुधा की शादी चन्दर से क्यों नहीं की। इस पछतावे और सुधा की अंतिम इच्छा के कारण ही वो अपने बहन की लड़की बिनती की शादी चन्दर से करने का मन बना लेते हैं और उपन्यास के अंत में चन्दर बिनती के साथ शादी करने के लिए तैयार हो जाता है। इस उपन्यास के सेक्सुअल प्रसंग में भी अश्लीलता नहीं है।
ये पूरी तरह से एक आदर्शवादी उपन्यास है। इसे घर परिवार के बीच रहकर भी पढ़ सकते हैं। डॉ धर्मवीर भारती अपने इस उपन्यास के बारे में कहते हैं कि- ‘मेरे लिए इस उपन्यास का लिखना वैसा ही रहा है, जैसा पीड़ा के क्षणों में पूरी आस्था से प्रार्थना करना और इस समय भी मुझे ऐसा लग रहा है, जैसे मैं प्रार्थना मन ही मन दोहरा रहा हूं, बस…’ यही वजह है कि ये उपन्यास युवाओं के बीच हमेशा से लोकप्रिय रहा है और हमेशा रहेगा। इस लोकप्रिय उपन्यास पर अमिताभ बच्चन और रेखा को लेकर एक फिल्म का निर्माण शुरू हुआ था, जिसका नाम था- ‘एक था चंदर एक थी सुधा’. परन्तु दुर्भाग्य से ये फिल्म पूरी नहीं हो सकी। ये उपन्यास कई सालों के बाद मैंने अब फिर से दुबारा पढ़ा है। इस उपन्यास की ये पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगीं-
* अगर आप किसी औरत के हाथ पर हाथ रखते हैं तो स्पर्श की अनुभूति से ही वह जान जाएगी कि आप उससे कोई प्रश्न कर रहे हैं, याचना कर रहे हैं, सांत्वना दे रहे हैं या सांत्वना मांग रहे हैं। क्षमा मांग रहे हैं या क्षमा दे रहे हैं, प्यार का आरंभ कर रहे हैं या समाप्त कर रहे हैं? स्वागत कर रहे हैं या विदा दे रहे हैं? यह पुलक का स्पर्श है या उदासी का चाव और नशे का स्पर्श है या खिन्नता और बेमनी का?
* अगर पुरुषों के होंठों में तीखी प्यास न हो, बाहुपाशों में जहर न हो, तो वासना की इस शिथिलता से नारी फौरन समझ जाती है कि संबंधों में दूरी आती जा रही है। संबंधों की घनिष्ठता को नापने का नारी के पास एक ही मापदंड है, चुंबन का तीखापन..
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* बुद्धि और शरीर बस यही दो आदमी के मूल तत्व हैं। हृदय तो दोनों के अंत:संघर्ष की उलझन का नाम है।
* बहलावे के लिए मुस्कानें ही जरूरी नहीं होती हैं, शायद आंसुओं से मन जल्दी बहल जाता है।’

यह उन्यास आज भी चिर युवा ओर बेहद प्रासंगिक है। युवाओं के लिए बहुत शिक्षाप्रद और शुद्ध प्रेम को समझने में उपयोगी इस उपन्यास को एक बार जरूर पढ़ना चाहिए। ये उपन्यास आप बाजार से खरीदकर पढ़ सकते हैं। अब ये इंटरनेट पर भी उपलब्ध है। प्रकृति और प्रेम के अदभुद चित्रण व कथा वाले इस उपन्यास की इन पंक्तियों के साथ ही मैं अपनी समीक्षा को यहीं विराम देता हूँ-
“बादशाहों की मुअत्तर ख्वाबगाहों में कहां,
वह मजा जो भीगी-भीगी घास पर सोने में है,
मुइतमइन बेफ़िक्र लोगों की हंसी में भी कहां,
लुत्फ़ जो एक दूसरे की देखकर रोने में है।”

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आलेख और प्रस्तुति=सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी,प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम,ग्राम-घमहापुर,पोस्ट-कन्द्वा,जिला-वाराणसी.पिन-२२११०६.
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